मधुराधिपति श्रीकृष्ण


इस धरा पर जो भी सौंदर्य है, जो तुम्हें आकर्षित करता है, वह कृष्ण है। जो सुंदर घाटियों में जाकर, ऊंचे घने पर्वतों को देखकर, नदियों की कल-कल सुनकर, झरनों की श्वेत धारा में परमात्मा के दर्शन करता है, वह कृष्ण का अनन्य भक्त है। क्योंकि कृष्ण मूरत में नहीं अपितु पृथ्वी के कण कण में व्याप्त है। कृष्ट अर्थात् आकर्षण, ण अर्थात् स्वामी, जो हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करे और तुम्हारे ध्यान को अन्य मायावी वासनाओं से दूर करे वह 'कृष्ण' है। गुरु वल्लभाचार्य ने भगवान श्रीकृष्ण की व्याख्या मधुराष्टकम् में अति मधुरता और विलक्षणता से की है, जिसे सुनकर रोम-रोम प्रभु की सुंदरता से रोमांचित हो जाता है। मधु अर्थात् मीठा, सुंदर, आकर्षक, मधुर अर्थात् मीठे का, सौंदर्य का श्रोत और मधुराधिपति अर्थात् मधुरता के श्रोत का स्वामी- वह कृष्ण है। जीवन में कटुता दूर करने के लिए मधुरता का पाठ करना जरूरी है। इसलिए मधुराष्टकम् द्वारा कृष्ण का भजन करने से धीरे-धीरे जीवन से कटुता दूर हो जाती है और मधुरता का जीवन में आविर्भाव होता है। कृष्ण वो स्वामी हैं जिनका मुख, होंठ, नयन, मुस्कान, हृदय, स्वभाव, चरित्र, लीला, चरण, हाथ, नृत्य, दोस्ती, गीत, नींद, माथे का तिलक, याद, शांत भाव, सिर के गुंजल बाल, उनके गोप गोपियां, उनका स्नेह, उनकी गाय, ग्वाल बाल, उनके द्वारा रचित संपूर्ण सृष्टि अभी अत्यंत सुंदर है। हे स्वामी! हे अंतर्यामी! हम आपकी अनन्य भक्ति के पात्र हों, ऐसा आशीर्वाद दो...


अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।।


हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ | (1)


आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी आंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।।


 वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।।


चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ | (2)


 आपका बोलना मधुर है, आपके चरित्र मधुर हैं, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपका तिरछा खड़ा होना मधुर है, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।


वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः । पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।


नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधराधिपतेरखिलं मधरम॥ (3)


आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं, आपके चरण मधुर हैं, आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।


गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।।


रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ | (4)


 आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।


करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।।


वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ (5)


आपके कार्य मधुर हैं, आपका तैरना मधुर है, आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, आपके शब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।।


गुंजा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा।।


सलिलं मधुरं कमलं मधुरं | मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ | (6)


आपकी सुंघची मधुर है, आपकी माला मधुर है, आपकी यमुना मधुर है, उसकी लहरें मधुर हैं, उसका पानी मधुर है, उसके कमल मधुर हैं, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।


गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् ।। |


दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं । मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ | (7) 


आपकी गोपियाँ मधुर हैं, आपकी लीला मधुर है, आप उनके साथ मधुर हैं, आप उनके बिना मधुर हैं, आपका देखना मधुर है, आपकी शिष्टता मधर है, मधरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।


गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा।।


दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥ | (8) 


 आपके गोप मधुर हैं, आपकी गायें मधुर हैं, आपकी छड़ी मधुर है, आपकी सृष्टि मधुर है, आपका विनाश करना मधुर है, आपका वर देना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण! आपका सब कुछ मधुर है।


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