संस्कृति का विस्मरण गुलामी का परिचायक


 नववर्ष जब भी आता है, हम सभी में शुभ संकल्प लेने की होड़ लग जाती है। हम सभी अपने जीवन की बेहतरी के लिए शुभ संकल्प लेते भी हैं, लेकिन ये शुभ संकल्प पहली जनवरी से लोहड़ी तक भी नहीं टिक पाते, टूट जाते हैं। आखिर क्यों? इसलिए क्योंकि हम सभी सांस्कृतिक रूप से कमजोर धरातल पर खड़े हैं। हम हमेशा कहते हैं कि भारत विश्व गुरु रहा है, लेकिन क्या आज है? और नहीं, तो क्यों? जवाब है, अंग्रेजी शिक्षा प्रणालीयह शिक्षा प्रणाली हमें अपनी जड़ों तक पहुंचने का, जड़ों को संपोषण देने का होश ही नहीं रहने देती। स्कूलों में अब बच्चों को बड़ों को नाम से बुलाने की नसीहत दी जाने लगी है। तर्क करना बच्चों की सफलता का एकमात्र पैमाना बना दिया गया है। अमेरिका, ब्रिटेन आदि के समाज में तो यह व्यवस्था चल सकती है, लेकिन भारत में इसका उल्टा असर देखने को मिल रहा है। पहले बच्चे बड़ों से तहजीब से पेश आते थे और काफी सोच-समझ कर अपनी बात रखते थे, लेकिन अंग्रेजी शिक्षा के असर से बच्चे अब बड़ों के सामने तेज आवाज में बात करते हैं, बिना मकसद के तर्क करते हैं और स्वयं के सफल होने का स्वांग पालते हैं। वे तो भूल ही गए हैं- 'प्रात काल उठि के रघुनाथा, मातु-पिता-गुरु नावहिं माथा'। अब माता-पिता-गुरु के चरण छूने के बजाय, उनके घुटने छूने का चलन बन गया है। दरअसल हम भूल गए हैं कि हम जिस पश्चिमी समाज का अंधानुकरण कर रहे हैं, उस समाज में एक घर में रह रहा बच्चा, जरूरी नहीं कि दोनों माता-पिता से हो। बल्कि वह अपने पिता की तीसरी पत्नी से उत्पन्न जैविक संतान हो सकता है। और इस नाते वह अपने पिता की वर्तमान पत्नी को माता नहीं कह कर, नाम से बुलाता है। उस पश्चिमी व्यवस्था में यह बात तर्कसंगत है, लेकिन हमारे समाज में अभी एक घर में एक ही माता-पिता से उत्पन्न जैविक संतान रहती है। ऐसे में माता-पिता में से किसी एक को नाम से बुलाना कुसंस्कार कहलाएगा। लेकिन विकास के नाम पर हम इसे स्वीकार कर रहे हैं।


तर्कवादी होना अच्छी बात है। लेकिन तर्क में यदि समाज के व्यापक हित का उद्देश्य शामिल न हो तो वह राम एवं रावण का भेद नहीं कर पाता। रावण प्रकांड पंडित था, लेकिन प्रभु श्रीराम से पराजित होता है। यही कारण है कि आज पश्चिम में समाज टूट रहे हैं। चिंताजनक बात तो यह है कि ऐसा आजादी के नाम पर हो रहा है। सवाल हैकि ऐसी आजादी किस काम की, जो समाज एवं परिवार को तोड़ने का काम करेऐसे भी हमारे स्कूलों से प्रार्थना सभा एवं संस्कृत शिक्षा का लोप हो रहा है...


तो क्या हम  यह संकल्प लेंगे कि एक जागरूक समाज के तौर पर स्कूलों में नैतिक शिक्षा एवं संस्कृत का समावेश करने के लिए सरकार को मजबूर करेंगे। क्योंकि यही वे दो आवश्यक तत्व हैं, जो हमारी संस्कृति से हमारा परिचय कराते हैं। और संस्कृति का विस्मरण देश की गुलामी का परिचायक है। तो क्या हम संकल्प लेंगे...?


ॐ पूर्णमिदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमदुच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिष्यते 


ॐशान्ति शान्ति शान्ति ।


 रश्मि मल्होत्रा


मुख्य संपादक ओम्


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