बदलते परिवेश में योग विमर्श

आमुख कथा




पतंजलि मुनि कहते हैं कि ईश्वर से अथवा जिस विषय में अपनी रुचि हो, उसी पर ध्यान जमाने से, चित्त को स्थिर करने की शक्ति प्राप्त होती है। ईश्वर का इस रूप में ध्यान किया जा सकता है कि वह सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी सगुण परमेश्वर हैं अथवा इस रूप में भी ध्यान किया जा सकता है कि वह निर्गुण-निरंजन परब्रह्म हैं जिनमें प्रेम, द्वेष, दया, सृष्टि, स्थिति, संहार आदि कोई गण नहीं हैं।



योग को हम-आप कैसे समझें। क्या यह यौगिक किया है अथवा उसे ज्यादा। दरअसल यह उससे परे मन को संयम में रखते हुए शांतचित्त एवं धीर-गंभीर जीवन जीने का जरिया है। अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्रमन से आगे बढ़ना है योग। राह में आनेवाली विपदा से मन हटाते हुए लक्ष्य पर मन एकाग्र कर आगे बढ़ने का नाम योग है। दरअसल योग का मूलभूत अभिप्राय है किसी एक समय में किसी एक ही वस्तु पर चित्त का एकाग्र का प्रकाश होना। लगातार अभ्यास करने से मन का ऐसा स्वभाव बन जाता है कि किसी विषय को सोचते या किसी काम को करते हुए मन उस पर एकाग्र रहे। जब अभ्यास करते-करते वैसा स्वभाव बन जाता है, तब उससे बड़ा सख होता है। और यही योग की सफलता है। इस गुण को मां-बाप को अपने बच्चों को बालकाल में सिखाना चाहिए। क्योंकि मन स्थिर न हो तो कोई बात सीखी नहीं जा सकती। एक खिलाड़ी मन से वह मैच नहीं जीत सकता अपनी । टीम के लिए। बहत से विद्यार्थी जो प्रतिवर्ष जानता है कि अस्थिर विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में फेल हुआ करते हैं, इसका कारण यही है कि अध्ययन  मन को एकाग्र करने की शक्ति हो उनमे में मन को एकाग्र करने की शक्ति ही उनमें नहीं होती। यही बात सांसारिक विषयों में होने वाली विफलताओं की है। जब तक मनुष्य अपने विचारणीय विषय या करणीय कार्य में तन्मय नहीं होता, तब तक उसे उसमें सफलता मिल ही नहीं सकती।


योग स्वयं कोई धर्म संप्रदाय या धर्मविषयक तत्वज्ञान नहीं है, बल्कि यह संसार के सभी धर्मों और तत्वज्ञानों का सहायक है। संसार के सभी धर्म वालों को इसके द्वारा यह शिक्षा मिलती है कि किस प्रकार अपनी-अपनी धर्मविषयक बातों में मन को एकाग्र करने से शांति और आनंद प्राप्त होता है। 


पातंजल योग सूत्रों में जिस विषय का मुख्यतया प्रतिपादन किया गया है, वह है'चित्तवृत्तिनिरोध' अर्थात अन्य विषयों से चित्त को खींचकर एक ही । को खींचकर एक ही विषय में एकाग्र करना। मन को एकाग्र करने की शक्ति निरंतर अभ्यास और सांसारिक भोगों से मुंह मोडने से प्राप्त होती हैसूत्र 23 और 39 में पतंजलि मुनि कहते हैं कि ईश्वर से अथवा जिस विषय में अपनी रुचि हो. उसी पर ध्यान जमाने से चित्त को स्थिर करने की शक्ति प्राप्त होती है। ईश्वर का इस रूप में ध्यान किया जा सकता है कि वह सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी सगुण परमेश्वर हैंअथवा इस रूप में भी ध्यान किया जा सकता है कि वह निर्गुण-निरंजन परब्रह्म हैं जिनमें प्रेम, द्वेष, दया, सृष्टि, स्थिति, संहार आदि कोई गुण नहीं हैं।


                     


योगदर्शन ईश्वर के विषय में इतना ही कहता है कि वह कोई ऐसे 'पुरुष हैं, क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से नित्यमुक्त हैं' (यो.सू. 1.24)। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कोई यज्ञ या तप-अनुष्ठान योग सूत्रों में नहीं बताया गया है। यदि कोई धर्म-संप्रदाय अपने अनुयायियों को ऐसी कोई बात बतलाता हैतो योगसूत्रों में उसका कोई विरोध भी नहीं है, पर योगसूत्र यह अवश्य कहते हैं कि तुम जो कुछ करो, उसे सच्चे हृदय और तन्मय होकर करो। इसलिए कोई ईसाई हो, मुसलमान हो, जैन हो या किसी भी मत का मानने वाला हो, इसकी कोई परवाह नहीं, यदि वह अपने धर्म का पालन करने में यदि योगसूत्रों की शिक्षा से काम लेता है तो इसमें उसका बड़ा लाभ है। यही नहीं, बल्कि योग शिक्षा से अर्थकरी विद्या के अध्ययन में, ख्रषि और उद्योग-धंधों में, सामरिक शिक्षा में, व्यापार और राज्य शासन में भी काम लिया जाए तो इन क्षेत्रों में भी सफलता निश्चित है। यही तो बात है जिससे रोग मन को हर लेता है।


इसमें संदेह नहीं कि योगसूत्रों में जो लक्ष्य सामने रखा गया है. वह द्रष्टा का अर्थात आत्मा का अपने स्वरूप में अवस्थान है। इसका यह मतलब है कि योगसूत्रों के अनुसार निरंतर आचरण करने से चित्त सांसारिक भोगों से विरत होकर निज स्वरूप में स्थिर हो जाता है। चितवृत्तियों का यह निरोध किसी भी धर्म-संप्रदाय की शिक्षा के प्रतिकूल नहीं है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है, यह नियम सर्वमान्य है। लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकारों के प्रयासों की सफलता के लिए स्वस्थ शरीर इसीलिए आवश्यक है। योग शिक्षा में आहार-विहार के नियमों का पालन अत्यंत आवश्यक है। श्रीमद् भगवद्गीता में स्पष्ट ही कहा है कि जो 'युक्ताहारविहार' नहीं हैं, उन्हें जीवन में कोई सफलता नहीं मिल सकती।


योगसूत्रों के दो भाग हैं- हठयोग और राजयोग। हठयोग में आसनों की शिक्षा है- आसनों से आरोग्य और बल प्राप्त होता है। आसनों की रचना ऐसी है कि जिससे शरीर के अंग-प्रत्यंग का व्यायाम हो जाए। उदाहरणार्थ, मयूरासन से सब अंतड़ियों का व्यायाम हो जाता है जिससे अपच तथा वायु की शिकायत नहीं रहती। प्राणायाम से प्राणवायु मिलती है और अशुद्ध वायु निकल जाती है। भगवद्गीता के समान ही हठयोग में भी मिर्च-मसाले आदि की मनाही है। राजस और तामस आहार का सर्वथा त्याग है। मसालेदार पदार्थ खाने वाला राजस मनुष्य उस आहार के कारण क्रोधी, लालची और कामी होता है और तामस आहार करने वाला मनुष्य आलसी, दीर्घसूत्री और प्रमादी होता है। हठयोग में जिसे सात्विक आहार गया है उससे सद्गुणों की वृद्धि होती है और आरोग्य तथा बल बढ़ता है।


योगी शब्द से अत्यंत व्यापक अर्थ लिया जाए तो जो कोई संसार में सदाचार से रहकर जीवन को सफल करना चाहता है, वही योगी है। सभी धर्म यह बतलाते हैं। कि सदाचार ही स्वर्ग का सुगम मार्ग है। योग में सदाचार का अर्थ केवल सामाजिक शिष्टाचार नहीं है, बल्कि आहार-विहार का नियम भी है।


आधुनिक सभ्यता की सब बुराइयों की जड़ आहार-विहार के विषय में किसी मर्यादा का न होना, विषयभोग और अधार्मिकता है। सच्चे सदाचारी मनुष्य को संसार के किसी न किसी धर्म को मानकर चलने में कोई दिक्कत नहीं होती। सदाचार धर्म की रक्षा करता है और धर्म सदाचार की। सदाचार और धर्म सदा साथ रहते हैंविज्ञान भी धर्म या सदाचार का विरोधी नहीं है। यौगिक जीवन का अर्थ, संक्षेप में, 'शरीर का युक्त व्यायाम, सादा सात्विक आहार और सद्विद्या का अध्यय भी वैज्ञानिक क्या इस प्रकार के जीवन को बुरा बता सकता है? शारीरिक व्यायाम के नाम पर तरह-तरह के खेल स्कूलों में खेलाए जाते हैं और कसरतें कराई जाती हैं। पर ऐसे कोई भी कसरती जवान योगी के-से दीर्घायु नहीं होतेयोगी कसरती की तरह न तो हजार डंड-बैठक लगाता है, न बहुत खाता ही है। शरीर या बुद्धि को बेहिसाब बढ़ाना उसका काम नहीं है। उसे न स्नायुओं को फुलाने की परवाह है, न वजन बढ़ाने वाले खाद्यों की है। उसे तो नियमित सात्विक आहार चाहिए। योगी का युक्त आहार-विहार ऐसा होता है कि उसका चित्त प्रसन्न, बुद्धि स्थिर और / गठा हुआ सुडौल शरीर होता है।


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