धर्मावलंबियों के सर्वमान्य संत कबीर


पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संत कबीर को याद किया। संत कबीर भारत में सभी धर्मावलंबियों के सर्वमान्य संत हैं। लेकिन जब प्रधानमंत्री यह कहें कि संत कबीर, गुरू नानक एवं बाबा गोरखनाथ ने एक साथ बैठकर चर्चा की थी, तो बिना इस बहस में पड़े कि उन्होंने आपस में क्या चर्चा की थी, हम इस पर विचार करें कि कबीर ने अलग-अलग धर्मपंथ के लोगों के जीवन में सुधार लाने के लिए क्या क्या जतन किए हैं। इतिहास हमें बताता है कि कबीर ने केवल किसी एक धर्मपथ पर कटाक्ष नहीं किया था। उन्होंने सामान्य रूप से सभी धर्मपंथों पर करुणा भरे व्यंग्य की भाषा में अपनी बातें कही हैं। जितना उन्होंने मुल्लों के समझाया, उतना ही पंडे-पुरोहितों को भी समझाया। उन्होंने तो अपनी तरह के साधुओं तक को समझाया। लेकिन उनके द्वारा किए गए कटाक्ष में द्वेष का कोई स्थान नहीं है। उनमें • केवल करुणा है, प्रेम है, 06 लोकमंगल का उद्देश्य निहित हैजो संत होता है, महात्मा होता किसी भी व्यक्तिविशेष या समदायविशेष प्रति क्रोध, आवेशआक्रोश प्रतिक्रिया इत्यादि से ग्रसित नहीं होता। उसके सबके प्रति समान रूप से प्रेमऔर करुणा होती है। यदि वह फटकारता भी है, तो वह कबीर में 'अन्तर हाथ सहार है बाहर जैसी फटकार होती है। 


कबीर जैसे संतों के लिए क्या राजा लोदी क्या बधिया रंक। उन्होंने अपने साथ-साथ सबको एक ही पलड़े में तौला-


'आए हैं सो जाएंगे राजा रंक फकीर, एक सिंहासन चढ़ चले एक बंधे जंजीर' या


'एक दिन ऐसा होयगा, सबसे पड़े बिछोह। राजा राना राव रंक सावध क्यों नहीं होय।।'


और कबीर जैसे संत सांप्रदायिक विद्वेष के नहीं, बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द्र के प्रतीक हैं। उन्होंने तो यह कहा,


भाई रे दुइ जगदीश कहां ते आया, कहु कौने बौराया। अल्लाह राम करीमा केशव, हरि-हजरत नाम धराया।।


वोही महादेव वोही मोहम्मद, ब्रह्मा आदम कहियेको हिन्दू को तुरुक कहावे, एक जिमी पर रोहय


रोहयदेश में पिछले कुछ दशकों में कबीर को एक राजनीतिक क्रांतिकारी साबित करनेवाली एक धारा सक्रिय रही है। एक तरफ जहां उन्हें जुलाहा जाति का साबित कर ओबीसी आंदोलन उन्हें हड़पने की तैयारी में है, वहीं दलित विमर्श भी उन्हें आध्यात्मिक कम और राजनीतिक ज्यादा साबित करने पर तुला हुआ है


कबीर ने 'सांच कहौं तो मारन धावै' यूं ही नहीं कहा होगा। लेकिन फिर भी कबीर जैसे संतों को को किन्हीं समुदायों के खिलाफ खड़ा करके राजनीतिक धारा में नहीं घसीटना चाहिए। उनके हृदय में तो कथित ब्राह्मणों तक के लिए समान रूप से करुणा का भाव था- 'धर्म करै जहां जीव बधतु हैं, अकरम करै मोरे भाई। जौं तोहरा को ब्राह्मण कहिए, काको कहिएकसाई।।' और फिर 'न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर' या 'घट-घट में वह साई बसतु हैं' वाले कबीर के प्रेम और करुणा की इंतहा तो यह थी कि उन्हें कोई दूसरा भी 'दूसरा' नहीं लगता था। तभी तो उन्होंने कहा होगा- 'मैं लागा उस एक से एक भया सब मांही। सब मेरा मैं सबन का तिन्हा दूसरा नाहीं।।' 


लेकिन हमारे-आपके जैसे लोग जब अपने द्वेष और अहंकार की तुष्टि के लिए कबीर या अन्य संतों के शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं, तो जाने-अनजाने उन्हें किसी जाति-विशेष, पंथ-विशेष अथवा संप्रदाय-विशेष के खिलाफ खड़े करने काकुप्रयास करते हैं। इससे न केवल उन संतों के प्रति लोगों में गलतफहमी, खीज और अश्रद्धा उत्पन्न होती है, बल्कि इससे सामनेवाले से जिस सुधार की हम अपेक्षा कर रहे होते हैं उसका ठीक उल्टा होता है। कारण कि उन समुदायों के प्रति कहीं न कहीं हमारे मन के किसी चोर कोने में द्वेष और पूर्वग्रह भरा होता है। बात भले ही हम किन्हीं संत के हवाले से कह रहे हों, लेकिन हमारा अपना द्वेष और पूर्वग्रह सफ जाहिर हो जाता है। इसलिए वह बात अपनी जगह सही होकर भी वांछित असर पैदा करनेवाली नहीं हो पाती।


दरअसल, संतों की वाणी के मामले में हमें सतर्क रहना चाहिए। कम से कम उन्हें और उनके शब्दों को तो अपने संकीर्ण दायरों से ऊपर रखेंक्योंकि इसी चालाकी का इस्तेमाल करते हुए यदि लोग आपके धर्मपंथ के ऊपर कबीर की कही गई बातें चुटकुले और उपहास के रूप में रोजाना शेयर करने लग जाएं, तो आपके मन में भी केवल खीज ही पैदा होगी। आप समझ नहीं पाएंगे कि किसी संत ने ऐसा करुणा के वश होकर कहा था, द्वेष के वश होकर नहीं।


आप में कोई सकारात्मक परिवर्तन होने के बजाए केवल प्रतिक्रिया ही पैदा होगी। और उस संत के प्रति गलतफहमी और अश्रद्धा उत्पन्न होगी सो अलग


एक संप्रदाय जब केवल दुसरे संप्रदाय के छिद्राण्वेषण और सुधार में अपना समय और अपनी ऊर्जा लगाने लगता है, तो स्थिति वैसी ही हो जाती है जिसे हम 'चलनी दूसे सूप को जिसमें बहत्तर छेद' का चरितार्थ होना कहते हैं।



हमारे-आपके जैसे लोग जब अपने द्वेष और अहंकार की तुष्टि के लिए कबीर या अन्य संतों के शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं, तो जाने-अनजाने उन्हें किसी जाति-विशेष, पंथ-विशेष अथवा संप्रदाय विशेष के खिलाफ खड़ेकरने का कुप्रयास करते हैं। इससे न केवल उन संतों के प्रति लोगों में गलतफहमी, खीज और अश्रद्धा उत्पन्न होती है, बल्कि इससे सामनेवाले से जिस सुधार की हम अपेक्षा कर रहे होते हैं। उसका ठीक उल्टा होता है



दरअसल, हम पहले अपने घर, अपने समुदाय, अपने संप्रदाय को ऐसा आदर्श बनाएं कि हमारा पड़ोसी भी वैसा ही बनना चाहे। यदि समालोचना करनी ही हो, तो उसके लिए पहले निरपेक्ष नजरिए का विकास करना चाहिए। स्वयं में आत्मालोचना का साहस पैदा करना चाहिए। और जैसा कि उचित है कि शुरुआत हमेशा अपने घर, समुदाय या संप्रदाय से करनी चाहिए


कबीर को आज की तारीख में पढ़ने-समझने से पहले हम ये समझें कि आज भारत का बहुसंख्यक संप्रदाय आत्महीनता का शिकार हुआ लगता है। ठीक इसी तरह यहां के अल्पसंख्यक समुदाय भी पीड़ितपने का शिकार दिखाई देते हैं


इन दोनों को ही इन दोनों प्रकार के आग्रहों से बाहर निकलना होगा। तभी कोई वास्तविक संवाद भी संभव होगा। अभी क्या है कि यदि हमने गौरक्षा के नाम पर चल रही विवेकहीन हिंसा पर विनम्रतापूर्वक भी कुछ कहा, तो इसे / 'मस्लिम तष्टिकरण' का न नाम दे दिया जाएगा। 


ठीक इसी तरह यदि हमने भूले से भी भारतीय परंपरा का जिक्र कर दिया, तो इसे 'हिंदू पुष्टिकरण' का नाम दे दिया जाएगा। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि हमने उदारता, तटस्थता और अनेकांतता के नजरिए से विचारों और घटनाओं को देखना बंद कर दिया है। इसलिए जिन संतों ने खुद को तपाकर अपनी आध्यात्मिक अनुभूति से सत्य का साक्षात्कार किया। जिनका हृदय प्राणिमात्र के लिए करुणा से भर गया। उनकी वाणी को भी गाली के रूप में इस्तेमाल करने की चेष्टा करने लगते हैं। इससे अपनी आध्यात्मिक और नैतिक क्षति तो होती ही है, देश और समाज का भी लाभ होने के बजाय नुकसान ही होता है। इसलिए संतों और उनकी वाणियों के प्रति अवसरवादी किस्म का प्रेम पालने के बजाय हमें सबके प्रति अनंत और शर्तरहित प्रेम की ओर बढ़ना पड़ेगा। कबीर जैसे संतों के कंधे पर रखकर अपनी द्वेषपूर्ण भड़ास वाली बंदूक किसी एक संप्रदाय के खिलाफ चलाने का प्रयास ठीक नहीं। हमें अपने भीतर के उस शैतान को पहचानकर उसे निकाल बाहर करना होगा। संत और उनकी वाणी इसी में तो हमारी मदद करते हैं। इस मामले में हमसे भले तो हमारे पूर्वज मालूम होते हैं, जिन्होंने संतों की कटु वाणियों को भी शिरोधार्य किया, उनसे मार्गदर्शन लिया। कबीर जैसे करुणावान लेकिन कटु सत्य बोलनेवाले महात्माओं को तो आज हम एक पल के लिए भी बरदाश्त न कर पाते। शायद जीने भी नहीं देतेजबकि किंवदंतियों में ऐसा कहा जाता है कि कबीर के शव को अपनाने के लिए हिंदू और मुसलमान दोनों ही लड़ पड़े थे। आईने-ए-अकबरी वाली पांडुलिपि में कबीर की स्वाभाविक मृत्यु और शव को दफनाने और जलाने को लेकर ब्राह्मणों और मुसलमानों के बीच  विवाद का जिक्र है।


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