जब हम सब ब्रह्म हैं तो ईश्वर पूजा क्यों?
शंका समाधान
जब सर्वत्र सर्व परिपूर्ण ब्रह्म है और हम भी ब्रह्म हैं तो ईश्वर पूजा, आराधना और उसकी महिमा के गीत गाने से क्या लाभ है? क्या ईश्वर को मान कर हमारे अद्वैत मत का खंडन नहीं होता?
और क्या इस समुच्य वाद से हमारे निश्चय में अन्तर नहीं पड़ता? आपका अपना = क्या विचार है, कृपया बतायें, क्योंकि यह शंका प्रायः सभी जिज्ञासुओं के मन से पैदा हो जाती है(स्वामी कृष्ण तीर्थ)
उत्तरः शुष्क वेदान्त जिसका प्रचार आजकल के महात्मा करते हैं, उचित नहीं है। ये महात्मा सदा सातवीं भूमिका याने अनुभव' पुस्तकें लिखी हैं। तुरिया में बैठ कर बोलने का प्रयत्न करते हैं और ईश्वर के ख्याल को धोखा और उसको नमस्कार करने को अनुचित कहते हैं। मैं तो स्वामी शंकराचार्य को अद्वैत मानता हूं। उनका वेदान्त ईश्वर भक्ति से शुरू होता है।
उन्होंने अपनी पुस्तक 'विवेक चूड़ामणि' में कई जगह कहा है कि यह मनुष्य जन्म और सत्संग ईश्वर की कृपा से प्राप्त होता है। भगवत् कृपा से ही आत्मज्ञान और अपरोक्ष अनुभव होता है। स्वामी शंकराचार्य ने पूर्ण साक्षात्कार और योग की अंतिम सीमा पा कर 'विवेक चूड़ामणि' और 'अपरोक्ष अनुभव' पुस्तकें लिखी हैं। महान ज्ञानी और महान योगी होते हुए भी अपनी पुस्तके शुरू करने से पहले उन्होंने ईश्वर को नमस्कार किया है। श्री गौड़पदाचार्य ने भी अपनी कारिका शुरू करने से पूर्व नारायण को नमस्कार किया है। परन्तु अवधूत गीता के दत्ताजय और विचारसागर के निश्चलदास ने अपनी पुस्तकों के आरंभ में ईश्वर को नमस्कार नहीं किया क्योंकि उनके अनुसार इससे अद्वैत टूटता है। भवजों इन पुस्तकों को पढ़कर ये समझते हैं कि यदि वेदान्त पढ़ने के बाद हमने ईश्वर को मिथ्या न कहा और अपने आप को ही सर्वरूप न कहा तो हम कच्चे वेदान्ती रह जायेंगे। और ब्रह्मज्ञानियों में हमारा स्थान नहीं होगा। इसलिए वे कहने लगते हैं कि ईश्वर क्या ही पैदा की हुई मिथ्या सत्ता जीव मिथ्या है उसी तरह आदि।
इसी शंका को दूर करने के लिए स्वामी विवेकानन्द को 'फलसफा ईश्वर' लिखना पड़ा जो उनके 'भक्ति योग' में है, जिसमें उन्होंने बताया है कि ईश्वर को मिथ्या कहना नितान्त अनुचित है। और स्वामी रामतीर्थ का वेदान्त तो शुरू से अन्त तक भक्ति के रंग से रंगा है।
सब महात्माओं और अनुभवी महापुरूषों का कथन है कि एकता और अभेदता केवल समाधि की स्थिति में ही अनुभव होती है। समाधि से उतर कर फिर परमात्मा अपनी जगह और जीव अपनी जगह सांसारिक और व्यवहारिक जीवन में यह लीला करने वाले खिलाड़ी ईश्वर के साथ एक होते हुए भी अपना-अपना चरित्र पृथक-पृथक ही खेलते हैं। और ईश्वर के अधीन ही हैं। समाधि में तुरया का आनंद देने वाला भी ईश्वर ही है।
मुख्या भक्ति, वरतन वैराग और निश्चय ज्ञान" यही सिद्धान्त अपनाने योग्य हैं। ज्ञान तो निश्चय की वस्तु है, व्यवहार में तो भक्ति को ही मुख्य रखना पड़ेगा। हां, चौथी भूमिका से ऊपर चढ़ जाने पर जब शरीर की सुध-बुध ही नहीं रहती तब आत्म स्थिति हो जाती है। फिर न संसार, न इसे रचने वाला ईश्वर और न कोई जीव ही रहता हैसर्वत्र परिपूर्ण ब्रह्म ही अनुभव होता है। जब तक ब्रह्म स्थिति नहीं हो जाती तब तक मिथ्या अहंकार में ईश्वर आराधना त्याग कर मनुष्य कहीं नहीं पहुंच सकता।
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