जो दोगे वही लौटेगा
गुरू वाणी
(गीता में दैवी सम्पद् )
बात सुनाने लायक तो नहीं है, पर सुना देता हूं। मैं एक जगह ठहरा हुआ था। वहां एक आदमी मेरे पास आता था। वह मुझे कई बार घर में ले गया। वह मुझे मालपूरी, खीर खूब खिलाता था। अच्छा भी लगा मुझे। साथ में, जंगल में एक महात्मा रहते थे। मैं उनके पास गया। उनकी दृष्टि पड़ गई मुझ पर। बड़ा प्रेम था- बड़ा स्नेह था उनका मुझ पर। उन्होंने कहा कि बेटा, तुम चार बार उस व्यक्ति के यहां भोजन करने गए हो, लेकिन अब उसका भोजन करने मत जाना। मैंने पूछा, क्यों महाराज? उन्होंने कहा, देख! वह आदमी ठीक नहीं है। वह ऐसा धंधा कर रहा है जिसकी सारी कमाई छल की, कपट की और बेईमानी की है। वह गरीबों का खून चूस रहा है। अगर कुछ दिन उसका भोजन कर लिया, तो नख एक से लेकर शिखा तक विचार ही कर बदल जायेंगे। बूढे अस्सी वर्ष के में महात्मा थे वो। नहीं बतानी चाहिए दिन यह कथा, लेकिन सुना रहा हूं। श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं- दानम्। यह दान की महिमा है। ऐसी ही एक कथा और सुना दूं आपको, तो दान का रहस्य भी सही प्रकार से समझ में आ जाएगा। .
महर्षि वाल्मीकि की रामायण में लिखा . हुआ है। महर्षि वाल्मीकि आदि कवि हुए हैं। असत्य नहीं लिख सकते वे कभी, झूठ नहीं लिख सकते।" आदिकवि हैं वाल्मीकि। उन्होंने उत्तरकांड में ऐसी कथा लिखी है। एक बार मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम पुष्पक विमान पर बैठ कर ऋषियों के पास गए। वे महर्षि अगस्त्य के आश्रम में गए और उन्हें प्रणाम, नमस्कार किया। वहां वे दो दिन रहे भी। जब वे वहां से विदा होने लगे, तो महर्षि ने विश्वकर्मा का बनाया हुआ दिव्य का आभूषण, दिव्य कगन भगवान राम को दिया।
राम । भगवान भगवान राम ने कहा- महाराज हम तो रघुवंशी हैं, क्षत्रिय हैं, हम तो दान देने वाले हैं, किसी ऋषि-मुनि से दान लेने वाले नहीं हैं। आप उलटा काम क्यों कर रहे हैं। हमें दान देना चाहिए, हम दान लेंगे कैसे? महर्षि अगस्त्य ने कहा, राम! मैं तम्हें आग्रह कर रहा हूं, इसे ले लो, फिर मैं तम्हें रहस्य बताऊंगातब भगवान ने वह दिव्य आभषण ले लिया।
महर्षि अगस्त्य उसकी कथा सुना रहे हैं। कह रहे हैं- राम! एक बार घूमते-घूमते मैं ऐसे भयंकर जंगल में चला गया, जहां न कोई पश था, न कोई पक्षी था, न कोई मनुष्य था। उस वन में एक बड़ा भारी सरोवर था। गंगाजल के समान पवित्र जल उसमें चमक रहा था। उसके किनारे पर एक दिव्य मंदिर बना हुआ था, दिव्य बंगला बना हुआ था। कोई पशु-पक्षी इंसान नहीं था उसमें। गर्मी की एक रात मैंने उसमें बिताई। जब मैं सरोवर पर स्नान करने के लिए गया तो हैरान हो गया यह देख कर कि उस सरोवर के किनारे एक मजबूत, हष्ट-पुष्ट युवक की अर्थी पड़ी हुई थी। ऐसा लगता था मानों उसकी तत्काल मृत्यु हुई थी। मैं सोच ही रहा था कि कौन हो सकता है वह, अभी मैं कुछ और सोचता कि मैंने देखा आसमान से एक दिव्य विमान आ रहा है। वह विमान भी वहीं उतरा। उसमें से एक दिव्य तेजोमय पुरूष उतरा। वह सरोवर में गया, जहां उसने स्नान किया। स्नान करने के बाद वह उस मुर्दे का मांस खाने लगा। मांस खाने के बाद उसने फिर स्नान किया। विमान में बैठ कर जब वह चलने लगा, तो मैंने उससे पूछा, रूको, एक बात बताओ! तुम दिखने में एक दिव्य पुरूष लग रहे हो। विमान पर बैठ कर आए हो लेकिन यह घृणित काम तुमने किया है। मुर्दे का पेट भर मांस खाया तुमने। उसने अपने दोनों हाथ बांधे, घुटने टेके और बोला, मैं विदर्भ देश का राजा हूं। श्वेत मेरा नाम है। इसी जंगल में मैंने वर्षों तक घोर तपस्या की थी। भरी जवानी में मैंने राज्य को छोड़ दिया। जब मैं मर कर ब्रह्म लोक को गया, तो वहां भी मुझे भूख लगी, और प्यास लगी। ब्रह्मा जी ने कहा, अरे ओ बेटा श्वेत! तूने बहुत कुछ किया, लेकिन पृथ्वी पर जाकर तूने कभी किसी भूखे को भोजन नहीं दिया। कभी किसी प्यासे को पानी नहीं पिलाया। अपनी देह को पुष्ट करने के लिए तूने कितने-कितने पदार्थ खाए। तुम्हारी देह, तुम्हारे शरीर को वहां अक्षय बना कर रख दिया गया है। सौ वर्षों तक तुम रोज जाओगे, वहां तुम्हें अपने ही शरीर का मांस खाना पड़ेगा। एक सौ वर्ष बाद तुम्हें महर्षि अगस्त्य मिलेंगे, तब तुम्हारा पिंड छूटेगा। उसने कहा, एक सौ वर्ष पूरे हो गए। मैंने कहा, मैं ही महर्षि अगस्त्य हूं। अब तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। अब तुम मुक्त हो जाओगे। अब न तुम्हें भूख लगेगी न प्यास।
मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को कह रहे हैं। महर्षि अगस्त्य। विश्वकर्मा का बनाया हुआ आभूषण मुझे श्वेत ने भेंट किया था। इस आभूषण को लेकर आप भूखों को भोजन करा देना, प्यासों को पानी पिला देना, निर्वस्त्रों को वस्त्र दे देना, आप यह काम कर देना। इसे मैंने दान के रूप में नहीं, उसके कल्याण के रूप में लिया था। आज यह आभूषण मैं तुम्हें दे रहा हूं
अगर तुमने किसी को भोजन नहीं कराया, तो उम्मीद क्यों करते हो कि भोजन मिलेगा। अगर तुमने किसी को पानी नहीं पिलाया, तो पानी की उम्मीद क्यों करते हो कि वह तुम्हें कोई पिलाएगा। खुद कितना अच्छा भोजन करते हो। खुद इतने अच्छे पदार्थ खाते हो, शरीर को इतना पुष्ट करते हो। दान का अर्थ है देने की भावना। दान का अर्थ है देने की प्रवृत्ति। दान का अर्थ है मन में देने का भाव होना। दानम्यह है गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी सम्पत्ति का चतुर्थ लक्षण।
अभयं सत्व संशुद्धिः ज्ञान योगव्यवस्थिति
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तममार्जवम्॥
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