कर्पूर गौरं करूणावतारं...

स्वामी प्रज्ञानन्द जी महाराज




भगवान शंकर कपूर के समान गौरवर्ण हैं, मस्तक पर चन्द्रमा शोभायमान है, हाथी की सूंड के समान चार भुजायें हैं। उनमें परशु, मृग, वर और अभय को धारण किए हुए हैं, कटि में व्याघ्र चर्म सुशोभित है, परम कल्याणकारी शिवजी के तीन नेत्र और पांच मुख हैं- यह स्वरूप है भगवान शिव का जो सृष्टि, स्थिति और प्रलयभाव का सूचक भी है और जीव की आत्यन्तिक मुक्ति का द्योतक भी है। शास्त्रों का कथन है कि शिवजी के इसी मंगलमय स्वरूप में तमोमय संहारभाव को धारण करने से रूद्र मूर्ति भी प्रकट होती है। जो इस बात का सूचक है भगवान शिव के स्वरूप में एक शान्तिमय शिवभाव और दूसरा प्रलयकारी रूद्रभाव एक साथ विराजमान हैं।


भगवान शिव के पंचमुख पंचतत्वों के सूचक हैं। उनके दोनों नेत्र पृथ्वी और आकाश के सूचक हैं। तीसरा नेत्र बुद्धि के अधिदेव सूर्य का सूचक है। इसे शास्त्र ने ज्ञानाग्नि का सूचक भी कहा है। मन का कारक चन्द्रमा शिवजी के मस्तक पर विराजमान है। इस प्रकार शिवजी के ईश्वरभाव से संसार का प्रकाश हो रहा है। इसी ईश्वरभाव के साथ भोलेनाथ शंकर हाथ में तीनों गुणों के सूचक त्रिशूल को धारण किए हुए हैं। भगवान शिव ने एक हाथ में काम का सूचक मृग धारण किया हुआ है, दूसरे में धर्म का सूचक वर, तीसरे में अर्थ का सूचक परशु और चौथे में मोक्ष का सूचक अभय धारण किया हुआ है। शिवजी का वर्ण श्वेत है और ऐसा होने का कारण यह है जिस केन्द्र पर समस्त प्राकृतिक वर्गों का विकास होता है, वहां श्वेत वर्ण होता हैजैसे भगवान भास्कर से सब रंगों का विकास होता है लेकिन वे (सूर्य) स्वयं श्वेत हैं।


                                   


भगवान शिव के पांच मुख- ईशान, अघोर, तत्पुरूष, वामदेव और सद्योजात कहे गए हैं। ईशान' का अर्थ है स्वामी, अघोर' का अर्थ हैनिन्दित काम करने वाला भी शिव कृपा से निन्दित कर्म को शुद्ध बना लेता है'तत्पुरूष' का अर्थ हैअपनी आत्मा में स्थिति लाभ करना'वामदेव' को विकारों का नाश करने वाला कहा गया है और 'सद्योजात बालक के समान परम स्वच्छ, शुद्ध और निर्विकार हैभगवान शिव को 'सर्पभूषण' भी कहा जाता है क्योंकि उनकी मूर्ति में जगह-जगह सर्प लिपटे हुए हैं। यह इस बात का प्रदर्शन है कि मंगल और अमंगल सभी कुछ ईश्वर शरीर में है। दूसरी बात यह है कि चूंकि शिव को संहारकारक माना गया है।


इसलिये उनके पास संहार सामग्री का होना आवश्यक है। समय पर उत्पादन और समय पर ही संहार ईश्वर के ही कार्य हैं। इस बात को सब जानते हैं कि सर्प से बढ़कर तमोगुणी और संहारक कोई और नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो अपने बच्चों को ही निगल जाता है- यह कृत्य सर्प के अतिरिक्त, सर्पो के अतिरिक्त अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। भगवान शिव के सर्वांग विभूति से लेपित रहते हैं। इसका भी गूढ़ रहस्य है। किसी भी रंग के पदार्थ को जलाने पर अंत में प्रकाशमान श्वेत भस्म ही शेष रहता है। यह मौलिक तत्व है, जिसे अग्नि जला नहीं सकती। भगवान सदाशिव इसी मौलिक तत्व-भस्म से सर्वाग आच्छन्न रहते हैं, सदा उद्धूलित रहते हैं और इसी मौलिक तत्व से वे सष्टि की रचना करते हैं। यह शिवपुराण में वर्णित सृष्टि प्रक्रिया से स्पष्ट हो जाता है। शास्त्र का वचन है


भासते भिन्नभावानामपि भेदो न भस्मनि।


स्वस्वभावस्वभावेन भस्म भर्गस्य वल्लभम्॥


भूमिकारूढ़ जीवन-मुक्तों के विश्राम स्थान, पुरातन वटवृक्ष स्वरूप है। वेदान्त, सांख्य, और योग- यह तीन उस वटवृक्ष की जटा के रूप में सशोभित हैं। भगवान शिव के जटाजूट धारण का यही शास्त्र सम्मत तात्पर्य है। भगवान शिव के त्रिनेत्रधारी होने का तात्पर्य शास्त्रों में वर्णित है। जिसके अनुसार* भगवान शंकर चंद्र के समान जगदानन्ददायक, सूर्य के समान अज्ञानतमोनाषक और अग्नि के समान रागादि-दोषों के दाहक हैं, दहनकर्ता हैं। इसी कारण उनको त्रिनेत्र कहकर पूजा जाता है। भगवान शिव की भुजंगभूषणता के संबंध में यह भी कहा गया हैकि योगिजन सर्प के समान वायुभक्षण कर प्राणधारण करते हैं तथा पर्वतीय गुहाओं में रहते हैं। 'विविक्तसेवी' एवं 'लघ्याशी' होने के कारण वे शिवजी को इतने प्रिय हैं कि वे इन योगिजनों को अपने अंग का भूषण बनाये रखते हैं। और भुजंगभूषण कहलाते हैं। शान्ति, वैराग्य और बोध ये तीन उपाय ज्ञान और अज्ञान के कार्य को शीघ्र ही भेदन करने में समर्थ होने के कारण त्रिशूल के फलों के साथ सादृश्य को प्राप्त होते हैंइसी त्रिशूल के द्वारा शिव सत्व, रज और तम इन तीन गुणों का तथा उनके कार्यरूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण नामक देहत्रय का नाश करते हैं। .. जिस धर्ममेघ नामक समाधि में ब्रह्मादि कोई देवता स्थित नहीं होसकते, भगवान शिव उसी समाधि में आरूढ़ होते हैं। इसी कारण उन्हें 'वृषवाहन' कहकर भी पुकारा जाता है। मेघ जिस प्रकार जल वर्षा करते हैं यह समाधि भी उसी प्रकार धर्म वर्षा करती है। भगवान शिव श्मशानवासी हैं, जो संसार से विरक्तिभाव का सूचक है। 


भगवान शिव प्रणव रूप हैं और में उनके इस दिव्य स्वरूप का विस्तृत वर्णन शिवपुराण में वर्णित है। विद्येश्वर संहिता (8/16-20) में भगवान शिव ने ब्रह्मा विष्णु को अपने प्रणवरूप के संबंध में कहा है- 'ऊँकार मेरे मुख से उत्पन्न होने के कारण मेरे ही स्वरूप का बोधक है, यह वाच्य है, मैं वाचक हूं, यह मेरी मन्त्र आत्मा है, इसका स्मरण करने से मेरा ही स्मरण होता है। मेरे उत्तर की ओर मुख से अकार, पश्चिम मुख से उकार, दक्षिण मुख से मकार और पूर्व मुख से बिन्दु और मध्य मुख जो शिव से नाद उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार पांचों मुखों से निर्णत हुए इन सब से 'ऊँ' एक एकाक्षर बना है। संपूर्ण नाम रूपात्मक जगत्, स्त्री पुरूषादि भूत समुदाय एवं चारों वेद- सभी इस मन्त्र से व्याप्त हैं और वह शिव-शक्ति का बोधक है।' भगवान शंकर ने माता पार्वती को भी अपने प्रणव रूप के संबंध में विस्तार से समझाया- 'प्रणवार्थ का परिज्ञान ही मेरे स्वरूप का ज्ञान है। प्रणव स्वरूप मंत्र सब विद्याओं का बीज है, वह वटबीज के सदृश अति सूक्ष्म तथा महान अर्थ वाला है। वह वेदों का आदि तथा सार है एवं मेरा स्वरूप है। तीन गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वस्रष्टा, सर्वप्रभुः सर्वगत, शिवस्वरूप मैं ही उस 'ऊँकार' में स्थित हूँ। तीन गुणों के न्यूनप्राधान्य योग से जगत में जो कुछ वस्तु हैवह समष्टि और व्यष्टि रूप से प्रणवार्थ ही है। यह प्रणव सर्व अर्थ साधक और अक्षर ब्रह्म है। इस कारण इसी प्रणव से सर्वप्रथम जगत् का निर्माण करते हैंजो शिव है वही प्रणव हैजो प्रणव है, वही शिव है।


                                                            This article is subject to copy right


Popular Posts