किस रास्ते जाएगा हमारा धर्म?
यह सवाल इसलिए क्योंकि अभी तो धर्म संसद खत्म हुई थी, जिसमें सभी धर्मवेत्ताओं ने श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए सरकार एवं सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने की बात कही थी। कि धार्मिक फिजां में किसी ने शिगफा छेड़ दिया कि श्रीहनमान दलित समुदाय से आते थे। इसलिए मेरा यह यक्ष प्रश्न इस समाज से है कि किस रास्ते जाएगा हमारा धर्म? हमारा निजी धर्म?, हमारा साझा धर्म? और यह प्रश्न धर्म के स्वयंभ मठाधीशों से भी है कि उन्होंने समाज से निकले इस अ-सर को गलत क्यों नहीं ठहराया?
मेरा यह यक्ष प्रश्न इस समाज से है कि किस रास्ते जाएगा हमारा धर्म? हमारा निजी धर्म?, हमारा साझा धर्म?
अभी समाज छह दिसंबर को बाबरी विध्वंस की बरसी से पहले राम मंदिर बनाने की मांग पर तुला था और अभी समाज के एक ठेकेदार ने भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त श्रीहनुमान जी को दलित बता दिया। और यह भी क्या कम था कि समाज के दूसरे ठेकेदार ने श्रीहनुमान जी को आदिवासी बता दिया। तब सवाल यह है कि समाज के सवर्ण ठेकेदार दलित-आदिवासी भगवान की पूजा क्यों करते आ रहे हैं सदियों से? या फिर सवाल यह कि समाज को अब भगवान के नाम पर बांटा जाएगा? कहीं यह सुनियोजित ढंग से चुनाव से पहले हिंदू को जातिगत खांचे में बांटने की घृणित चाल तो नहीं? क्योंकि अब तक समाज के अलग-अलग ठेकेदारों ने समाजसुधारकों एवं नेताओं के नाम पर समाज को बांटने की कोशिश की थी और उसमें वे अपने-अपने ढंग से सफल भी रहे थे।
मसलन, अंबेडकर, कबीर, ज्योतिबा फूले, बिरसा मुंडा और यहां तक कि भगवान श्रीराम को वनवास गमन के समय नदी पार कराने वाले निषाद के नाम पर भी समाज को जातिगत खांचे में बांटकर उसका राजनीतिक लाभ लिया गया। और अब डर यह है कि भगवान हनुमान जी के नाम पर हमारी आस्था के साथ खिलावाड़ किया जा रहा है?
यह सवाल इसलिए है क्योंकि हम एक मूर्ति-पूजक समाज में रहते हैंऔर इससे हमें कोई गुरेज भी नहीं। कई रिसर्च यह साबित कर चुके हैंकि आस्था से बढ़कर कोई दवा नहीं। आस्था/विश्वास के भरोसे इंसान भवसागर पार कर सकता है। सांसारिक बाधा की तो औकात ही क्या? स्वयं भगवान श्रीराम हमें पग-पग पर आस्था, भरोसा, विश्वास ही सिखाते हैं।
यह आस्था ही है कि माता सीता अशोकवाटिका में अकेले जिंदा रह पाती हैं, क्योंकि राक्षसों के बीच उनका जीवन तो संकट में था ही था। यह आस्था ही है कि श्री हनुमान लंका जला पाते हैं और यह आस्था ही है कि हम मंदिरों में श्रीहनुमान जी के हृदय में प्रभ श्रीराम एवं माता सीता को देख पाते हैं। वाल्मीकि रामायण से लेकर तलसीकत रामचरित मानस तक में कहीं भी श्री हनुमान जी की जाति के बारे में चर्चा नहीं है। लेकिन इस घोर कलियुग में यह चर्चा भी हमें सुनने को मिलेगी, ऐसा सोचा नहीं था। यह तो जानते हैं कि धर्म समाज में निहित होता है और समाज के सुचारू रूप से संचालन के लिए होता है। लेकिन यह भी जानते हैं कि धर्म जब स्वयं को समाज से ऊपर मान लेता है तो वह समाज का ही विनाश करने लग जाता है। ठीक ऐसा ही अब हो रहा लगता है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक एकमात्र श्रीहनुमान जी ही हैं, जिनकी पूजा परे भारत में संपर्ण मनोयोग से होती है। लेकिन अब उन्हें ही किसी खास कोने में बिठाया जा रहा है।
यहां मैं स्पष्ट कर दें कि जरूरी नहीं कि समाज के किसी ठेकेदार ने स्पष्ट रूप से श्रीहनुमान जी को दलित कहा हो, लेकिन ये सोशल मीडिया का दौर है, जहां फेक न्यूज का बोलबाला है। भावना में लोग क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप विषवमन करते हैं, सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करते हैं। याद रखिए, धर्म की स्थापना समाज के सुचारू संचालन के लिए की गई थी। और जब-जब समाज पतित हुआ है, किसी दिव्य पुरुष ने अवतार रूप लेकर समाज को धर्म के धागे में गुंथकर व्यवस्थित किया है। जीसस. मोहम्मद, कबीर, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक आदि इसी श्रेणी के दिव्य पुरुष हैं, जो देवत्व को प्राप्त हुए। आज हम इनकी पूजा सिर्फ और सिर्फ भगवान के रूप में करते हैंलेकिन यदि फेक न्यूज के रूप में सही भगवान को उनके उच्चासन से उतारकर नीचे किसी मानवीय कोने में बिठाने का प्रयत्न करे और धर्मपीठ चुप रहे, तो यह धर्म की हानि है। और चूंकि यह धर्म की हानि है, सो समाज की हानि है। इसलिए वापस अपने सवाल पर आता हूं कि किस रास्ते जाएगा हमारा धर्म? क्योंकि धर्मदंड ही राजदंड को नियंत्रित कर समाज को नई दिशा दे पाएगा। आप भी सोचें...
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