आत्मसन्तुलन है श्रेष्ठ तप
गीता में दैवी सम्पद्
कौशिक ऋषि पहुंचे धर्मव्याध को मिलने। इशारा करके बताया किसी ने, धर्म व्याध अमुक स्थान पर है। पहुंचे वहां तो देखा कि वहां तो एक कसाई बैठा हुआ मांस बेच रहा है। उसने पूछा, यही है धर्मव्याध? लोगों ने कहा, यही है धर्मव्याध। बड़ी घृणा हुई। बड़ा गुस्सा भी आया, बड़ी उत्तेजना भी हुई कि उस महिला ने मेरे साथ भयानक मजाक किया है। यह हट्टा-कट्टा कसाई मांस बेच रहा है, यह मुझे उपदेश देगा, यह मुझे शिक्षा देगा।
ध्यान रहे, जो तपस्या तुममें अहंकार पैदा करे, उसे एक किनारे रख देना। ऐसी तपस्या हमें नहीं चाहिये। हमारे घर में तो पूजा हो रही है, हम जो विनयी हो रहे हमारे घर में तो पूजा हो रही है, हम जो विनयी हो रहे हैं, विनम्र हो रहे हैं, चरणों का जो स्पर्श कर रहे हैं, वही हमें मुबारक हो। कौशिक ऋषि क्रोध से भर गये, गुस्से में उनकी ओर देखने लगे। धर्मव्याध की उनकी ओर दृष्टि पड़ी। तो उसने तपस्वी को प्रणाम किया। लेकिन ऋषि उससे बचने लगे। यह हमें छू रहा हैऋषि का ऐसा व्यवहार देखकर धर्मव्याध ने विनम्रता से कहा, महाराज, उस महिला ने आपको मेरे पास भेजा है क्या? ऋषि चौंके, इसे कैसे पता चल गया। अभी तो मैं इससे मिला भी नहीं हूं। फोन नहीं है, जो उस महिला ने बता दिया हो। उसने कहा, आप घबराइए मत। उस महिला ने यही कहा था न कि यदि तप की व्याख्या सुननी हो, यदि जानना हो कि तप क्या है तो...अभी पन्द्रह मिनट में मैं दुकान बंद कर रहा हूं। मेरे साथ पधारिए उसने अपनी दुकान बंद की और कौशिक तपस्वी को अपने साथ अपने घर ले गया। वहां उसके बूढे माता-पिता और दादा-दादी कमरे में बैठे हुए हैं। झुककर उनको प्रणाम किया, नमस्कार किया।
नहलाया-धुलाया, स्वच्छ वस्त्र पहनाए, अपने हाथ से भोजन बनाया, अपने हाथ से उन्हें भोजन कराया। और कौशिक ऋषि की ओर इशारा करके कहा, देखो, ऋषि इसका नाम तप है। धज्जियां उड़ गई उस ऋषि की। इसका नाम है तप।
गीता जिसकी ओर इशारा कर रही है जरा उस पर ध्यान देना। यह दैवी सम्पदा का आठवां लक्षण है। कौशिक ऋषि अपने घर में मां-बाप को छोड़कर, पत्नी को छोड़कर, बच्चों को छोड़कर वन में घोर तपस्या करने चले आए थे। धर्मव्याध ने कहा, उलटे पैर वापस चले जाइए। घर में माता-पिता तड़प रहे हैं। उन्हें भोजन नहीं मिल रहा, पानी नहीं मिल रहा, घर में बच्चे तड़प रहे हैं और तुम यहां तपस्या कर रहे हो? गीता पूरी तरह से छलक जाती है, महाभारत की इस छोटी सी कहानी में।
अर्जुन से श्रीकृष्ण कह रहे हैं, जब शरीर के तप की बात आई
देवद्विज गुरू प्राज्ञ पूजनं शौचमार्जवम्।।
तप का अर्थ बता रही है गीता, अहंकार की निवृत्ति। हमारे रोम-रोम में, कण-कण में जो अहंकार भरा हुआ है, उस अहंकार को थोड़ा किनारे पर लगा दो। जिस ढंग से हममें अहंकार भरा हुआ है, उसमें यदि जबरदस्ती भी प्रवेश करना चाहे परमात्मा तो प्रवेश नहीं कर पाएगा। तो फिर ऐसी तपस्या किस काम की।
आज तो लोगों ने नमस्कार करना ही छोड़ दिया, प्रणाम करना ही छोड़ दिया, झुकनाही छोड़ दिया। तुम्हें मालूम नहीं है, जबसे हमने झुकना छोड़ा, चरणों का स्पर्श करना छोड़ा, तब से हममें, क्रोध बढ़ा है, बेचैनियां बढ़ी हैं, तनाव बढ़े हैं, व्याकुलता हुए माता-पिता, तुम्हारे गुरूजन, तुम्हारे बुजुर्ग, तम पर खुश नहीं हैं। और तुम मन्दिरों में न जाने क्या ढूंढ़ रहे हो।
महाभारत में एक दूसरी कथा आती है महर्षि उत्तंक की। महाभारत समाप्त होने के बाद पांडवों से विदा लेकर श्रीकृष्ण द्वारिका पुरी जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देखा कि महर्षि उत्तंक आ रहे हैं। उस समय के सबसे बड़े ऋषि थे वे। उनके समान कोई और नहीं था। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दूर से देखा और रथ से उतर पड़े। श्रीकृष्ण ने अपने पूरे जीवन से हमें बताया है कि तप किसे कहते हैं। वे अनंत कोटि ब्रह्मांडनायक भगवान, जिसके इशारे से ब्रह्मांड बनते और बिगड़ते हैं, रथ रोककर नीचे उतरे और साष्टांग प्रणाम किया महर्षि उत्तंक को। गीता को पढ़िए, श्रीकृष्ण के जीवन को पढ़िए, तो आपको पता चल जाएगा कि तप क्या है। भगवान श्रीकृष्ण जब धर्मराज युधिष्ठिर से मिलते हैं, तो दौड़कर चरणों का स्पर्श करते हैं, पैरों में गिर जाते हैंउसे आंसुओं से भिगो देते हैं। भीष्म और द्रोणाचार्य के चरणों का स्पर्श करते हैं, यह तप है। जो अहंकार को नीचे करे, उसका नाम तप है।
आज तो लोगों ने नमस्कार करना ही छोड दिया, प्रणाम करना ही छोड़ दिया, झुकना ही छोड़ दिया। तुम्हें मालूम नहीं है, जबसे हमने झुकना छोड़ा, चरणों का स्पर्श करना छोड़ा, तब से हममें क्रोध बढ़ा है, बेचैनियां बढ़ी हैं, तनाव बढ़े हैं, व्याकुलता बढ़ी है।
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