जीवन की मृत्यु का क्षण
जन्म-मृत्यु के पार
ऐसी मान्यता है, कि कर्मों के कारण ही प्राणियों का जन्म होता है। संसार में मनुष्य कोई आकृति लेकर जन्म लेता है। अच्छे या बुरे, पाप अथवा पुण्य अनेक प्रकार के कर्म करता है। प्रारब्ध कर्म फल देकर समाप्त हो जाते हैं। उस समय उसकी आयु भी क्षीण हो जाती है, उस समय वह विपरीत कर्मों का आचरण करता है। विनाश काल में उसकी बुद्धि भी बिगड़ जाती है। क्योंकि बुद्धि को संभाल कर रखने वाली विवेक शक्ति होती है। वह बिखर जाती है और अनुभव को स्मरण कराने वाली स्मृति भी छितरा जाती है। इसका फल होता है, कि मनुष्य अशुभ कर्म करने लगता है, इसे 'प्रज्ञापराध' कहते हैं। इस अपराध से शरीर और मन के सभी दोष पनपते हैं। बुद्धि का काम होता है। किसी वस्तु का यथार्थ निर्णय करना। बुद्धि बताती - - है, कि शरीर अनित्य है आत्मा नित्य है, अनित्य को अनित्य और नित्य को नित्य बताना। यह बुद्धि का धर्म है, इसलिए बुद्धि का एक दूसरा नाम 'सदसद् विवेकवती प्रज्ञा' बताया गया है। किन्तु यदि मनुष्य को ठीक विपरीत ज्ञान होने लगता है, वह नित्य को अनित्य समझने लगता है और अनित्य को नित्य मानने लगता है। तो समझना चाहिए इसकी विवेक शक्ति नष्ट हो चुकी है। मन पर ब्रेक लगाने वाली तो बुद्धि है, बुद्धि स्वतः फेल हो जाती है। उस समय मनुष्य का मन भी स्वतंत्र हो जाता है। लाख रोकने पर भी वह नहीं रूकता, वह विषयों की तरफ तेजी से घूम जाता है। वह निरन्तर दुख देने वाले कर्म करता है। शास्त्र और गुरू जैसा कहते हैं, उससे ठीक उलटा चलता है। बुरा कर्म करने वाले लोगों की संगति करता है। स्त्रियों का अधिक सेवन करता है, विनय और सदाचार को तिलांजलि दे देता है। शरीर को हानि पहुंचाने वाली जितनी भी वस्तुयें हैं, उनको खाता-पीता है। कभी इतना खा लेता है कि पेट की नसें तन जाती हैं और कभी भोजन का सर्वथा त्याग कर देता है। कभी दूषित अन्न-पान को खाता है, और कभी विरूद्ध गुण-धर्मों वाले पदार्थों को एक साथ खा लेता है। किसी दिन तला हुआ, गरिष्ठ अन्न अधिक मात्रा में खा लेता है।
जठराग्नि कमजोर हो जाती है, पचाने की शक्ति तो रहती नहीं, पचाने की शक्ति तो रहती नहीं, फिर दोबारा भोजन कर लेता है। पैसा कमाने के लोभ में पड़कर, शरीर से ज्यादा काम लेता है। मल-मूत्र के वेग को भी रोके रखता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, भय, अभिमान आदि दुर्गुण अपनी चरमसीमा पर होते हैं। उसके वात, पित्त, कफ आदि दोष कुपित हो जाते हैं। इन दोषों के कुपित होने पर, प्राणों को हरण करने वाले रोग शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से मनुष्य का शरीर धीरे-धीरे दुर्बल होने लगता है।
एक क्षण आता है, कि पके हुए गूलर के समान शरीर टूट कर गिर जाता है'अन्तवत्वाच्छरीरस्य फलस्येव वनस्पते:'। इस प्रकार संसार के जितने भी प्राणी हैं, वे सब जब प्रज्ञापराध करते हैं, तो दुखी होते हैं और जन्म-मरण के चक्कर में घूमते रहते हैं।
अब प्रश्न है, कि बुद्धि के नष्ट होने का क्या कारण है। बारह दोष हैं जो बुद्धि को नष्ट कर देते हैंशोक, क्रोध, लोभ, काम, मोह, निर्जीवसा बने रहना, ईष्र्या करना, अभिमान का होना, सन्देह का होना, दया का न होना, द्वेष करते रहना, और जुगुप्सा-घृणा करना। बुद्धि को मलिन करने वाले ये बारह मल हैं
शोकः क्रोधश्च लोभश्च कामो मोहः परासुता।। जुगुप्सुता।।
ईष्र्याभिमानो विचिकत्सा कृपासूया जुगुप्सुता।।
द्वादशैते बुद्धिनाशहे तवो मानसाः मला:।।
देहधारण करने वाला जीव ज्ञानेन्द्रियों के रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श इन पांचों विषयों का सेवन करता है। एक विषय का एक एक इन्द्रिय से सेवन करने वाले प्राणी मारे जाते हैं, संगीत का लोभी हरिण, स्पर्श का लोभी हाथी, रूप का लोभी पतंगा, गंध का लोभी भौरा, और रस की लोलुप मछली से। सब एक एक इन्द्रिय से एक एक विषय का सेवन करने से मर जाते हैं। जो मनुष्य एक साथ पांचों विषयों का सेवन करता है उसकी क्या गति होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
सकता है। एक भौरा कमल की पंखुड़ियों पर बैठ कर मधुपान कर रहा था, इतने में सूर्यास्त हो गया। सूर्य और कमल का तो गहरा संबंध है। कमल की पंखुड़ियां भी बन्द हो गईं। भौरा उसमें कैद हो गया। कमल में कैद हुआ भौरा सोच रहा था, कि रात बीतेगी, सुप्रभात होगा, कमल खिलेंगे, इनकी शोभा बिखरेगी। मैं रस लेकर उड़ जाऊंगा, इतने में एक जंगली काल रूपी हाथी आया, उसने कमल तोड़ कर अपने मुख में रख लिया, सारा खेल समाप्त हो गया। जीव प्राणों की गति को पहचानता नहीं है। प्राण एक बार आत्मा का स्पर्श करते है, एक बार शरीर का तो दिल की धडकन चलती रहती है। सनातन जीव से इसे गति मिलती है। मृत्यु का क्षण आने पर जीव की ज्ञान शक्ति कुठित हो जाती है। उसके मर्मस्थल रूक जाते हैं। संसार का कोई पदार्थ या संबंधी उसकी सहायता नहीं कर सकते। इन्द्रियों से प्राणों का वियोग होने लगता है। असह्य वेदना होती है। प्राणी लम्बी-लम्बी सांस छोड़ता हैआत्मा शरीर रूपी घर को छोड़ना चाहती है, उसका सारा शरीर कांपने लगता है। जैसे ही आत्मा शरीर से अलग होता है, तो वह अपने द्वारा किए हए पाप-पण्य रूपी कर्मो से घिर जाता है। बद्धिमान लोग उसकी चेष्टाओं से जान लेते हैं कि यह जीव पण्यात्मा है या पापात्मा। जैसे बरसात के दिनों में आंखों वाले मनुष्य पंख खोलते बन्द करते हुए जुगनुओं को देख लेते हैं, वैसे ही सिद्ध पुरूष अपनी ज्ञानमयी दृष्टि से जीवों की गति को देख लेते हैं। चाहे जन्म ले रहा हो, चाहे मर रहा हो या गर्भ में प्रवेश कर रहा हो, वे जीव की सद्गति या दुर्गति का अनुमान कर लेते हैं।
शास्त्र के अनुसार जीवात्मा के रहने के लिए तीन मुख्य स्थान गिनाए गए हैं- यह पृथ्वी मर्त्य लोक है, कर्मों के अनुसार कुछ प्राणी यहां गर्भ में पवे कालजय लेने के घपयों के आधार पर कुछ स्वर्ग में या जनलोक, वैकुंठ लोक आदि स्थानों में चले जाते हैं और पाप करने वालों को नरक लोक में स्थान मिलताहै। यहां जाने से प्राणियों को बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है।
शास्त्र के अनुसार जीवात्मा के रहने के लिए तीन मुख्य स्थान गिनाए गए हैं- यह पृथ्वी मर्त्य लोक है, कर्मों के अनुसार कुछ प्राणी यहां गर्भ में प्रवेश करके जन्म लेते हैं। पुण्यों के आधार पर कुछ स्वर्ग में या जनलोक, वैकुंठ लोक आदि स्थानों में चले जाते हैं और पाप करने वालों को नरक लोक में स्थान मिलता है। यहां जाने से प्राणियों को बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है। इसलिए मनुष्य को पाप कर्म से बचना चाहिए।
बचना चाहिए। स्वर्ग आदि ऊपर के लोक हैं, इनमें पुण्यात्मा जीव निवास करते हैं। जहां ये तारा-मंडल गति करते हैं, जहां चन्द्रमा प्रकाशित होता है और जहां भगवान सूर्य चमकते हैं, ये सब पुण्यात्माओं के रहने के स्थान है। जहां जाकर जीव अपने पुण्यों का फल भोगते हैं, जब पुण्य समाप्त हो जाते हैं, तो उन्हें फिर पृथ्वी पर गिरा देते हैं। स्वर्ग में भी छोटे-बड़े का भाव बना रहता है। झुपड़ पट्टी में रहने वाले देवता इन्द्र आदि से ईष्यो करते हैं|
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