महात्मा बुद्ध


आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन वृद्धावस्था तक पहुंच कर संतानहीन थे। इस कारण वे क्षुब्ध रहते थे। ईश्वर की अनुकम्पा से वृद्धावस्था में उनके घर संतान की उत्पत्ति हुई जिसका नाम सिद्धार्थ रखा गया। दुर्भाग्यवश पुत्र के जन्म के कुछ समय बाद ही उसकी माता महामाया ने देह त्याग दिया। फलस्वरूप सिद्धार्थ का लालन-पालन राजा की छोटी रानी प्रज्ञावती ने किया।


एक बार महाराजा के घर ऋषि असित पधारे। ऋषि ने सिद्धार्थ को देखते ही चिंतित स्वर में बोले कि सिद्धार्थ अलौकिक उपदेश देने में समर्थ होंगे किन्तु उस समय तक मैं उनके उपदेश सुनने के लिए जीवित नहीं रहूंगा।


बालक के नामकरण संस्कार के अवसर पर ज्योतिषियों ने बालक के शरीर पर अंकित चिन्हों को देखकर राजन से कहा, आपका पुत्र या तो महान राजा बनेगा या महान योगी। विरोधी वचन सुनकर राजन असमंजस में पड़ गए तथा उन्होंने ज्योतिषियों से इसका कारण जानना चाहा। इस पर ज्योतिषी बोले, यदि इसे रोग, तथा मरण के दृश्यों से दूर रखा गया तो यह राजा बनेगा अन्यथा सन्यासी। बड़े होकर सिद्धार्थ भावुक एवं संवेदनशील स्वभाव के बन गए। यद्यपि उन्हें राजवंश के नियमों के अनुसार शिक्षा दी गई किन्तु इसमें उन्होंने कोई रूचि नहीं दिखाई। वह सदा एकान्त में बैठना पसन्द करते थे। एक दिन धनुष बाण से खेलते-खेलते उनके चचेरे भाई देवदत्त ने एक पक्षी को घायल कर दिया तथा पक्षी घायल अवस्था में सिद्धार्थ के समीप गिर गया। सिद्धार्थ ने उसकी सेवा-सुश्रुषा कर स्वस्थ कर दिया। देवदत्त के आग्रह पर भी सिद्धार्थ ने उस पक्षी को देने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि मारने वाले से बचाने वाले का काम अधिक होता है। इस झगड़े में सिद्धार्थ की विजय हुई। राजा ने ज्योतिषियों के कथनानुसार सिद्धार्थ को सांसारिक दुखों से दूर रखने का प्रयास किया। 18 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा से संपन्न हुआ तथा राजा ने राजकुमार को सभी सुख-सुविधाएं प्रदान की। इस सब के बावजूद भी सिद्धार्थ के मन की दशा विचित्र रहती थी। वह अपनी पत्नी के साथ भी मनोविनोद करने से दूर रहने का प्रयास करता था। एक दिन सिद्धार्थ ने राजा से नगर दर्शन की इच्छा प्रकट कीन चाहते हुए भी राजन को अपने पुत्र हठ के सामने झुकना पड़ा। राजा के अनेक आदेशों के बावजूद सिद्धार्थ को मार्ग में वृद्ध, रोगी और मृतक की अर्थी दिखाई दी।


संसार के इन दुखों के कारण सिद्धार्थ की मनन शक्ति ने विकराल रूप धारण कर लिया। फलस्वरूप उनका हंसना बोलना भी बंद हो गया। वे हर समय सांसारिक दुखों से बचने के लिए उपाय सोचने लगे। एक बार उन्हें मार्ग में एक सन्यासी मिला तथा उससे बातचीत करके उन्हें लगा कि यह व्यक्ति सांसारिक दुखों से दूर है। अपनी विचलित मनोवस्था के कारण एक रात को सिद्धार्थ ने अपनी पत्नी तथा नवजात शिशु को निद्रा अवस्था में छोड़कर महल त्याग दिया।


महल त्यागने के पश्चात सिद्धार्थ जंगलों में भटकते रहे तथा जीवन के कष्टों से मुक्ति प्राप्त करने हेतु तपस्या करते रहे। एक अवसर पर पांच साधुओं ने सिद्धार्थ के शिष्य बनने की इच्छा प्रगट की किन्तु क्योंकि उस समय तक सिद्धार्थ को स्वयं भी ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था इसलिए उसने साधुओं के आग्रह को नहीं माना। एक दिन उन्हें कुछ ग्रामीण स्त्रियां कोई गीत गाती हुई दिखीं। गीत के बोल थेः


" वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ो, नहीं तो सुर नहीं निकलेगा पर उनको इतना कसो भी नहीं कि वे टूट ही जाएं।”


 इस गीत को सुनकर उन्हें लगा कि जो प्रश्न उन्हें सदियों से व्याकुल कर रहा था उसका उत्तर उन्हें आज मिल गया।


वह वट वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या करने लगे तथा तब तक तपस्या करते रहे जब तक उन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। फलस्वरूप वह जिन् वट वृक्ष, बोधि वृक्ष के नाम से प्रसिद्ध हो गया तथा सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध के नाम से जानने लगे। महात्मा बुद्ध ने दुनिया को शान्ति मार्ग पर चलने की राह दिखाई जिससे पीड़ितों ने शान्ति प्राप्त की तथा उनके अनेकों अनुयायी बन गए जिन्होंने उनके संदेश को तिब्बत, चीन, जापान, कोरिया, बर्मा आदि तक पहुंचाया। आज भी अनेकों देश बौद्ध धर्म के अनुयायी है। भारत में उन्हें ईश्वर के समान माना जाता है।


मत बोल कि सुनता वह कभी टेर नहीं,


उस चतर के कामों में उलट फेर नहीं।


ईश्वर के सदा न्याय में विश्वास रखो,


कुछ देर तो है न्याय में, अंधेर नहीं।”


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