ऋतु परिचय
आयुर्वेद
आयुर्वेद एक ऐसा अद्भुत चिकित्साशास्त्र है, जिसमें भारत के ऋषियों ने मानव-जीवन के सभी पहलुओं का गहराई से अध्ययन किया है। उन्होंने अपने ज्ञान-चिन्तन द्वारा मानव को साधारण जीवन-शैली से ऊपर उठकर स्वस्थ, दुखों से रहित, आनन्दपूर्ण और प्रसन्न जीवन जीने के लिए विशाल और अनमोल ज्ञान का भण्डार, आयुर्वेद के रूप में प्रदान किया। परन्तु बहुत खेद की बात है कि आधुनिक समय में चिकित्सा का स्तर बहुत उथला हो गया है। अधिकतर आधुनिक चिकित्सक व्याधि के मूल तक जाकर चिकित्सा करने की अपेक्षा, लक्षणों के आधार पर ही चिकित्सा करते हैं। पहले भी स्पष्ट किया गया है कि शरीर में मौजूद वात, पित्त और कफ, इन त्रिदोषों के असन्तुलन से ही हर व्याधि निर्मित होती है। वास्तव में इन त्रिदोषों का सन्तुलन ही मानव-शरीर की चिकित्सा का मूलभूत उद्देश्य है|
इन तीनों की मात्रा में अंतर आने से शरीर में विविध व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। किस दोष की विकृति हुई है, उसके आधार पर ही उपचार किया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, शरीर में वात बढ़ने पर लहसुन का सेवन लाभकारी होता है। परन्तु वात के साथ अगर पित्त भी बढ़ा हुआ हो, तो थ अगर पित्त भी बढ़ा हुआ हो, तो लहसुन का सेवन नुकसान कर सकता है। ऐसे ही वातज विकारों में महावातविध्वंस रस, यह औषधि दी जाती है। परन्तु वात के साथ अगर पित्त भी बढ़ा हो, तो साथ में सूतशेखर रस देना भी जरूरी हो जाता |है। अतिचिन्ता, तनाव इत्यादि मानसिक रोगों में अश्वगंधा अति उपयुक्त है, परन्तु अगर मानसिक समस्या पित्त कुपित होने के कारण हुई हो, तो शतावरी ही उत्तम औषधि है; उसके लिए अश्वगंधा का उपयोग लाभ नहीं देगा।
आयुर्वेद में ऋतुओं के बारे में सविस्तार वर्णन आता है। स्वास्थ्यपूर्ण और निरोगी जीवन जीने के लिए ऋतु के अनुसार खान-पान और दिनचर्या में बदलाव लाना भी आवश्यक है। ऋतु अनुसार दिनचर्या को अपनाने से अनेक रोगों से बचाव हो सकता है। पहले भी वर्णन आया है कि धरती अपने अक्ष पर थोड़ी-सी झुकी हुई होने के कारण तापमान में जो परिवर्तन घटित होते हैं, उसी कारण से एक वर्ष में छः ऋतुएँ होती हैं। व्यक्ति की वात, पित्त या कफ प्रकृति, दिन-रात का परिवर्तन और तापमान के अनुसार मौसम का परिवर्तन, ये तीनों बातें शरीर को विशिष्ट रूप से प्रभावित करती हैं|
आयुर्वेद के अनुसार, किसी एक ऋतु में हमारे शरीर में किसी एक दोष का 'संचय' होता है माने। वह दोष अपने स्थान पर एकत्रित होता है। उसकी अगली ऋतु में शरीर में उस दोष का प्रकोप होता है माने वह दोष और ज्यादा बढ़ता हैउसका अगला ऋतु में उस दोष का स्वाभाविक रूप से 'प्रशमन' भी हो जाता है, माने वह अपने आप शान्त हो जाता है।
ऋषि वाग्भट ने ऋतु सम्बन्धी जानकारी देते हुए 'अष्टांग हृदयम्' सम्पूर्ण जानकारी देते हुए 'अष्टांग हृदयम्' नामक ग्रन्थ में एक पूरा अध्याय 'ऋतुचर्या' नाम से लिखा है। इस अध्याय में हर ऋतु के अनुसार हमारा खान-पान कैसा होना चाहिए, किस ऋतु में शरीर में त्रिदोषों में से किस दोष का संचय और वृद्धि होती है, किस ऋतु में शरीर में कौन-सा दोष कम हो जता है, किस ऋतु में शरीर की शुद्धि करनी चाहिए इत्यादि अनेक विषयों का सविस्तार वर्णन किया है।
पृथ्वी एक वर्ष में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी कर लेती है। इस परिक्रमा के परिणामस्वरूप भारत में एक वर्ष में शि. शिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमन्त ये छः ऋतुएँ आती हैंछ: में से शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, ये तीन ऋतुएँ सूर्य के उत्तरायण काल अर्थात आदानकाल में आती हैं और वर्षा, शरद, हेमन्त ये तीन ऋतुएँ दक्षिणायण काल अर्थात विसर्गकाल में आती हैं।
भारतीय काल गणना के अनुसार, छः ऋतओं में से हर ऋत दो-दो मास की होती है। माघ और फाल्गुन में शिशिर ऋतु, चैत्र और वैशाख में वसन्त ऋतु, ज्येष्ठ और आषाढ़ में ग्रीष्म ऋतु, श्रावण व भाद्रपद में वर्षा ऋतु, अश्विन और कार्तिक में शरद ऋतु, मार्गशीर्ष और पौष महीने में हेमन्त ऋतु आती है। सूर्य, जल और वायु, ये तीनों हर ऋतु में अलग-अलग प्रभाव डालते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, किसी एक ऋतु में हमारे शरीर में किसी एक दोष का संचय' होता हैमाने वह दोष अपने स्थान पर एकत्रित होता है। उसकी अगली ऋत में शरीर में उस दोष का 'प्रकोप' होता है माने वह दोष और ज्यादा बढ़ता है। उसकी अगली प से 'प्रशमन' भी हो जाता है, माने वह अपने आप शान्त हो जाता है। प्रकृति का स्वाभाविक ऋतु चक्र एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर को इन परिवर्तनों से गुजारता हैउदाहरण के लिए, प्राकृतिक दृष्टि से कफ दोष का संचय शिशिर में, प्रकोप वसन्त में और प्रशमन ग्रीष्म में होता है। इसी प्रकार वात दोष का संचय ग्रीष्म ऋतु में, प्रकोप वर्षा में प्रशमन शरद में हो जाता है। पित्त दोष का संचय वर्षा ऋतु में, प्रक. ऐप शरद में और प्रशमन हेमन्त में हो जाता है।
हर व्यक्ति के शरीर में उसकी जठराग्नि और उसका शारीरिक बल समान होते हैं- शरीर में जितना बल अधिक होगा, उतनी ही भूख अच्छी लगेगी और उतना ही पाचन भी अच्छा होगा। पाचन अच्छा होने का मतलब है कि उसकी जठराग्नि अच्छी है। शारीरिक व्यायाम करने से शारीरिक और मानसिक बल की वृद्धि होती है। बल की वृद्धि होने से जठराग्नि बढ़ती हैजठराग्नि से पोषण मिलता है, माने अन्न से प्राप्त पोषक तत्त्वों का ग्रहण अच्छे से होता है और इसी से व्यायाम के लिए ऊर्जा प्राप्त होती है। यही शरीर के पोषण का चक्र है। गर्मी के दिनों में जब सूर्य का प्रभाव और अन्य बाह्य प्रभाव, जैसेत्रिदोषों में परिवर्तन, दिन-रात का परिवर्तन और मौसम का परिवर्तन होने से शरीर में बल कम होने लगता है, जठराग्नि भी उसी अनुपात में कम होती है। ग्रीष्म और वर्षा ऋतु में बल कम और अग्नि मंद होते हैं, जबकि वसन्त और शरद में बल मध्यम और अग्नि मध्यम होते हैं। हेमन्त और शि. शिर में बल श्रेष्ठ होता है और जद जठराग्नि भी अच्छी होती है। अत: हमारे पाचन करने की क्षमता (अग्नि) और वात, पित्त, कफ के प्रभाव के आधार पर, ऋतुचर्या में भोजन और रहन-सहन के नियम निश्चित किये गये हैं। एक स्वस्थ शरीर में भी मौसम का विशेष प्रभाव निसर्गतः दोषों को प्रभावित करता है।
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