स्वाध्याय
मनन
स्वाध्याय शब्द दो शब्दों के योग से निष्पन्न है- स्व+अध्याय। इस प्रकार स्वाध्याय शब्द का अर्थ स्वत: ही स्पष्ट हो जाता हैस्व का तात्पर्य आत्म, अपने से होता है। अध्याय का तात्पर्य अध्ययन से है। अतः स्वाध्याय का अर्थ Self Study होता है। आत्म अध्ययन, आत्म चिंतन में स्वाध्याय के यथार्थ स्वरूप का दर्शन होता है। स्वयं का चिंतन करना, स्वयं के विषय में चिंतन करना एक वृहद् संकल्पना हैजो बहु आयामी है।
स्वाध्याय का अर्थ स्वयं अध्ययन करना है तथा सद्ग्रंथों का अध्ययन करना भी होता है। स्वाध्याय का एक तात्पर्य विपश्यना भी कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अतः स्वत: प्रेरणा से नियमित रूप से किया गया कोई भी अध्ययन स्वाध्याय की परिधि के अंतर्गत आता है। स्वतः प्रेरणा से किया गया अध्ययन जीवन निर्माण का कार्य करता है। श्रवण, मनन, चिंतन आदि भी स्वाध्याय के ही स्तंभ हैं
आज स्वाध्याय के प्रति जन मानस की निष्ठा हासोन्मुखी होती जा रही है। जबकि इतिहास इस बात का साक्षी है कि नियमित स्वाध्याय ने लोगों के जीवन की दशा और दिशा परिवर्तित कर डाली है। शुद्ध, पवित्र एवं सात्विक जीवन यापन के लिए स्वाध्याय एवं सत्संगी की महती आवश्यकता है।
आवश्यकता है। स्वाध्याय एवं सत्संग दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कैसी विडंबना है कि सत्संग और स्वाध्याय दोनों ही वर्तमान काल में उपेक्षित हो रहे हैं। आधुनिक भौतिकवादी युग में सत्संग के प्रति भी लोगों का रूझान घटता जा रहा है। प्राचीन काल में ये दोनों स्वाध्याय और सत्संग ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक माने जाते थे। महर्षि पतंजलि की स्पष्ट मान्यता है
'स्वाध्यायदिष्टदेवतासम्प्रयोगः' अर्थात स्वाध्याय से इष्ट की सम्प्राप्ति होती है। इसी संदर्भ में महर्षि वेदव्यास जी भी कहते हैं
'स्वाध्यायद स्वाध्यायमामनेत।
स्वाध्याययोग सम्पत्या परमात्मा प्रकाशते।'
अर्थात चित्त वृत्तियों के निरोध की प्राप्ति करें अर्थात चित्तवृत्तियों को आत्म नियंत्रित कर स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय और योग की समन्वित शक्ति से आत्मा में परमात्मा प्रकाशित हो उठता है। अर्थात अपने इष्ट का संदर्शन प्राप्त हो जाता है। प्राप्त हो जाता है। स्वाध्याय अनुशासित जीवन की साधना है। यह जीवन की तपश्चर्या है। महर्षि याज्ञवल्क्य जी की 'शतपथ ब्राह्मण' में स्पष्ट मान्यता है
'यदि ह वाभ्यक्तोलंकृतः सूखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते,
आ हैव नखाग्रे-भ्यस्तपस्तप्यते, य एव विद्यान स्वाध्यायमधीते।'
अर्थात जो मनुष्य भली प्रकार से सुशोभित होकर आरामदायक पलंग पर लेट कर भी स्वाध्याय करता रहता है तो ऐसा माना जाता है कि वह एड़ी से लेकर चोटी तक तपस्या कर रहा है। इसलिए सुखी, संयमित और संतोषी जीवन के लिए जीवन में स्वाध्याय करना परमावश्यक है। प्राचीन काल में प्राचीन काल में लोग स्वाध्यायी प्रवृत्ति के थे। इसलिए उन्हें जीवन में कोई तनाव रोग नहीं व्यापता था, वे लोग सुखी एवं संयमित जीवन यापित कर पाते थे। प्राचीन काल में लोग स्वाध्याय के बल पर आदि दैविक, आदि भौतिक एवं आधि आत्मिक (आध्यात्मिक) प्रकोपों से बचने हेतु पूर्व में ही भविष्यवाणी कर देते थे जिससे सभी लोग सतर्क हो जाते थे और इन प्रकोपों को दाएं-बाएं कर देते थे।
स्वाध्यायी व्यक्ति आत्म संतुष्ट होता है। आत्म संतुष्टि एवं स्वाध्याय एक दूसरे के पूरक हैं। यह भी कहा जाता था कि स्वाध्याय का कार्य वही व्यक्ति कर सकता है जिसे ब्रह्म की अनुभूति हो और जिसमें सेवा समर्पण की भावना विद्यमान हो। स्वाध्यायशील व्यक्ति ही जगत को जाग्रत करने का कार्य कर सकता हैं।
लेकिन आज के युग में व्यवहारिक रूप से हम देख रहे हैं कि लोगों में स्वाध्याय की भावना घटती जा रही है। इस भौतिकवादी युग में लोगों के पास स्वाध्याय और सत्संग के लिए समय ही नहीं है। यही कारण है कि अधिकांश लोग आज तनावग्रस्त हैं, विभिन्न व्याधियों से आक्रान्त हैं तथा अनियमित दिनचर्या के शिकार हैं। आज के लोगों में समय प्रबंधन की अक्षमता है। आज के व्यक्ति में आत्म बल की भी कमी होती जा रही हैक्योंकि उसके पास स्वाध्याय का ज्ञान नहीं है। बहुत से महत्वपूर्ण सामाजिक सरोकारों वाले व्यक्ति स्वाध्याय के अभाव में ज्ञानहीन होते जा रहे हैं और समाज में उनका महत्वपूर्ण स्थान भी लघुता को प्राप्त होता जा रहा है, यह चिंतन का विषय है।
एक समय था कि स्वाध्याय के कारण भारतवर्ष को विश्व में जगद्गुरू का स्थान प्राप्त था, यह भी स्वाध्याय के कारण था। स्वाध्याय के कारण मनुष्यों में ज्ञान का सागर था। यदि आज भी लोग स्वाध्याय को अपने जीवन का अंग बनाएं तो लुप्त होते हुए सामा. जिक वैभव को पुनः प्राप्त कर सकते हैं।