योगासनों के आध्यात्मिक लाभ
आयुर्वेद
हठयोग के अनुसार, योगासन करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उनका हमारे मूलाधार, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्त्रार, इन चक्रों पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इन चक्रों के जागरण में योगासन अत्यन्त सहायक होते हैं। आसन करते हुए जब आप श्वास की लयबद्ध क्रिया करते हैं, तब इड़ा और पिंगला नाड़ियों में संतुलन निर्मित होता है और सुषुम्ना नाड़ी को सक्रिय करने में में मदद मिलती है। ऐसा लगता है कि कर तो हम आसन रहे हैं, पर असल में यह इन चक्रों और कुंडलिनी के जागरण की पूर्व तैयारी हो रही होती है। अगर मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र जागृत नहीं हुए, तो व्यक्ति भौतिक और लैंगिक वासनाओं से छूट नहीं पाता। चाहे वह आध्यात्मिक प्रवचनों से जितना मर्जी शाब्दिक ज्ञान इकट्ठा कर ले।
मूलाधार चक्र मानसिक और स्तर पर सभी उत्सर्जक प्रणालियोंजैसे- जननेन्द्रिय, उत्सर्जक इन्द्रिय, इनका नियंत्रण करता है और सभी मौलिक और नैसर्गिक उत्तेजनाओं को संग्रहित करता हैतुम्हारी सभी इच्छाएं और वासनाएं, स्वाधिष्ठान चक्र के स्थान पर एकत्रित रहती है। यदि कोई व्यक्ति स्वार्थी या शीघ्रकोपी होता है, तो वह उसके स्वाधिष्ठान चक्र के अकार्यक्षम होने के कारण है। स्वाधिष्ठान चक्र की संरचना इतनी सूक्ष्म है कि उसको समझना किसी सामान्य स्तर वाली बुद्धि के स्त्री-पुरूष के बस की बात नहीं है।
स्वाधिष्ठान चक्र हमारे संस्कारों, जैसेमानसिक प्रभाव, चुनाव, निर्णय और क्रियाओं आदि को किस तरह नियंत्रित करता है, इसके बारे में हमारा चेतन मन बिल्कुल ही अनभिज्ञ है। और तो और, तुम्हारे संगी-साथियों का चुनाव भी एक तरीके से स्वाधिष्ठान चक्र ही करता है। फिलहाल तो वह अकार्यक्षम है। और अभी तक जागृत नहीं हुआ है। स्वाधिष्ठान चक्र को सक्रिय किए बगैर कोई भी अपने मन और शरीर पर नियंत्रण प्राप्त नहीं कर पायेगा। सत्संग में तुम यह देशना सुनते रहते हो कि 'वासना को त्यागो', पर चूंकि तुम्हारा मूलाधार चक्र सुप्त है, तो यह बिल्कुल स्वाभाविक ही है कि ऐसे अचेत मूलाधार द्वारा आहार, निद्रा और मैथुन, इन तीनों मौलिक और प्राथमिक जरूरतों से संबंधित उत्तेजनाएं उठती ही रहती हैं।
तुम्हारा उन पर कोई नियंत्रण नहीं रहता। स्वाधिष्ठान चक्र अगर जागृत सत्संगों में सुना-सुनाया तुम्हारा सारा ज्ञान मस्तिष्क के किसी एक कोने में इकट्ठा होकर पड़ा रहेगा, लेकिन वह तुम्हारे लिए अनुपलब्ध ही रहेगा। और तो और, अचानक हुए उच्च रक्तदाब के परिणास्वरूप दिमाग की नस फट जाने से तुम उन सभी जानकारियों को और सारे ज्ञान को खो भी सकते हो।
कितने वेदान्ती संत अपने जीवन के आखिरी दिनों में बेहोश हुए पाये गये हैं- चार छः महीनों तक उन्होंने पीड़ायें भोगीं। वे याद ही नहीं कर पाये कि वे संत हैं या गुरू हैं या क्या हैं। उनकी सारी स्मृतियां, यहां तक कि अपनी पहचान भी चली गई। पूरे जीवन भर उन्होंने वेदान्त का अध्ययन-अध्यापन किया। शास्त्रों का शाब्दिक ज्ञान मात्र अनुचरों को इकट्ठा कर सकता है और इस तरह की व्याख्यानबाजी सम्पत्ति और प्रसिद्धि दे सकती है। लेकिन रोग, पीड़ा और मृत्यु के समय यह शाब्दिक ज्ञान किसी काम नहीं आता। बिल्कुल बेकार! शाब्दिक ज्ञान मस्तिष्क की कुछ कोशिकाओं में संग्रहित होकर पड़ा रह जाता है। मस्तिष्क में अगर रक्त की कोई नस फट जाये, तो वे कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। और वह सारा ज्ञान निरर्थक हो जाता है। इसीलिये योग के अधिष्ठान के बिना, यम, नियम, आसन, प्राणायाम इत्यादि के बिना, पुस्तकीय ज्ञान दो कौड़ी का है।
ध्यान धारणा से भिन्न है
याद रहे, अगर शरीर की कोशिकाएं स्वस्थ नहीं हैं, ग्रंथि स्त्राव सही नहीं हो रहे हैं और श्वसन द्वारा भीतर ली गई ऑक्सीजन अगर पर्याप्त मात्रा में नहीं है, तो गहरी एकाग्रता और केन्द्रकरण हो ही नहीं सकता। जिसे तुम एकाग्रता मानते हो, वह ज्यादातर तंद्रा ही होती है।
जब भी तुम सोचते हो कि तुम गहरे ध्यान में हो, तो वह कुछ और नहीं बल्कि वह तंद्रा या बेहोश अवचेतन मन की अवस्था मात्र होती है। आसन में बैठकर लम्बा समय काटते रहते हो और खुश होते हो कि बढ़िया ध्यान हो रहा है। लेकिन वह एक निरर्थक तमस में प्रवेश करना मात्र है। क्या तुम्हें नींद में अच्छा नहीं लगता? लगता है। बस, यह वैसा ही है।
याद रहे, अगर शरीर की कोशिकाएं स्वस्थ नहीं हैं, ग्रंथि स्त्राव सही नहीं हो रहे हैं और श्वसन द्वारा भीतर ली गई ऑक्सीजन अगर पर्याप्त मात्रा में नहीं है, तो गहरी एकाग्रता और केन्द्रकरण हो ही नहीं सकता। जिसे तुम एकाग्रता मानते हो, वह ज्यादातर तंद्रा ही होती है।
जो व्यक्ति आसन और प्राणायाम की सीढ़ियों को पार किए बगैर, सीधे ध्यान में प्रवेश करने का प्रयत्न करता है, वह उन्हीं समस्याओं का सामना करता है, जिनका सामना तुम अभी कर रहे हो।
तुम ध्यानस्थ होना चाहते हो, परन्तु नहीं हो पाते। तुम अपने मन को टिकाना चाहते हो, पर टिका नहीं पाते; और कभी-कभार जब तुम्हें लगता हैकि मन टिक गया है, तब भी क्या तुम्हें भरोसा होता है कि तुम बेहोश नहीं हो और पूरी तरह सचेत हो? यह कौन जान पायेगा?
जब तुम आंख बंद करते हो और मन के विचार थोड़े से ठहर जाते हैं और मन विश्राम में आ जाता है, तो स्वाभाविकता से मन नींद में उतर जाता है। नींद में उतरने की मन की यह प्रवृत्ति नयी नहीं है, जन्मों पुरानी है। मन के लिए ठहर जाना और साथ में सचेत भी रहना, बड़ा मुश्किल काम है।
ध्यान की अवस्था क्या है?
राजयोग में इसकी भी परिभाषा दी गई है ताकि तुम अपने आपको परीक्षण कर सको कि तुम ध्यान की अवस्था में हो या एकाग्रता की अवस्था में हो। एकाग्रता, धारणा का एक अंग हैं। अक्सर लोग इन दोनों के बारे में दुविधा में ही रहते हैं, पर ये दोनों अवस्थाएं भिन्न हैं। जो ध्यान का अभ्यास करते हैं, वे अक्सर खुद को मैडल दे देकर अपनी ही पीठ थपथपाते रहते हैं कि हमने बड़ी मस्ती का और शान्ति का अनुभव किया है। परन्तु यह तो एकाग्रता की अवस्था में भी होता है। तुम्हारे पास ऐसा क्या मापदंड है, जिससे तुम निर्णय करो * कि यह तुम्हारी मस्ती खाली एकाग्रता के परिणामस्वरूप थी या तुम चेतना की किसी गहरी स्थिति में उतर गये थे?
ध्यान जब घटता है, तब पूरा व्यक्तित्व बदल जाता है। तुम सोचते हो कि कभी-कभार हम कुछ गलती कर जाते हैं, पर मोटे तौर पर तो हम सही ही होते हैं। बस व्यक्तित्व में जरा सी यहां-वहां कुछ छुट-पुट बातें हमें ठीक करनी हैं। मोटे तौर पर तो हम एक अच्छे इंसान हैं और बिल्कुल सही रास्ते पर जा रहे हैं। तुम अपनी गलतियों का समर्थन करते हो कि 'तो क्या हुआ, सभी के अन्दर कुछ न कुछ अवगुण और दोष तो होते ही हैंतुम मिथ्या अभिमान करने लगते हो कि तुम बाकियों से बेहतर हो। याद रहे, यह मात्र तुम्हारा अहंकार है।
कैसे लोग खुद को ही मूर्ख बनाते रहते हैं। उनको गलत लगता है कि उनमें बस थोड़ी सी ममता और लगाव है। बाकी सब तो बढ़िया है। थोड़ा क्रोध बचा है, बाकी सब तो बढ़िया हैबस खाने में थोड़ी अधिक रूचि है, बाकी सब तो बढिया है। नहीं प्यारे, यह सच नहीं है। जो तुम्हें थोड़ा गलत लगता है, वह असल में पूरा ही गलत होता है। और जब तुम इसे सही करोगे, तो पूरे ही सही हो जाओगेतब तुम पूरी तरह से मुक्त हो जाओगेयदि ध्यान में सफलता चाहते हो, तो उसके लिए जीवन में यम, नियम, आसन और प्राणायाम की ठोस आधारशिला रखनी ही पड़ेगी।
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