अहंकारी को ज्ञान का उपदेश नहीं

गीता में दैवी सम्पद्




तप वही है, जो अपने अहंकार को थोड़ा नीचे करे। भक्ति लेनी है यदि, यदि, आपको ज्ञान लेना है, यदि आपको ध्यान लेना है, यदि आपको संतोष लेना है, यदि नख से लेकर चोटी तक अमृत के रस से भरना है, तो झुकना सीख जाओ।



गीता किस तप की बात कर रही है, आपको मालूम है। देव द्विज गुरू प्राज्ञ पूजनम्- देवता की पूजा, ब्राह्मण की पूजा, गुरू की पूजा, ज्ञानी तत्वदर्श की पूजा, माता-पिता की पूजा, दादा-दादी की पूजा, घर में बुजुर्ग की पूजा, रास्ते में कोई बड़ा आदमी मिल जाए उसकी पूजा। देव द्विज गुरू प्राज्ञ पूजनम्अपने अहंकार की निवृत्ति। तप वही है, जो अपने अहंकार को थोड़ा नीचे करे। भक्ति लेनी है यदि, यदि, आपको ज्ञान लेना है, यदि आपको ध्यान लेना है, यदि आपको संतोष लेना है, यदि नख से लेकर चोटी तक अमृत के रस से भरना है, तो झुकना सीख जाओ। थोड़ा अपने अहंकार को नीचे करना सीख जाओ|


कौन अपने अहंकार को नीचे करना चाहता है। आज तो लोगों में अहंकार बढ़ रहा है। देखा नहीं अष्टावक्र गीता में- महाराज जनक चक्रवर्ती सम्राट हैं- कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैंबहुत बड़े तपस्वी हैंउनकी सभा में बड़े-बड़े ज्ञानी, बड़े-बड़े गुणातीत, बड़े-बड़े योगी और बड़े-बड़े मुनियों का जमघट हुआ करता हैउनके दरबार में सदा ज्ञान की ही चर्च होती रहती है। लेकिन ज्ञान अभी जैसा उतरना चाहिए था, वैसा उतरा नहीं था। क्या कह रही है यह कथा? अभी ज्ञान को जिस ढंग से आना चाहिए था, वह आया नहीं था। चक्रवर्ती सम्राट थे, राजा थे जनक। इसीलिए ज्ञान की चर्चा जब चलती थी, तो सिंहासन पर बैठे रहते थे। हृदय के किसी कोने में यह बैठा हुआ था कि मैं बड़ा हूं। कैसे होगा ऐसे में ज्ञान? ज्ञान कैसे मिलेगा, भक्ति कैसे मिलेगी? कैसे वैराग्य घटेगा जीवन में? गीता में दो ही अक्षर हैं जब आप पढ़ेंगे 'तप', उसी की व्याख्या सुना रहा हूं। लेकिन समझा रहा हूं पूरी तरह से कि तप क्या है?


राजा जनक को यह मालूम पड़ा कि अभी जीवन में भक्ति नहीं आई। अभी जीवन में ज्ञान नहीं आया। अभी जीवन में वैराग्य नहीं आया। जीवन के बंधन कटने का कोई इशारा और संकेत नहीं आया है। अष्टावक्र आठ वर्ष के थे और आठ ही जगह से टेढ़े थे। उठाकर देखो अष्टावक्र की गीता को।


अष्टावक्र की गीता में प्योर ज्ञान है, शुद्ध ज्ञान है। कोई मिलावट नहीं है उसमें। खरे हैं जनक इसलिए खरा दूध पिलाया है उन्हें। भगवान ग्वाले थे न। ग्वाला अक्सर कभी शुद्ध दूध नहीं देता हैपानी मिलाकर देता हैग्वाले को कसम होती है कि शुद्ध दूध देना ही नहीं है। इसलिए श्रीकृष्ण की गीता में पानी मिलाया हुआ है। अच्छा है पानी मिलाया है, तभी वह हजम भी हो जाता है। शुद्ध दूध होता, तो हजम होना कठिन हो जाता। मुंबई के लोग इसे कैसे हजम कर पायेंगे। इतना छल, इतना कपट, इतना धोखा, अंधी दौड़, इतनी शैतानी और फिर अष्टावक्र की गीता को हजम करने की बात। यह तो पानी मिला थोड़ा दूध पी लीजिए, तो अच्छी बात है |


अष्टावक्र गीता तो प्योर ज्ञान है। उस प्योर ज्ञान को प्राप्त करने के लिए राजा जनक ने साष्टांग प्रणाम किया अष्टावक्र को। चरण पकड़ लिए और अपने आंसुओं से चरण-कमल धो दिए। छोड़ा ही नहीं चरण कमलों को और अपने हृदय से लगा लियाअष्टावक्र ने कहा, अरे चरण तो छोड़ मेरे। क्या बात है, बोल तो सही। क्या बात है? तुम्हारे दरबार में तो बड़े-बड़े विद्वान हैं, ज्ञानी हैं। ज्ञान की चर्चा होती रहती हैधर्म की चर्चा होती रहती हैफिर तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो? आठ वर्ष का हूं। आठ जगह से टेढ़ा हूं। जनक ने चरणों को जोर से पकड़ लिया। अष्टावक्र ने कहा, बोलो तो सही। तब बोले हैं जनक। इसके बाद अपना पूरा हृदय खोल के रख दिया |


कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।


वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि वैराग्यं च मम प्रभो॥



 मैं सिर्फ यही जिज्ञासा करता हूं कि मुझे ज्ञान कैसे प्राप्त होगा? मोक्ष कैसे मिलेगा? मेरे जीवन में वैराग्य कैसे घटेगा? ये तीन ही प्रश्न हैं मेरे। प्रार्थना कर रहा हूं। भटकते-भटकते आपके द्वार पर आया हूं। अभी तक सही रास्ता नहीं मिला। यही जिज्ञासा लेकर आया हूं कि ये तीनों चीजें मुझे प्राप्त हो जायें।


अष्टावक्र बड़े गौर से देखने लगे जनक को। देखो, ज्ञान देते समय बड़े गौर से देखना चाहिए। ध्यान से देखना चाहिए कि वह इसका अधिकारी है या नहीं।वोपी प्रेमपुरी के लोग बड़ा तंग करते हैं, महाराज! ऐसे-ऐसे प्रश्न करते हैं ये प्रेमपुरी के लोग कि आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, धर्म क्या है, अधर्म क्या है, स्वर्ग क्या है, नरक क्या हैकर देते हैं। में रहता हूं। नख से चोटी तक जानता हूं इनकोथोड़ी देर मेरे पास बैठते हैं, तो मैं पूछता हूं, पत्नी कैसी है, बेटा कैसा है, बिजनेस-व्यापार कैसा है। बस हो गया ब्रह्मज्ञान। शुरू हो जाते हैं, कोई पूछता ही नहीं। कोई ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा नहीं है।


यह तो बहानेबाजी है। यह तो लोगों की आंखों को एक तरह से चकमा देने की बात है।



देखो, भक्ति लेनी है, ज्ञान लेना है, ध्यान लेना है,


और जिसे जीवन के अंदर हीरे और मोतियों को पैदा करना है,


उसे नम्र होना पड़ेगा, विनयी होना पड़ेगा।


गीता इस तप की ही बात कर रही है।



तो अष्टावक्र ने बड़े ध्यान से देखासोचा, क्यों पूछ रहा है, किसलिए पूछ रहा है। इनके मन में इसकी प्यास है कि नहीं। सोचने लगे अष्टावक्र कि ज्ञानी तो यह है नहींज्ञानी तो आप्तकाम हो जाता है। उसके मन में तो कोई प्रश्न ही नहीं रहताफिर अष्टावक्र सोचने लगे, यह अज्ञानी भी नहीं है। क्योंकि अज्ञानी में थोड़ा सा ज्ञान आ जाए तो वह अहंकारी हो जाता है। इतना अभिमान आ जाता है कि वह कहता है, इतने दिन सत्संग सुना, इतने दिन 'पंचदशी' दिन 'अद्वैतसिद्धि' सुनी, अब मैं क्यों प्रणाम करूं? जरा सा ज्ञान आता है- तो अहंकार आ जाता है उसके हृदय मेंअष्टावक्र कह रहे हैं, यह अज्ञानी भी नहीं है। क्योंकि यह विनम्र हो गया, आंसू बहा रहा है, रो रहा है, इनके मन में कोई अहंकार नहीं है। कोई अभिमान नहीं हैऔर यह मूढ़ भी नहीं है |मूढ़ , कहते हैं मूर्ख को। पहले तो मूढ़ या मूर्ख के मन में ऐसे प्रश्न ही नहीं उठते। क्यों पूछेगा वह इस तरह के सवाल कि वैराग्य कैसे होगा, मुक्ति कैसे होगी। ये प्रश्न ही नहीं उठते उसके हृदय में। कदाचित उठेंगे, तो यही पूछेगा, धन कैसे मिलेगा? यश कैसे मिलेगा? कल-कारखाने कैसे मिलेंगे? मोटर-गाड़ियां कब आयेंगी? पहले तो वह पूछता ही नहीं। पूछेगा, तो ये वाल पूछेगा। तो अष्टावक्र कह रहे हैं कि ये तीनों ही चीजें इसमें नहीं। यह तो मुमुक्षु है। यह मोक्ष की इच्छा रखने वाला है। यह जिज्ञासु है। ज्ञान देना चाहिए इसे।


ज्ञान देना चाहिए इसे। देखो, भक्ति लेनी है, ज्ञान लेना है, ध्यान लेना है, और जिसे जीवन के अंदर हीरे और मोतियों को पैदा करना है, उसे नम्र होना पड़ेगा, विनयी होना पड़ेगा। गीता इस तप की ही बात कर रही है। देवद्विजं गुरू प्राज्ञ पूजनं शौचमार्जवम्। देवता, ज्ञानी और प्राज्ञ गुरू के चरणों में अपने अहंकार को थोड़ा नीचे करो। गीता में बार-बार यह बात कही गई है। गीता के प्रत्येक अध्याय में आपको यह बात मिलेगीभगवान श्रीकृष्ण ने अठारहवें अध्याय के 58वें श्लोक में अर्जुन को डंके की चोट पर कह दिया-


मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।


अथ चेत्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनश्यसि॥


इतने सख्त शब्द श्रीकृष्ण ने कभी नहीं कहे अर्जुन से। भगवान कह रहे हैं, अर्जुन! अहंकार के कारण अगर तूने मेरी बात को नहीं सुना, मेरी बात को नहीं माना, मेरी बात को अपने मन में नहीं बैठाया, तो 'विनश्यसि-'पथभ्रष्ट हो जाओगे। पूरी तरह से धमका दिया भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को। क्यों कह रहे हैं श्रीकृष्ण अर्जुन को? क्योंकि अर्जुन योद्धा है, क्षत्रिय है, बहादुर है, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है, फिर भी उसके हृदय के किसी कोने में अहंकार बैठा हुआ है। क्रमशः


                                                               this article is subject to copy right


 


 


 


Popular Posts