गीता का कर्मयोग
चिन्तन मनन
(श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय की विस्तृत व्याख्या)
संबंध- कर्म करने से लोकसंग्रह कैसे होता है, इसका विवेचन करते हुए भगवान कहते हैं:
श्लोक:
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो यद्यदाचरति जनः।
स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते॥
भावार्थ-
श्रेष्ठ पुरूष जो-जो आचरण करता है, अन्य मनुष्य भी (उसके आचरणों को आदर्श मानते हुए) वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। श्रेष्ठ पुरूष वही होता है, जिसके लिए कोई कर्त्तव्य नहीं है एवं जिसमें ममता, आसक्ति, कामना, अहंकार और स्वार्थ की गंध भी नहीं होती। उसका यह स्वाभाविक अनुभव होता है कि अपने कहलाने वाले शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि सब पदार्थ संसार से अभिन्न होने के कारण अपने और अपने लिए नहीं हैं, अपितु संसार के और संसार के लिए ही हैं इसलिये उसके अपने कहलाने वाले शरीरादि पदार्थों के द्वारा स्वतः स्वाभाविक संसार की सेवा होती है। ऐसा श्रेष्ठ पुरूष अपने वचन से, संकेत से, शास्त्र और इतिहास आदि से जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करने लग जाते हैं। श्रेष्ठ पुरूष के द्वारा 'लोकसंग्रह' दो प्रकार से होता है- (1) आचरण के द्वारा और (2) वचनों के द्वारा। श्रेष्ठ पुरूष जिस वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि में है, उसके अनुसार स्वयं आचरण करके और अन्य वर्णों, आश्रमों, संप्रदायों आदि के लिए अपने वचनों के द्वारा शास्त्रप्रमाण, उपदेश, संकेत, उदाहरण आदि देकर जनता को कर्म बंधन से छूटने की प्रेरणा एवं शिक्षा देता है।
यद्यपि आचरण का क्षेत्र सीमित और प्रमाण (वचनों) का क्षेत्र विस्तृत होता है।पुरूष के आचरण में पांच पद- 'यत्', 'यत्', 'तत्', 'तत्', और (विशेषरूप) से 'एव' देने का अभिप्राय है कि उसके आचरण का प्रभाव समाज पर पांच गुना (अधिक) पड़ता है, और प्रमाण में दो पद- 'यत्', 'तत्' देने का अभिप्राय है कि प्रमाण का प्रभाव समाज पर केवल दो गुना (अपेक्षाकृत कम) पड़ता है इसीलिए भगवान ने पिछले (बीसवें) श्लोक में लोक संग्रह के लिए अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करने पर ही विशेष रूप से जोर दिया है, कहने पर नहीं। अतः साधकों को भी अपने आचरणों को ही सुधारने का अधिक प्रयत्न करना चाहिए।
पुरूष के आचरण में पांच पद- 'यत्', 'यत्', 'तत्', 'तत्', और (विशेषरूप) से 'एव' देने का अभिप्राय है कि उसके आचरण का प्रभाव समाज पर पांच गुना (अधिक) पड़ता है, और प्रमाण में दो पद- 'यत्', 'तत्' देने का अभिप्राय है कि प्रमाण का प्रभाव समाज पर केवल दो गुना (अपेक्षाकृत कम) पड़ता हैइसीलिए भगवान ने पिछले (बीसवें) श्लोक में लोक संग्रह के लिए अपने कर्तव्य कर्मों का पालन करने पर ही विशेष रूप से जोर दिया है, कहने पर नहीं। अतः साधकों को भी अपने आचरणों को ही सुधारने का अधिक प्रयत्न करना चाहिए।
अन्वय:
श्रेष्ठः, यत्, यत्, आचरति इतरः, जनः, तत्, तत्, एवए (आचरति); सः, यत्, प्रमाणम्,कुरूते, लोकः, तत्, अनुवर्तते॥
पद व्याख्या
श्रेष्ठः- श्रेष्ठ पुरूष
श्रेष्ठ पुरूष वही है, जो संसार (शरीरादि पदार्थो) को और 'स्वयं'-(अपने स्वरूप) को तत्व से जानता है। उसका यह स्वाभाविक अनुभव होता है कि शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि, धन, कुटुम्ब, जमीन इत्यादि पदार्थ संसार के हैं, अपने नहीं। इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ पुरूष त्याग, वैराग्य, प्रेम, ज्ञान, सद्गुण इत्यादि को भी (भगवान के होने के कारण) अपना नहीं मानता; क्योंकि उन्हें भी अपना मानने से व्यक्तित्व पुष्ट होता है। जो तत्वप्राप्ति में बाधक होता है। 'मैं त्यागी हूं; मैं वैरागी हूं'; 'मैं कर्त्तव्यपरायण हूं', 'मैं भक्त हूं' इत्यादि भाव भी व्यक्तित्व को पुष्ट करने के कारण तत्वप्राप्ति में बाधक होते हैं। श्रेष्ठ पुरूष में (जड़ता के संबंध से होने वाला) 'व्यष्टि अहंकार' तो होता ही नहीं, और 'समष्टि अहंकार' व्यवहारमात्र के लिए होता है, जो संसार की सेवा में लगा रहता है; क्योंकि 'अहंकार' संसार का ही है। संसार से मिले हुए शरीर, धन, परिवार, पद, योग्यता, अधिकार इत्यादि सब पदार्थ सदुपयोग करने अर्थात दूसरों की सेवा में लगाने के लिए मिले हैं, उपभोग करने अथवा अपने अधिकार जमाने के लिए नहीं। जो इन्हें अपना और अपने लिए मानकर इनका उपभोग करता है, उसे भगवान चोर कहते हैं- , यो भुक्ते स्तेन एव सः' (गीता 3/12)
ये सब पदार्थ समष्टि के ही हैं, व्यष्टि के कथापी नहीं। वास्तव में उन पदार्थों से हमारा कोई संबंध नहीं है। श्रेष्ठ पुरूष के अपने कहलाने वाले शरीरादि पदार्थ (संसार के होने से) स्वतः स्वाभाविक संसार की सेवा में लगते हैं। संपूर्ण प्राणियों के हित में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है|
'देने' के भाव से समाज में एकता, प्रेम उत्पन्न होता है, और 'लेने' के भाव से संघर्ष उत्पन्न होता है। 'देने' का भाव उद्धार करने वाला और 'लेने' का भाव पतन करने वाला होता है।
शरीर को 'मैं', 'मेरा' अथवा 'मेरे लिए' मानने से 'लेने' का भाव उत्पन्न होता है। शरीर से अपना कोई संबंध न मानने के कारण श्रेष्ठ पुरूष में 'लेने' का भाव किंचिन्मात्र भी नहीं होताअतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरों का हित करने वाली ही होती है|
ऐसे श्रेष्ठ पुरूष के दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप, चिन्तन इत्यादि से स्वतः लोगों का हित होता हैइतना ही नहीं, उसके शरीर को स्पर्श करके बहने वाली वायु तक से लोगों का हित होता है|
ऐसे श्रेष्ठ पुरूष दो प्रकार के होते हैं- (1) अवधूत कोटि के और (2) आचार्य कोटि के। अवधूत कोटि के श्रेष्ठ पुरूष अवधूतों के लिए ही आदर्श होते हैं। साधारण जनता के लिए नहींपरन्तु आचार्य कोटि के श्रेष्ठ पुरूष मनुष्यमात्र के लिए आदर्श होते हैंयहां आचार्य कोटि के श्रेष्ठ पुरूषों का वर्णन किया गया है, जिनके आचरण सदैव शास्त्रमर्यादा के अनुकूल ही होते हैं कोई देखे या न देखे, अहंता-ममता न रहने के कारण उनके द्वारा स्वभावतः ही कर्त्तव्य का पालन होता है। जैसे, जंगल में कोई पुष्प खिला और कुछ समय बाद मुरझा गया और सूखकर गिर गया। उसे किसी ने देखा नहीं, फिर भी उसने (अपने चारों ओर) अपनी सुगंध फैलाकर दुर्गंध का नाश किया ही है। इसी प्रकार श्रेष्पुठ पुरूष से (परहित का असीम भाव होने के कारण) संसारमात्र का स्वाभाविक ही बहुत उपकार हुआ करता है, चाहे कोई समझे या न समझे। कारण यह है कि व्यक्तित्व (अहंकार-ममता) मिट जानेके कारण भगवान की उस पालन शक्ति के साथ उसकी एकता हो जाती है, जिसके द्वारा संसारमात्र का हित हो रहा है।
जैसे एक ही शरीर के सब अंग भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही हैं (उदाहरणार्थ- किसी भी अंग में पीड़ा होने पर उसे अपनी पीड़ा मानता है), ऐसे ही संसार के सब प्राणी भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही हैंजैसे शरीर का कोई भी पीड़ित (रोगी) अंग ठीक हो जाने पर उसके संपूर्ण शरीर का हित होता है, ऐसे ही मर्यादा में रहकर प्राप्त वस्तु, समय, परिस्थिति इत्यादि के अनुसार अपने कर्त्तव्य-कर्म का पालन करने वाले पुरूष के द्वारा संपूर्ण संसार का स्वतः हित होता है।
श्रेष्ठ पुरूष के आचरण और वचनों का प्रभाव (स्थूल शरीर से होने के कारण) स्थूल रीति से पड़ता है, जो साधक के अन्त:करण के अनुसार सीमित होता है। परन्तु उसके भावों का प्रभाव सूक्ष्मरीति से पड़ता है, जो असीम होता है। कारण यह है कि 'क्रिया' तो सीमित होती है, पर 'भाव' असीम होता है।
साधकों के लिए एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि सच्चे हृदय से दूसरों की सेवा करने से, जिसकी वह सेवा करता है, उस (सेव्य) के हृदय में भी सेवा भाव जागृत होता है- यह नियम है। सच्चे हृदय से सेवा करने वाला पुरूष स्थूल दृष्टि से तो पदार्थों को दूसरों की सेवा में लगाता है, पर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो वह सेव्य के हृदय में सेवाभाव जाग्रत करता है। यदि सेव्य के हृदय में सेवाभाव जाग्रत न हो, तो साधक को समझ लेना चाहिये कि सेवा करने में कोई त्रुटि (अपने लिए कुछ पाने या लेने की चाह) है। अतः साधक को इस विषय में विशेष सावधानी रखते हुए ही दूसरों की सेवा करनी चाहियेदूसरे मुझे अच्छा कहें- ऐसा भाव सेवा में बिल्कुल नहीं रखना चाहिये। ऐसा भाव आते ही तुरन्त मिटा देना चाहिये।
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