जीव द्वारा गर्भ में स्तुति


जन्म मृत्यु के पार


गर्भ में होने वाला जीव पिंजड़े में बन्द पक्षी के समान पराधीन हो जाता है। अंगों को हिलाने डुलाने में भी असमर्थ रहता है। पांच तत्त्वों से बने हुए शरीर में चेतना आ जाती है।, वह गति करने लगता हैबुद्धि अपना काम करने लगती है। अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरण शक्ति प्राप्त होती है। उसे अपने सैकड़ों जन्मों के कर्म याद आ जाते हैं। वह बेचैन हो उठता है। उसका दम घुटने लगता है, ऐसी अवस्था में उसे क्या शान्ति मिल सकती है। तब पांच तत्त्वों और सात धातुओं से निर्मित स्थूल शरीर से बंधा हुआ, वह देहात्मदर्शी जीव अत्यन्त भयभीत होकर, दीन वाणी से कृपा की याचना करता है। हाथ जोड़कर उस प्रभु की स्तुति करता है। नौवें महीने में उसकी ज्ञानेन्द्रियां काम करने लगती हैं। वह मानवीय लक्षणों से सम्पन्न हो जाता है। किन्तु उसके हाथ पांव बंधे रहते हैं, गर्भाशय में वह उलटा लटकता है। वह अविनाशी अक्षर ऊँकार का चिन्तन करता है। और उस परमात्मा की स्तुति करता है, जिसने उसे माता के गर्भ में डाला है।


वह मन में सोचता है मैं बड़ा अधम हूँ। भगवान ने मुझे जो इस प्रकार की गति का अनुभव कराया है, मैं इसी के योग्य हूँ। वे संसार की रक्षा के लिए अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं। मैंने पहले हजारों जन्मों को देखा है। उनमें षट्रस पूर्ण अनेक प्रकार के भोजन किए हैं। नाना प्रकार के गाय, भैंस, घोडी एवं मानव स्त्री के स्तनों का दूध पीया है। मैंने बार-बार जन्म लिया और मृत्यु को प्राप्त हुआ, अपने कुटुम्ब परिवार का पोषण करने के लिये न जाने कितने अच्छे-बुरे कर्म किए। उनका फल भोगता हुआ आज मैं अकेला गर्भ मे जल रहा हूँ, अत्यन्त दुखी हूँ। भोगों को भोगने वाले तो मुझे छोड़कर चले गए। अब मैं अकेला दु:ख सागर में डूब रहा हूँ। मेरे उद्धार का कोई उपाय दिखाई नहीं देता। परमात्मा मेरे ऊपर कृपा करें तो इस अन्धकूप से मुझे बाहर निकाल सकते हैं। मैं उनके चरणों में प्रणाम करता हूँ। साथ में प्रतिज्ञा भी करता हूँ, कि इस गर्भ-गुफा से बारह निकलते ही, मैं भगवान का भजन करूंगा। जो जीवों को मुक्ति प्रदान करने वाले प्रभु हैं, उनके चरणों का आश्रय लूंगा। यदि मैं इस बन्धन से छूट जाऊं तो शुभ, अशुभ सभी कर्मों को जलाने वाले सांख्य योग का अभ्यास करूंगा। आगे से मैं उन्हें कभी भी नहीं विसारूंगावे परमात्मा इस माता के अदर में शरीर, इन्द्रिय और अन्त:करण रूप माया का आश्रय लेकर पाप पुण्यरूपी कर्मों से आच्छादित रहने के कारण बंधे हुए से प्रतीत होते हैं। वे मेरे अन्तर-हृदय में प्रकाशित हो रहे हैं। उनमें कोई पाप नहीं है, न ही उनके स्वरूप में कभी कोई विकार होता हैउन अखण्ड, बोधस्वरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ।


प्रभो! यह देहधारी जीव माता के उदर के भीतर मल, मूत्र और रूधिर के कुएं में गिरा हुआ है। उसकी जठराग्नि से उसका शरीर तप रहा है, इस नरक से बाहर निकलने की इच्छा करता हुआ यह अपने दिन गिन रहा है|



प्रभो! यह गर्भाशय दुःख से भरा हुआ है, मैं बड़े कष्ट से इसमें दिन बिता रहा हूँ। यदि मैं इससे बाहर निकल गया, तो फिर से संसारमय अन्धकूप में गिरने की मेरी इच्छा नहीं हैक्योंकि उसमें प्रवेश करने वाले जीव को आपकी माया घेर लेती है।



प्रभो! यह गर्भाशय दु:ख से भरा हुआ है, मैं बड़े कष्ट से इसमें दिन बिता रहा हूँ। यदि मैं इससे बाहर निकल गया, तो फिर से संसारमय अन्धकूप में गिरने की मेरी इच्छा नहीं है। क्योंकि उसमें प्रवेश करने वाले जीव को आपकी माया घेर लेती है। इसका परिणाम होता है, कि वह शरीर को ही आत्मा मान लेता है, इसका फल होता है, कि उसे बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में घूमना पड़ता है इसलिए मैं अब व्याकुल नहीं होऊंगा, अपने मन को एकाग्र कर लूंगा। हृदय में विराजमान, श्री विष्णु के चरण-कमलों का ध्यान करूंगा उनकी कृपा से शीघ्र ही इस संसार सागर से पार उतर जाऊंगा, जिससे कि मुझे फिर इस प्रकार का दु:ख न उठाना पडे।


जब वह जीव दसवें महीने में प्रवेश करताहै, विवेक सम्पन्न हो जाता है। भगवान की स्तुति करता है। उस शिशु का दसवें महीने के आरंभ में जन्म होता है। 'प्राजापत्य' नामक वायु बड़े वेग से उस शिशु को बाहर ढकेलती है। वह योनि द्वार से बाहर निकलता है। योनि रूपी यंत्र से दबाया जाने के कारण. बडे कष्ट से उसका जन्म होता है। उसका सिर नीचे की तरफ होता है, उसके श्वास की गति रुक जाती है।, पृथ्वी पर माता के रूधिर और मूत्र में पड़ा हुआ वह बालक विष्ठा के कीड़े के समान छटपटाता है। थोड़े समय के लिये वह मूर्च्छित हो जाता है। फिर संसार की वायु के स्पर्श से वह थोड़ा सचेत होता है। उसी समय भगवान विष्णु की मोहिनी माया उस पर आक्रमण करती है, उससे वह मोहित हो जाता है। वह अपने पिछले कर्म, जन्म और मृत्यु को भूल जाता है। उसके अच्छे-बुरे सब कर्म, जो कि अपना परिचय देने के लिये प्रकट हुए थे, सब छिप जाते हैं। उसके मन पर एक प्रकार से पर्दा सा पड़ जाता है।


संसार में पांव रखते ही उसकी स्मृति और ज्ञान नष्ट हो जाते हैं। वह रोने लगता है| नहीं रोता तो पीठ पर थाप देकर उसे रूलाते हैं पांव पकड़ कर उलटा लटकाते हैं। कहीं गर्भ के पानी के प्रमाणु तो इसके नाक मुख आदि में प्रवेश न कर जाएंगे। रूलाने का अर्थ है यह कहीं गूंगा तो पैदा नहीं हुआ है। जन्म लेते ही रोना-धोना और दु:खों की परम्परा शुरू हो जाती है। स्त्री कन्या से मां बन जाती है, उसी समय उसकी छाती में दूध प्रकट होता है। जन्म से पहले दूध नहीं आता है। पहले परमात्मा ने गर्भ की छोटी सी कोठरी में भोजन की व्यवस्था कर दी थी, अब जन्म लेते ही वे दूध की व्यवस्था भी कर देते हैं। माता प्रसव वेदना से अभी मुक्त नहीं हो पाती, परिवार के लोग या धाय शिशु का मुख उसकी मां की छाती पर होने वाले स्तन पर लगा देते हैं। बिना सिखाए ही वह स्तन पीने की रीति को जान लेता है, न जाने उसने आज तक कितनी माताओं की छाती का दूध पिया है वह चपर-चपर दूध पीने लगता है। पहले प्रत्येक जन्म में उसने ऐसा ही तो किया है। इससे उसके पूर्व जनम का अनुमान होता है। धीरे-धीरे उसके पांच भौतिक शरीर का विकास होता है। जैसे ही वह रोता है, माता बिल्वके समान कठोर स्तन उसके मुख में ठंस देती है। स्नेह से उसे पुचकारती है। मीठी-मीठी लोरियां देकर उसे चुप कराती है। उसे पालने पर सुला देती है। शिशु का शरीर बड़ा कोमल होता है, उसे खटमल, मक्खी, मच्छर, आदि काटते हैं वह फिर रोता है। अपना दुःख प्रकट करने के लिये अभी उसके पास भाषा नहीं होती, वाणी बोलने का उपकरण भी ठीक से काम नहीं करता, वह बार-बार रोता है। माता पिता समझते हैं, कि इसे कोई रोग हो गया, कड़वी दवा पिलाते हैं, वह और रोता है। माता-पिता कहते हैं इस बच्चे ने तो हमें परेशान कर दिया है।


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