माँ-सृष्टि की धुरी

                                              षडयंत्रों से बचें...



भारत के हजारों वर्षों का गौरवशाली इतिहास माँ के वात्सल्य, त्याग और बलिदान से ओत-प्रोत है। पौराणिक काल से लेकर वर्तमान भारत तक के इतिहास का कोई भी कालखण्ड माँ की गोद का आश्रय पाये बिना अपनी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सका। स्त्री को जो सम्मान हमारे देश में मिला वह अद्वितीय है। विश्व के किसी भी अन्य भूभाग में नारी को देवी का स्थान नहीं मिला। हमारी सदियों ने माँ को अपने भीतर जिया है। भारत की स्त्री ही अपनी सम्पूर्णता को पा सकी। हमारी चिर पुरातन संस्कृति ने ही माँ को परिवार के हरेक सदस्य के लिए जीना-मरना सिखाया है। भारत की माँ ने अपनी सन्तानों को जिन ऊँचाइयों पर पहुँचाया है उनसे हमारा इतिहास गौरवान्वित है। राम और कृष्ण साधारण मनुष्य से महा-मानव यूं ही नहीं बन गये थे। राम एक साधारण राजा ही बने रहते यदि माँ कौशल्या ने उनके वनवास को स्वीकार नहीं किया होताराज्याभिषेक की सुखद अनुभूतियों के बीच वनवास की कठोर आज्ञा राम को थोड़ा भी विचलित नहीं कर सकी थी। राम की यह दृढ़ता माँ कौशल्या की गोद में ही जन्मी थी। कृष्ण का जन्म बहुत ही विषम परिस्थितियों में कंस के कारागार में हुआ था।


कालचक्र ने उन्हें अपनी जननी देवकी से दूर माता यशोदा की गोद में पहुंचा दिया। वात्सल्य के जिस वातावरण में माँ यशोदा ने सुसंस्कार दिये उन्हीं के फलस्वरूप नटखट कृष्ण के भीतर योगेश्वर का जन्म हुआ था। आप देखिये, भारत के इतिहास का एक-एक पृष्ठ आपको माँ के त्याग और बलिदान से रंगा हुआ मिलेगा। भारत की माताओं की कोख कभी भी सूखी नहीं वह निरन्तर ही महामानवों को, ऋषि-मुनियों को, चिन्तकों को, वैज्ञानिकों को, बलिदानियों को जन्मती रही हैभारत भूमि माँ की ऋणी है। मातृशक्ति के योगदान बिना भारत की कल्पना ही अधूरी है। मातृत्व की वात्सल्यमयी धारा में प्रवाहित होकर ही आज हम विश्व के सिरमौर बनने की ओर अग्रसर हैं। परन्तु आज जब हम स्थितियों को देखते हैं तो मातृशक्ति के प्रति इस देश के लोगों की मानसिकता में एक बहुत बड़ा परिवर्तन होता दिखलाई पड़ता है। जिस नारी को हमने देवी की तरह पूजा, उसे हमारी ही सन्तानें एक भोग्या के समान प्रयोग कर रही हैं। प्रकारान्तर से वह अत्याचारों की शिकार हैं। इस प्रकार की स्थितियों पर सदैव ही ध्यान रखा जाना चाहिए कि जो आपका शत्रु है वह सबसे पहले आपकी जड़ों पर ही प्रहार करता है। भारत के शत्रुओं ने जब इस बात को जाना कि इसकी मजबूती भारत की मातृशक्ति के भीतर ही छुपी हुई है तो उनका सबसे पहला हमला उसकी विचारधारा पर ही हुआ। बहुत बहस की आवश्यकता नहीं, आप अपने देश के पिछले पचास बरसों के इतिहास का तुलनात्मक अध्ययन करके देखिये कि भारत की स्त्री कहाँ से कहाँ पहुंच गई। घर की लक्ष्मी अपनी सीमा लांघकर फूहड़ और शर्मनाक विज्ञापन बोर्डों पर जगमगा रही है। अगर हमारी सन्तान पड़ोसी की बेटी को अपनी बहन मानने को तैयार नहीं तो इसमें उसका कोई दोष नहीं है। स्त्री के अर्धनग्न देह प्रदर्शन से जगमगाते विज्ञापनों को देखते हुए ही अगर हमारी सन्तानें बड़ी हो रही हैं तो वह किसी भी बेटी को अपनी बहन कैसे मान सकती हैं। उन्हें तो हरेक स्त्री भोग्या के रूप में ही दिखाई देगीअन्तर्राष्ट्रीय सेटेलाइट चैनलों ने हमारे घरों में घुसकर हमारी संस्कृति पर हमला किया और हम बहुत ही आसानी से उसके शिकार हो गये। भोगवादी संस्कृति का जहर हमारी रगों में डाल दिया गया है जो हमारी सामाजिक व्यवस्था को बहुत गहराई तक प्रभावित कर रहा है।


आप देखिये कि आज से कुछ वर्षों पूर्व तक हमारे वृद्ध-जन परिवार की शोभा होते थे। उनके होने से घरों में रौनक होती थी। आज देखिये क्या हालत है भारत के औसत बुजुर्गों की। या तो वे परिवारों में नारकीय जीवन जीने को विवश हैं अथवा वृद्धाश्रमों में जैसे तैसे अपना एकाकी जीवन काट रहे हैं। हम दो वक्त की रोटी देकर जैसे उन पर कोई उपकार करते हैं। रोटी के बदले घर में बच्चे सम्भालने और घर की चौकीदारी करना जैसे ये ही दो कार्य उन पर थोप दिये गये हैं। वास्तव में यह उपेक्षा का भाव भी स्त्री के अन्दर से ही आया है।



आधुनिकता का अनुसरण जरूर करो परन्त उसका लबादा ओढकर अपनी परम्पराओं और मर्यादाओं को त्याग करना अक्षम्य अपराध है। अपनी सन्तानों को विश्वस्तरीय तो जरूर बनाओ लेकिन उनकी भारतीयता को जीवित बनाये रखो।



आप उन घरों को देखिये जहाँ अपने वृद्ध-जनों के प्रति एक भी स्त्री में ममत्व का भाव है। वहां वे बुजुर्ग देवत्व का स्थान पाते हैं। उनके प्रति परिवार की एक स्त्री का आदरभाव ही सारे परिवार की विचारधारा को प्रभावित करता है। वे ही परिवार सुखी जीवन जी सके हैं जिन्होंने अपने वृद्ध-जनों को अपने बच्चों के समान स्नेह किया है।


आशय यह है कि स्त्री की सोच परिवार की विचारधारा को ही बदल देता हैभारत की वर्तमान स्थितियों में अपने देश को समर्थ और समृद्ध बनाने के लिए सुप्त मातृ-शक्ति का जागरण जरूरी है। हमें शक्ति अर्जित करनी है। हमें अपनी शक्ति को पहचानना है और विषम परिस्थितियों से घिरे भारत को एक ऐसी दिशा प्रदान करनी है कि हमारा देश, हमारी यह धरा, हमारा यह समाज अपने उस खोए हुए गौरव को पुनः प्राप्त करे जो हमारा सुन्दर अतीत था। हमारे देश में मातृ-शक्ति को जागृत करने के प्रयास पश्चिम की तर्ज पर हो रहे हैं। मेरी अपनी मान्यता है कि भारत की नारी-शक्ति, भारत की स्त्री, भारत की महिला, उन पवित्र परंपराओं, मान्यताओं और भारत के गौरव से भरे हुए इतिहास से परिचित होगी तो यह सोचकर कि 'मुझे इतनी पवित्र पावन सांस्कृतिक परंपरा में जन्म लेने का अवसर मिला है तभी वह अपने दायित्व, गौरव और स्वाभिमान का अनुभव करेगी। भारत में स्त्री को कभी भोग्या की दृष्टि से नहीं देखा गया। भारत मातृ-पूजक देश हैयहाँ माँ और जननी परम पूज्य होती है किन्तु आजादी के बाद उसे भोग्य मानने और बनाने का प्रयास हुआ। भारत की मातृ-शक्ति को पीछे धकेलने की कोशिश हुई। हम धीरे-धीरे अपनी गरिमा, अपने गौरव और अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभिमान शून्य होते चले गए|


हम आयातित संस्कृति से इतने प्रभावित हैं, इसके आकर्षण में इतना आबद्ध हैं कि अपने 'स्व' को भूल गए हैं। अपने स्वरूप को भूल गए हैं। परिणामस्वरूप आज अजीबो-गरीब वातावरण में हम अपने को खड़ा पा रहे हैं। हम यह भूल गए हैं कि माँ निर्मात्री होती है। जननी संतान को जन्म देती है, माँ उसे द्विज बनाती है। भारत की स्त्रियों अपने गौरवशाली अतीत का दर्शन करोआधुनिकता का अनुसरण जरूर करो परन्तु उसका लबादा ओढ़कर अपनी परम्पराओं और मर्यादाओं को त्याग करना अक्षम्य अपराध है। अपनी सन्तानों को विश्वस्तरीय तो जरूर बनाओ लेकिन उनकी भारतीयता को जीवित बनाये रखो। भारतीयता एक संस्कृति है और आज वह सारे विश्व के निशाने पर हैतुम ही हो भारत की स्त्रियों, जो उसे बचा सकती हो|


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