पाप-पुण्य की व्याख्या


जन्म और मृत्यु के पार


पाप कर्म क्या है? और पुण्य कर्म क्या हैं? कर्म एक स्पन्दन हैं, हलचल हैकर्म के द्वारा हाथ, पांव, शरीर, मन-बुद्धि में क्रिया पैदा हो जाती है। कोई भी कर्म न अच्छा है न बुरा हैदेखना इस बात को है कि किसी कर्म देखना इस बात को है को करते समय उसके में वासना कैसी उदाहरण के लिए व्यक्ति है। किसी को की दृष्टि से छुरी चलाता है, यह पाप कर्म है। डॉक्टर किसी का आपरेशन करता है, वह मरीज को बचाने लिए छुरी चलाता है, उसके प्राणों की रक्षा करता यह पुण्य कर्म है। छुरी चलाना दोनों का समान है, पर भावना में अंतर है। इसलिए न कोई कर्म अच्छा है, न बुरा है। उनके मूल में जैसी भावना हो, वह वैसा ही बन जाता है। बुरे कर्म से मन नीचे गिरता है, मन को नीचे गिराने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। उसका स्वभाव पानी के समान है। पहाड़ न की चोटी पर पानी गिराइये, वह सहज में नीचे की तरफ होने लुढ़कता है। उस पानी को यदि ऊंचाई की तरफ ले जाना हो तो मशीन लगानी पड़ती है। मनुष्यों की संसार के  विषय में सहज प्रवृत्ति होती है, उन  प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखना ही धर्म है। 



संपूर्ण प्रकृति मनुष्य के लिए खुली पड़ी थी। लाखों वर्षों तक मनुष्य की आयु होती थी। मानसिक संकल्प से सृष्टि पैदा हो जाती थी। विवाह का धर्म मूलक कोई बंधन न था। सगर के साठ हजार बेटे पैदा हुए थे, दस हजार शवलाश्व, दस हजार हर्यश्व ये सब मानसिक सृष्टि थे। बस संकल्प करते थे, जितने चाहो पुत्र पैदा हो जाते थे। न कोई रोग था, न कोई शोक था, न नरक था न स्वर्ग था। इसी देह से लोग स्वर्ग चले जाते थे।



उन्हें स्वतंत्र छोड़ देना, न शास्त्र की बात माननी, न गुरू की, न बड़े- बूढ़ों की, बस मन में जो आया उसी को पूरा करना, यही अधर्म है। मानव में कुछ जन्मजात प्रवृत्तियां होती हैं, उन्हें सिखाना नहीं पड़ता। जैसे सहवास की प्रवृत्ति, खाने-पीने की प्रवृत्ति, इन कर्मों को करने के लिए सिखाने, पढ़ाने की आवश्यकता नहीं। सहज में ये कर्म होने लगते हैं। कभी इन कर्मों को करते-करते थक जाते हैं। इतने थक जाते हैं कि उठ भी नहीं पाते हैं मनुष्य विश्रान्ति चाहता है। कभी संसार से अलग होकर बैठना चाहता है। योग करके, समाधि लगाकर, संसार सेअलग होना कठिन है। मानव मन को विश्राम देने के लिए मदिरा पीता हैधूम्रपान करता है अथवा अन्य मादक पदार्थों का सेवन करता है। ये विषय हानिकारक हैं। पर इनसे मन को रोकना काफी कठिन है। किन्तु यदि आत्मसंयम वर्तते हुए, इन प्रवृत्तियों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो वही धर्म है।



इन्द्रियों पर लगाम लगाना नहीं, उन्हें विषय सेवन के लिए खुला छोड़ देना अधर्म है।


आदि सतयुग के समय मनुष्य बहुत सरल होते थे। वे धर्म का आचरण करते थे। न कोई नियम था, न कर्म का बंधन था। संपूर्ण प्रकृति मनुष्य के लिए खुली पड़ी थी। लाखों वर्षों तक मनुष्य की आयु होती थी। मानसिक संकल्प से सृष्टि पैदा हो जाती थी। विवाह का धर्म मूलक कोई बंधन न था। सगर के साठ हजार बेटे पैदा हुए थे, दस हजार शवलाश्व, दस हजार हजार शवलाश्व, दस हजार हर्यश्व ये सब मानसिक सृष्टि थेबस सकल्प करत थ, जितने चाहा पुत्र पदा हो जात थ। न काई राग था, न काई शाक था, न नरक था न स्वग था। इसी देह से लोग स्वर्ग चले जाते थे। वहा क सुख भागकर जब इच्छा हाता थी. तो लौट आते थे। ब्रह्मलोक तक के द्वार खुले रहते थेदेवता और मनुष्यों में परस्पर बड़ा प्रेम था।


भाईचारे का संबंध था। देवता पृथ्वी पर उतरकर मनुष्यों द्वारा दी गई आहतियां प्रत्यक्ष होकर स्वीकार करते थे। मनष्य भी इसी देह से स्वर्ग के सखों का सेवन करता थासमय बीतता गया। धीरे-धीरे मनुष्य के मन में लोभ ने प्रवेश किया। मैं कल का भोजन आज ही जटाकर रख लूंफिर मोह बढा, क्रोध, अहंकार, दम्भ, बनावट आदि प्रवृत्तियां पैदा हुई। पाप बढ़ने लगा तो पापियों को दंड देने के लिए ब्रह्मा को 'यम' नाम के एक नए लोक पाल की नियक्ति करनी पड़ीयमराज ने कहा महाराज! आपने मझे यह कैसा विलक्षण कार्य सौंप दिया. मैं पापियों के पीछे कहां-कहां दौडता फिरूंगा? पापियों को मेरे पास लाने के लिए और भी कर्मचारी भी तो होने चाहिए, तब ब्रह्मा ने यमदूत पैदा किए


क्रमशः                                                           this article is subject to copy right


 


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