वात दोष
आयुर्वेद के मूल सिद्धान्त
वात दोष तीनों दोषों में प्रधान और महत्त्वपर्ण हैमहर्षि चरक का सत्र है. 'वायुस्तंत्रयंत्रधरः' अर्थात शरीर रूपी यंत्र पूर्ण रूप से वायु पर आधारित है। वायु ही इस शरीर रूपी यंत्र को चलाता है। शरीर में वायु का सन्तुलित होना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। अगर वात सन्तुलित अवस्था में हो, तो हम शरीर और मन से आनन्द का अनुभव कर सकते हैं; क्योंकि वात हमारे मन और इन्द्रियों को उत्साहित करने वाला मुख्य कारक है। वायु के विकृत होने से 80 प्रकार की बीमारियाँ हो सकती हैं। इसलिए यह जानकारी होना बहुत आवश्यक है कि वायु के विकृत होने के कौन से कारण हैं?किस प्रकार का भोजन खाने से वायु असंतुलित होती है?वायु-विकारों से बचने के लिये कौन से सामान्य घरेलू उपचार हो सकते हैं?उत्तम स्वास्थ्य के लिए हमारा आहार-विहार कैसा होना चाहिए? वायु चंचल, अति वेगवान, अति बलवान, गति देने वाली, शरीर की सभी क्रियाओं को प्रेरणा देने वाली मन को नियंत्रित करने वाली, इन्द्रियों को प्रेरित करने वाली और अत्यंत शक्तिशाली है। पित्त दोष और कफ दोष भी वायु के द्वारा ही चलायमान होते हैं। वायु को प्राकृत अवस्था में रखने से पित्त दोष, कफ दोष, रस, रक्त इत्यादि सप्त धातुएं, स्वेद, विष्ठा और मुत्र, ये तीनों मल भी प्राकृत अवस्था में रहते हैं। जब तक वात दोष अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहता है, तब तक शरीर की सभी क्रियाएं सुचारू रूप से होती रहती हैं। वायु के विकृत माने असन्तुलित होने पर शरीर की समस्त क्रियाएं अस्त-व्यस्त हो जाती हैं। इसी कारण से वायु को देवता स्वरूप, महान तथा शक्तिशाली कहा गया है।
वायु के गुण
'तत्र रूक्षो लघु शीतः स्वरः सूक्ष्मश्चलोऽनिलः।'
रूक्ष - रूखा
* खर - कर्कश
* सक्ष्म - आँखों से न दिखने वाला
* चल - अस्थिर
वायु शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न कार्य करती है। इसलिये इसके पाँच प्रकार कहे गए हैं-प्राण, उदान, समान, अपान और व्यान। शरीर में विभिन्न प्रकार की क्रियाएं जैसे-श्वसन क्रिया, रक्त का संचार, कफ-पित्त, मल-मूत्र और स्वेद का वहन, देखना, सुनना इत्यादि वायु के द्वारा ही होते हैंसभी इन्द्रियों के कार्य वायु के द्वारा ही संचालित होते हैं। वायु ही मन का नियंता और उसे उत्तेजित एवं उत्साहित करने वाला है। यहां तक कि ज्ञानेन्द्रियों का विषयों की तरफ आकर्षण भी वायु के कारण ही है|
वायु पाचक अग्नि को प्रेरित करता है, मल, मूत्र व स्वेद को शरीर से निष्कासित करता है और शरीर की सभी कार्य प्रणालियों को प्रभावित करता हैहमारा जीवन वायु पर ही आश्रित है, कार्य प्रणालियों को प्रभावित करता है। हमारा जीवन वायु पर ही आश्रित है, इसलिये वायु को प्राणियों का प्राण माना जाता है। वायु के विकृत होने से ही शरीर में बहुत से रोग उत्पन्न में बहुत से रोग उत्पन्न होते हैं। बल्कि वायु का विकृत होना, हर रोग का प्रथम कारण होता है। इसलिये किसी भी रोग का उपाय करते समय पहले प्रकुपित वायु का शमन आवश्यक होता है, क्योंकि वायु के सन्तुलित होने पर ही अन्य दोनों दोष पित्त और कफ सन्तुलित रहते हैं। वायु के बिना पित्त और कफ दोनों दोष पंगु हैं। ये अपने आप कहीं नहीं जा सकते। आयुर्वेद के अनुसार मानसिक तनाव मन के अति विचारों या नकारात्मक विचारों के कारण उत्पन्न होता है। आधुनिक जीवनशैली में मनुष्य पूरा समय शरीर और मन से बहुत अधिक श्रम करने में व्यस्त रहता है। वह ज्यादातर कम्प्यूटर के सामने बैठा रहता है या किसी मशीन के साथ काम करता रहता है। इससे शरीर में मुख्यतः प्राण वायु विकृत होती है। प्राण वायु के असन्तुलित होने से मानसिक तनाव बढ़ता जाता है। हालांकि शुरू में पता नहीं चलता. लेकिन जब तनाव ज्यादा बढ़ जाता है, तब शरीर पर उसके लक्षण स्पष्ट दिखने लग जाते हैं, जैसे-नींद न आना, भूख-प्यास का कम हो जाना, नकारात्मक सोच में डूबे रहना, मन का भय से आकुल रहना, स्मृति कम होना, इन्द्रियों की ग्रहणशक्ति कम होना, भावनात्मक तनाव, रिश्तों में तनाव, आर्थिक तनाव के कारण मानसिक तनाव, चिढ़चिढ़ापन, असुरक्षा की भावना आदि। वायु विकृत होने से ये लक्षण पैदा होते हैं और इन सभी लक्षणों के कारण वायु और विकृत हो जाती है। अतः मनुष्य एक दुष्चक्र में फंस जाता है|
मानसिक तनाव के कारण शरीर की अंत:स्रावी ग्रन्थियाँ स्वाभाविक रूप से कार्य नहीं कर पाती हैं और इसके कारण हार्मोन्स में असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। हार्मोन्स के असन्तुलित स्त्राव का गहरा असर हमारे हार्मोनल तंत्र पर आता है और हमारे शरीर का पूरा रासायनिक संघटन बिगड़ जाता है। हमारा शरीर एक वाद्य-यंत्र की तरह है। प्राकृतिक तौर पर शरीर के सभी अंग, रक्त का संचार, हृदय की धड़कन, श्वास-प्रश्वास, आंतों की गति, ये सब एक ताल में, एक व्यवस्थित सन्तुलन में चलते हैं। अगर वाद्य-यंत्र की एक भी तार टूट जाए तो उसमें से स्वर से नहीं निकलते हैं। उसी प्रकार अगर शरीर की किसी भी एक कार्य-प्रणाली में बाधा उत्पन्न होती है, तो शरीर की अन्य कार्य-प्रणालियों पर भी उसका असर आता है। स्रावों के असन्तुलन से शरीर की पूरी प्रक्रिया अस्त-व्यस्त हो जाती है।
हम शरीर से चाहे कितना ही अच्छा आहार लें, पोष्टिक फल-सब्जियाँ खायें, लेकिन अगर मन में बहुत तनाव है, तो हमारी पाचन प्रणाली इस आहार को ठीक से पचा ही नहीं पाती है। जो पाचन हुआ है, उससे बनने वाला आहार-रस भी विकृत होता है, जिससे शरीर अस्वस्थ होता जाता है इसलिए भोजन ग्रहण करते समय हमारा मन प्रसन्न, आनन्दित, तनाव-रहित होना बहुत जरूरी है। और भी अधिक जरूरी बात यह है कि भूख लगने पर ही भोजन करें। खाते समय पूरा ध्यान भोजन में होवायु का प्रमुख स्थान पक्वाशय है। पक्वाशय अर्थात छोटी और बड़ी आंते वात रोगों का प्रमुख उत्पत्ति स्थान हैअगर इसी स्थान पर वात दोष का शमन किया जाये, तो सम्पूर्ण शरीर में स्थित वायु का स्वयं ही शमन होगा।
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