वेद प्रार्थना
( पृथिवी की स्तुति )
यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा।
पृथिवीं विश्वधायसं धृतामच्दावंदामसि॥ (अथ० 12/9/27)
(अथवाँ ऋषि। भूमिः देवता | त्रिष्टुप् छन्दः)
पदच्छेद:
यस्याम्। वृक्षा। वानस्पत्याः ध्रुवा। तिष्ठन्ति।विश्वहा। पृथिवीम्|। विश्व-धायसम्। धृताम्। अच्छा। वदामसि।
भावार्थ:
जिस पृथिवी में अनेकों प्रकार के वृक्ष-औषधि एवं वनस्पतियाँ निश्चल रूप से स्थित हैं और जो समस्त पदार्थों को हमेशा धारण किये रहती है वह पृथिवी हमें भी स्थिरता के साथ धारण करे और हम उसके प्रति श्रेष्ठ-वचनों के द्वारा उसकी प्रशंसा करते रहें।
विशेष:
मातृभूमि की प्रशंसा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है।
( संसार रूपी नदी )
उत्तिष्ठता प्र तरता सखायोऽशमन्वती नदी स्यन्दत इयम्।
अत्रा जहीत ये असन्नशिवाः शिवान्त्स्योनानुत्तरेमाभि वाजान्॥ (अथ० 12/2/27)
(भृगुः ऋषिः मृत्यु देवता। त्रिष्टुप छन्द:)
पदच्छेद:
उत्तिष्ठत। आ। प्र। तरत। आ। सखाय। अशमन्वती। नदी। स्यन्दते। इयम्। अत्र। आ-जहीत। ये। असन्। अशिवा। शिवान्। स्योनान्। उत्तरेम। अभि। वाजान्।
भावार्थ:
हे मित्रों! उठो, यह चिकने पत्थरों वाली संसार रूपी नदी बह रही है। इसको प्रकृष्टता के साथ पार करो। जितने भी अकल्याणकारी पदार्थ हों, उन्हें अच्छी तरह से यहीं छोड़ दो और जो सुखकर-कल्याणप्रद तथा बलों को बढ़ाने वाले पदार्थ हैं, उनको प्राप्त होओ|