बुजुर्ग होने का सौभाग्य


                         


मृत्यु जीवन का अंत है। वृद्धावस्था जीवन ऊर्जा का अवसान है। क्या मृत्यु दुख देती है या नहीं देती? यह प्रश्न अनुत्तरित है। मृत्यु का अनुभव अज्ञात है लेकिन वृद्धावस्था के कष्ट सर्वविदित हैं| बुद्ध की कथा में भी वृद्ध दर्शन की अनुभूति है। ऋग्वेद में 100 शरद जीवन की स्तुति है। इस स्तुति में पश्येम शरदः शतं 100 वर्ष देखने की भी इच्छा है। दीनहीन न होने की भी स्तुति है। वृद्धावस्था में दृष्टि सहित अधिकांश इन्द्रियां काम नहीं करती। बुढ़ापे के कष्टों की ओर वैदिक समाज का ध्यान गहरा है| जीवन अमूल्य है। वृद्ध हमारे समाज का अनुभव समृद्ध भाग हैं। उनके जीवन को कष्टरहित बनाना समाज का कर्तव्य है। वृद्धों की सेवा उनके पुत्रों-पौत्रों का प्रथम वरीयता वाला दायित्व है। यह राष्ट्र राज्य का भी कर्तव्य है। राष्ट्र, राज्य सतर्क हैं। इस पर कानून भी है। लेकिन समाज इस समस्या पर सजग व सतर्क नहीं है |


भारतीय समाज जीवन संयुक्त परिवारों में विकसित हुआ है। ऐसे परिवारों के सुख-दुख साझे रहे हैं। वृद्ध अपने बड़े परिवारों में आनंदित रहते हैं। लेकिन अब संयुक्त परिवारों की परंपरा टूट गई है। सब एकाकी रहना चाहते हैं। वृद्ध अकेले हो रहे हैं। वे उपयोगी नहीं माने जातेवे अशक्त हैं। आधुनिक उपयोगितावाद के कारण वृद्धावस्था के शारीरिक कष्टों में अब मानसिक संताप भी जुड़ गए हैं। ज्यादातर वृद्ध मानसिक अवसाद में हैं। भारतीय समाज के लिए यह स्थिति त्रासद है। संवेदनाएं कुचालक हो रही हैं। 


जीवन समय बंधन में है। सभी प्राणी काल के भीतर है। मनुष्य भी। जन्म और शैशव ऊषाकाल है। बचपन संभावनाओं का बीज है। संभावना का बीज फूटता है। जीवन ऊर्जा से भरी-पूरी तरुणाई आती है। तरुणाई भी स्थिर नहीं है। सूर्य आए, सूर्य गए। काल का पहिया घूमा। 40-50 शरद पूर्णिमा आई, गईजीवन का संध्या काल आया। ऊर्जा घटी, शरीर टूटा। प्राचीन कवि बता गए हैं - शीर्यते इति शरीरं। जो शीर्ण होता रहता है, वह शरीर है। शरीर सतत् क्षरणशील है60 वर्ष के आसपास आ जाती है वृद्धावस्था। आयुर्वेद के महत्वपूर्ण ग्रंथ शारंगधर संहिता में मनुष्य शरीर के भाव क्षरण का सुंदर उल्लेख है। लिखा है कि प्रत्येक 10 वर्ष बाद भाव ह्वास के लाक्षणिक परिवर्तन आते हैं। जीवन के पहले 10 वर्ष में मनमौजी वाल्यावस्था का समापन होता है। फिर अगले 10 वर्ष में वृद्धि का समापन होता है। वृद्धि रुक जाती है। फिर अगले 10 वर्ष में कान्ति चेहरे की दीप्ति का समापन, फिर आगे के 10 वर्ष में धारणा का समापन होता है 5वें दशक में सौन्दर्य का समापन और छठे में दृष्टि का समापन बताया गया है।


बुढ़ापा अभिशाप नहीं है


वृद्धों के पास संसार के जीवन्त अनुभवों का कोष होता है। ऋग्वेद के एक मंत्र में सभी वरिष्ठों को नमस्कार किया गया है 'इदं नमः ऋषिम्यः, पूर्वजेम्यः पूवेम्यः पथिदृदम्यः 'ऋषियों को नमस्कार है, पूर्वजों को नमस्कार है, वरिष्ठों व मार्गदर्शकों को नमस्कार है। (10.14.15) वरिष्ठों का सम्मान प्राचीन वैदिक परंपरा हैएक मंत्र (10.15.2) में कहते हैं, इदं पितृत्यों नमो, अस्त्वद्य ये पूर्वासों। जो नहीं है और जो है, उन सबको नमस्कार है। ऋग्वेद की इसी परंपरा का प्रवाह महाभारत में है। कहा गया है कि वह सभा सभा नहीं है, जिसमें वृद्ध नहीं हैं। वे वृद्ध वास्तविक वृद्ध नहीं हैं, जो धर्मतत्व नहीं जानते। रामकथा वृद्धों के सम्मान से युक्त है। वृद्ध होना सौभाग्य है। शारीरिक शक्ति का विचार अर्थहीन है। अनुभव का कोष महत्वपूर्ण हैवृद्ध के पास दिशा होती है। युवक के पास गति और ऊर्जा। वृद्धों के दिशा दर्शन में ही युवकों की गति उपयोगी है |


गति उपयोगी है। माता-पिता भी ऐसे ही मार्गदर्शक संरक्षक होते हैं। हम सब उनका विस्तार हैंवे न होते तो हम न होतेऋग्वेद में पृथ्वी माता है, आकाश पिता है। इस उदाहरण में विराट पृथ्वी और अनंत आकाश की तुलना माता-पिता से की गई है। माता-पिता से हमारे अंतर्सम्बंध एकात्म है। वे जनक हैं। वे हमारा भविष्य संवारने में जुटे दो देव हैं। वे प्रतिपल प्यार और शुभाशंसा उड़ेलने वाले शक्ति केन्द्र हैं। उनका आदर और सम्मान हमारा न कर्तव्य है। माता-पिता के प्रति हमारा सम्मान होना चाहिए। ऋषि की इच्छा है कि हम पृथ्वी को मां जैसी और आकाश को पिता जैसी प्रतिष्ठा दें।


 वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले चिंतन और निष्कर्ष नि:संदेह सही होते हैं। लेकिन माता-पिता से हमारी आत्मीयता की व्याख्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही नहीं हो सकती। ऋग्वेद (10.22.3) में इन्द्र से कहते हैं 'जैसे पिता अपने पुत्र को संरक्षण देता है आप हमे वैसे ही संरक्षण दें - पिता पुत्रमिव प्रियम्' यहां पिता का संरक्षण सबसे बड़ा है। ऋषि की कामना है कि इन्द्र भी उसे पिता जैसा संरक्षण दें। हाथ पकड़े रहें। हम गिरें तो वे तत्काल उठा लें। एक अन्य  गिरें तो वे तत्काल उठा लें। एक अन्य मंत्र में इन्द्र से प्रार्थना है कि आप हमे पिता की तरह वुद्धि दें- प्रमतिपितेव। इन्द्र ज्ञानी हैं। यह समाज की मान्यता है। लेकिन पिता द्वारा दी गई बुद्धि की बात ही दूसरी है। ऋषि पिता की बुद्धि का श्रेय जानता है। यही यथार्थवादी जानता है। यही यथार्थवादी बोध है। देव सामाजिक मान्यता हैं। उनके होने या न होने पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं। ऐसे प्रश्न ऋग्वेद में भी हैं। लेकिन पिता यथार्थ हैं। प्रत्यक्ष संरक्षक व सुखदाता हैं। सोम से स्तुति है, हमें वैसे ही सुखी रखो, जैसे पिता पुत्र को सुखी रखता है। सुख कई तरह का होता है। प्रिय का मिलन सुख है। प्रकृति की अनुकूलता सुख है। इच्छा का पूरा होना भी सुख है लेकिन ऋषि पिता द्वारा दिए गए सुख से सराबोर हैं। माता-पिता बचपन में पोषण देते हैं, पढ़ाते हैं सिखाते हैं। वे स्वयं की चिन्ता नहीं करते। अपना भविष्य नहीं देखते। हम सबके सखद भविष्य का ताना-बाना बुनते हैं। हम तरुण होते हैं, पिता वृद्ध होते हैं। हम तरुणाई से और परिपक्व होते हैं, पिता और वृद्ध होते हैं। जब हम तेज गति जीवन की गतिशीलता में होते हैं, तब माता-पिता उठते ही गिर पड़ते हैं। वे बचपन में हमको गिरने से बचाते थे। ऋषि को स्मृति में ऐसे तमाम प्रसंग हैं। एक ऋषि अग्नि से स्तुति करते हैं, हमें वैसे ही उछालो जैसे हमारे पिता हमको उछालते थे। बचपन में माता-पिता हमको उछालते थे। हम उनकी गोद में गिरते थे। खिलखिलाते हंसते थे |प्रसन्न मन। क्या उन्हें हम उनकी वृद्धावस्था में अपनी गोद में बैठा सकते हैं?


 भारत आगे बढ़ रहा है। विकासशीलता से विकसित राष्ट्र होने जा रहा है। अधिकांश वृद्ध माता-पिता जीवन की सांझ में निराश हैं। पुत्र अपने काम में व्यस्त हैं। वे अकेले हैं। कुछेक को दवा, भोजन मिलता है। लेकिन प्रेम नहीं। नहीं। वे युवा पत्रों से वार्ता चाहते हैं। उन्हें वृद्धावस्था में संरक्षण की जरूरत है। लेकिन कमाऊ पुत्र डांट रहे हैं, वृद्ध व्यथित हैं| सरकारें वृद्धाश्रम बना रही हैं।


यह राष्ट्रव्यापी समस्या है। इसका उपचार प्राचीन संस्कृति और वैदिक सभ्यता है। भारत के अपने इतिहास में माता-पिता के आदर व श्रद्धा वाला संस्कारी समाज था। वैसा ही संस्कारी भविष्योन्मुखी समाज बनाने के लिए माता-पिता का संरक्षण पाना और वृद्धावस्था में उन्हें संरक्षण देना कोई बड़ा कोई बड़ा काम नहीं है। यह सांस्कृतिक प्रश्न है। सामाजिक प्रश्न है और पारिवारिक आनंद की प्राप्ति का मार्ग भी है।


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