कर्म गति को समझना कठिन है

 



जन्म और मृत्यु के पार


कर्म की गति को समझना बड़ा कठिन है |कर्म की गति बड़ी बारीक है। मनुष्य कर्म करके उसे भूल जाता है, पर कर्म छाया के समान उसका पीछा करता रहता है। वह कर्ता को कहीं भी खोज लेता है। जैसे हजार गौएं खड़ी हों, उनमें बछड़ा अपनी मां को खोज लेता है। वह अपनी मां का ही दूध पीता है। दूसरी गाय के नीचे जाएगा, तो गाय भी उसे लात मार देगी। वह प्रकति का नियम है। वैसे ही कर्म कर्ता को खोज लेता है और उसी को फल देना शुरू करता है। यदि कर्म अच्छा हुआ, तो उसका अच्छा फल मिलता है। और यदि कर्म बुरा हुआ तो उसका फल भी बुरा ही होता है फल भी बुरा ही वैसे कर्म जड़ हैं, किन्तु वह स्वचालित यंत्र के समान हो जाता है। कर्म अनन्त हैं, इन सभी कर्मों को हम दो हिस्सों में बांट लेते हैं, एक गांठ पाप की - है और एक पुण्य की है-


द्वे देह वै कर्मणि वेदितव्ये पापकस्य एको राशिः, पुण्यकृतोपहन्ति,


तदिच्छस्व कर्माणि सुकृतानि कर्तुमिहैव ते कर्म कवयो वेदयन्ते'


 अर्थात कर्म दो प्रकार के हैं, एक राशि पाप की और दूसरी पुण्य की। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं, एक दूसरे को दबाते हैं, पाप अधिक हुआ तो पुण्य को दबा देता है और पुण्य अधिक हुआ तो पाप को दबा देता है


इसलिए हे मानव! तू अच्छे से कर्म करने की इच्छा कर। तू सदा पुण्य कर्म कर, और यह मरने वाला लोक कर्म भूमि है, कर्म यहीं किया जाता है। स्वर्ग में तो पाप-पुण्य कर्म नहीं किए जाते, वहां तो केवल पुण्यों का फल भोगना होता है। और उन कर्मों का उपदेश तत्वद्रष्टा ऋषियों ने तुम्हारे लिए किया है। कहने का तात्पर्य कर्मो की दो गांठें हैंउन गांठों को यदि हम तराजू के पलड़े पर रख कर तौलने लगें तो जो गांठ भारी होगी, उसी तरफ का पलड़ा झुक जाएगा |यदि पुण्य की गांठ भारी हुई तो पुण्य का पलड़ा झुक जाएगा और यदि पाप की गांठ भारी हुई तो पाप का पलड़ा झुकेगा, इस प्रकार तराजू पर रख कर तौलने से पाप-पुण्य के पलड़े ऊपर-नीचे होते रहते हैं। अब प्रश्न है, कि पाप कर्म कौन है और पुण्य कर्म कौन है। अथवा अच्छा कर्म कौन है और बुरा कर्म कौन है। इसकी सरल सी पहचान है, कि जिस कर्म को करने से आत्म ग्लानि पैदा हो वह पाप कर्म या बुरा कर्म है और जिस कर्म के करने से मन में प्रसन्नता हो, मन खिल जाए, वह पुण्य कर्म है।


                               


पर यह परिभाषा भी संतोषजनक प्रतीत नहीं होती है, एक कसाई है, सैंकड़ों भेड़ों को मार कर उनकी खाल भी उतार डालता है, यह बहुत निन्दित कर्म है। अहिंसावादी के लिए महापाप है, किन्तु कसाई का मन प्रसन्न है, कि आज मिट्टी मांस का ज्यादा पैसा मिलेगा, जानवरों को मारना उसके लिए घास काटने के समान है।


अथवा अफ्रीकी लोग दुश्मन को मारने के लिए बन्दूक से निशाने का अभ्यास करते हैं, किसी आदमी के सिर पर अंडा रखकर निशाना साधते हैं, अंडा फूट जाए, निशाना सही बैठ जाए, तो बड़े प्रसन्न होते हैं, कर्म बहुत खतरनाक और प्राणलेवा हैं, किन्तु वे बड़े प्रसन्न होते हैं कि हमारा सिपहसलार कितना निशानेबाज है। तो कैसे समझें कि कौन कर्म पाप है या कौन कर्म पुण्य हैं?


इसके लिए शास्त्रकारों का कहना है कि पाप-पुण्य का नियम उन लोगों के लिए है, जो आत्मा-परमात्मा, ईधवर धर्म आदि पर विश्वास रखते हैं। जिनके पास समझ है, जिन लोगों को इसका ज्ञान ही नहीं कि धर्म क्या है या अधर्म क्या है? उनका जीवन तो जानवरों के समान है। वे सब तो प्राकृतिक जीवन बिताते हैं | वे नहीं जानते कि पाप क्या होता है और पुण्य क्या है, स्वर्ग क्या होता है और नरक क्या होता है? पाप पुण्य की व्यवस्था तो ज्ञानवान पुरूषों के लिए है|


मरने के बाद मनुष्य भोगने के लिए नया काम चलाऊ शरीर प्राप्त करता है। वह शरीर सूक्ष्म आकृति लेकर अभिव्यक्त होता है। काटने-पीटने पर वह न तो खंड-खंड होता है, और न ही मरता है।



पाप कर्म कौन है और पुण्य कर्म कौन है। अथवा अच्छा कर्म कौन है और बुरा कर्म कौन है। इसकी सरल सी पहचान है, कि जिस कर्म को करने से आत्म ग्लानि पैदा हो और जिस कर्म के करने से मन में प्रसन्नता हो, मन खिल जाए, वह पुण्य कर्म है।



वह शरीर केवल पापों का फल भोगने के लिए होता है। मरने से पहले यदि पापों का प्रायश्चित नहीं किया, तो अवश्य ही प्राणी को नरक की आग में जलना पड़ता है। अतः संसार से विदा होने से पहले प्रायश्चित कर लेना चाहिए। अन्यथा करोड़ों कल्पों में भी बिना भोगे हुए पापों का नाश नहीं हो सकता। जो मन, वचन और शरीर के द्वारा स्वयं पाप करता है, दूसरों से कराता है, तथा किसी के दुष्कर्म का अनुमोदन करता है, उसके लिए नरक ही गति है।


मानसिक पाप कर्म


अतः जो पाप पूर्ण कर्म हैं, जिनके कारण मनुष्य नरक के अधिकारी होते हैं, उनका संक्षेप में परिचय दिया जाता है- दूसरे की स्त्री को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला और पराए धन को हड़पने का संकल्प करने वाला, जो अपने मन में सदा दूसरों का अनिष्ट चिंतन ही करता रहता है, तथा न करने योग्य विपरीत कर्मों में प्रवृत्त होने का दुराग्रह, ये चार प्रकार के मानसिक कर्म हैं, ऐसे कर्म का यदि संकल्प भी कर ले तो उनका फल अवश्य मिलता है। वह मानव योनि से नीचे गिरता है|


वाचिक पाप कर्म


व्यर्थ की बकवास- ऐसी बातें जिनका कोई सिर पैर नहीं है। असत्य भाषण, कानों को कड़वी लगने वाली वाणी बोलना, सामने प्रशंसा और पीठ के पीछे निन्दा चुगली करते रहना, ये चार वाचिक- वाणी के द्वारा किए जाने वाले पाप कर्म हैं।


शारीरिक पाप कर्म


अभक्ष्य-भक्षण-न खाने योग्य वस्तु को खाना, प्राणियों की हिंसा करना, व्यर्थ के कामों में अपनी जीवनी शक्ति को नष्ट करना, दूसरे के धन पर आंख लगाए रखना, और उसे छीनने का प्रयत्न करना, ये चार प्रकार के शारीरिक कर्म हैं। 


इस प्रकार के ये बारह पाप कर्म बताए गए हैं। जो मन, वाणी और शरीर तीनों साधनों के द्वारा सम्पन्न होते हैं। साथ ही जो व्यक्ति धर्म को नहीं मानते हैं, ईश्वर पर विश्वास नहीं रखते हैं, वे सब नरकों के सागर में गिरते हैं, क्योंकि धर्म का आचरण और ईश्वर का भजन ही नरकों से रक्षा करता है। पापी इनका आश्रय ही नहीं लेते। इसलिए वे निम्नस्तर की धारा में बह जाते हैं। जो शिव तत्व को कैसे प्राप्त करना है, इस मार्ग का उपदेश देने वाले शैव की, विष्णु प्राप्ति का मार्ग बताने वाले वैष्णव की तथा श्रीकृष्ण की लीलाओं का उच्चारण करने वाले धर्मात्मा पुरूषों की खिल्ली उड़ाते हैं, वे अवश्य नरक में गिरते हैं। जो तप का आचरण करने वाले तपस्वी की, जिनसे तारक मंत्र लिया है, ऐसे गुरूजनों की और जिन्होंने पाल-पोष कर बड़ा किया है, ऐसे माता-पिता, ताऊ-चाचा आदि की निन्दा करता है, वह नरक में गिरता है। ब्राह्मण की हत्या करने वाला, शराब पीने वाला, स्वर्ण को चुराने वाला, गुरूपत्नी से सहवास करने वाला और इन चारों से संपर्क रखने वाला- पांचवी श्रेणी का पापी- ये सबके सब महापातकी कहे जाते हैं। इन सबको नरक में जाना होता है।


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