नारी धर्म
प्रज्ञा ग्रन्थमाला
(भाग १)
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः शास्त्र के इस वचन के अनुसार स्त्री-धर्म की रक्षा से ही भारतवर्ष देवताओं का निवास स्थान बना था। देवताओं को अमरलोक से मृत्युलोक में अवतरण के लिए एक नारी धर्म ही समर्थ है।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।
संकरोनरकायैव कुलध्नानां कुलध्नानां कुलस्य च॥
अर्थात- स्त्रियों के दूषित-धर्मभ्रष्ट हो जाने पर वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है, वर्णसंकर संतान कुलघाती पुरूषों को तथा अपने कुल को भी नरक में ले जाने वाली होती है। इस भगवद् वचन के अनुसार सब तरफ से नुकसान ही नुकसान होगा। इसलिए नारी धर्म की रक्षा आवश्यक है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|
यतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥
भावार्थ- जिस कल में स्त्रियों का समादर है वहां देवता प्रसन्न रहते हैं और जहां ऐसा नहीं है, उस परिवार न में समस्त (यज्ञादि) क्रियाएं व्यर्थ होती हैं\
हिन्दू संस्कृति में नारी के प्रति यह कोरी शाब्दिक सद्भावना का प्रदर्शन नहीं है, भारतीय गृहस्थ जीवन में इसकी व्यवहारिक सार्थकता सिद्ध है। भौतिकवादी पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगे लोगों को हो सकता है, यह सत्य गले न उतरे, कोई तथ्य दिखाई न दे लेकिन जो नारी सम्मान के महत्व को समझते हैं, जानते हैं वे हिन्दू जीवन में नारी-मर्यादा सुरक्षित रखने का विशेष ध्यान रखते हैं और ऐसा कोई कार्य नहीं करते जिससे नारी के सम्मान को ठेस लगे या प्रतिष्ठा पर आंच आये। वैसे भी नारी के प्रति शास्त्र का स्पष्ट आदेश है|
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति॥
बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं| स्त्री को कभी इनसे पृथक स्वतंत्र रहने का विधान नहीं है।
इस बात से तो कोई इंकार नहीं कर सकता या इस बात में तो कोई विवाद है ही नहीं कि विश्व-ब्रह्मांड किसी शक्ति, किसी नियम-कानून के द्वारा संचालित-परिचालित है। प्रकृति में होने वाली छोटी से छोटी हलचल, बड़ी से बड़ी घटना सब कुछ एक नियम के अधीन हैं। संसार में कोई भी क्रिया नियम के बाहर नहीं है, हो ही नहीं सकती हैं। इसी नियम को शास्त्र ने 'धर्म' कहा है और इस नियम का पालन करने-कराने वाली शक्ति का नाम 'ईश्वर' है।
लेकिन आजकल इस शास्त्रादेश को तोड़ा जा रहा है और नारी स्वतंत्र रहना चाह रही है, रह रही है, इससे उसके जीवन में अनेकों संकट उपस्थित हो रहे हैं। और समाज में भी विसंगतियां पैदा हो रही हैं। नारी भी इस बात को समझती है कि जीवन रूपी दो पहियों की गाड़ी का यदि एक पहिया वह स्वयं है तो दूसरा पहिया पुरूष है और यह भी कि एक पहिये से दो पहिये वाली गाड़ी का चल पाना कठिन नहीं असंभव है|यह सब जानने के बाद भी उसकी स्वतंत्र रहने की चाह दुराग्रह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। आज की भारतीय नारी जिसे शील, विनय, संकोच, लज्जा एवं सौम्यता की मूर्ति माना जाता रहा है, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से बहकने लगी है, उसे पुरूषों की गुलामी पसन्द नहीं- अब वे सीता-सावित्री नहीं बनना चाहती और ऋषि-मुनियों को भी कोसते हुए यह कहने में नहीं हिचकती कि उन्होंने पुरूषों के अधीन, पुरूषों की दासता में, पुरूषों के परतन्त्र बनाकर उनके साथ घोर अन्याय किया है। बड़ी विचित्र स्थिति है क्योंकि सनातन नारी धर्म और वर्तमान नारी धर्म में जमीन आसमान का अन्तर साफतौर पर दिखाई पड़ने लगा है। धर्म का अर्थ धारण करने वाला है, एक अर्थ यह भी कि जिसके द्वारा यह सब कुछ धारण किया हुआ है। इस बात से तो कोई इंकार नहीं कर सकता या इस बात में तो कोई विवाद है ही नहीं कि विश्व-ब्रह्मांड किसी शक्ति, किसी नियम-कानून के द्वारा संचालित-परिचालित है। प्रकृति में होने वाली छोटी से छोटी हलचल, बड़ी से बड़ी घटना सब कुछ एक नियम के अधीन हैं। संसार में कोई भी क्रिया नियम के बाहर नहीं है, हो ही नहीं सकती हैं। इसी नियम को शास्त्र ने 'धर्म' कहा है और इस नियम का पालन करने-कराने वाली शक्ति का नाम 'ईश्वर' है। इस नियम जानने वाले, प्रत्यक्ष देखने वाले पुरूषों को ऋषि कहा गया है। सनातन नियम जिन ग्रन्थों में संग्रहित है उन्हें 'शास्त्र' कहा गया है। सबसे शास्त्रसम्मत और सर्वमान्य व्याख्या शास्त्र की यही हैधर्म ही विश्व के अभ्युदय और निःश्रेयस का एकमात्र साधन है, धर्म से ही मानव समाज का वास्तविक कल्याण संभव है। धर्म ही है जिससे संसार में सुख शान्ति समृद्धि के वातावरण का निर्माण व विस्तार संभव है। धर्म का ज्ञान शास्त्रों के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है|
इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि धर्माधारित सिद्धान्त सर्वथा सत्य एवं सत्य के आधार पर स्थिर किए हुए हैं और इन्हें मानकर इनके अनुसार चलने से सबका कल्याण हो सकता है | शेष भाग २ में
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