श्रीमद्भागवत महापुराण में ध्यान विधि
ध्यान
(भाग १ )
भक्त को भगवान के सान्निध्य में पहुंचने या भगवान को प्राप्त करने के लिए जो उपाय बतलाये गये हैं, उनमें 'ध्यान विधि' सर्वोपरि है | श्रीमद्भागवत महापुराण में चार स्थलों पर ध्यान विधि का वर्णन है | श्रीमद्भागवत महापुराण भक्ति पक्ष का सर्वोपरि ग्रंथ है| अनेकानेक धर्मों में 'ईश्वर' की आराधना के विविध प्रकार हैं। 'सनातनी' हिन्दू जनता अपनी अभीष्ट देवों की षोडशोपचार विधि से पूजा करती है, अर्चना करती है, जो मूर्ति पूजा परम्परा का एक वैज्ञानिक आधार है। साधारण जन या अबोध बालक निर्गुण, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, परब्रह्म परमात्मा का ध्यान सरलता से नहीं कर सकते। असमंजस में पड़ जाते हैं, पड़ सकते हैं। उनका सरल हृदय, अविकसित विचार, निर्गुण ब्रह्म को समझने में असमर्थ हो जाता है। मूर्ति पूजा सर्वसाधारण को भगवान या अभीष्ट देव की रूपरेखा समझाने में सरल मार्ग बन जाती है। लक्ष्य तक पहुंचाने की वह सीधी पगडंडी है। घोर अंधकार में ढूंढने के लिए टिमटिमाता प्रकाश है| इसी पद्धति से मीरा ने अपने सांवरिया को पाया| सूरदास जी ने बाल-कृष्ण को अपनाया | संत तुलसीदास जी ने धनुष बाण लिए श्री राम का दर्शन किया।
मूर्ति पूजा में भी 'साधना' की अपेक्षा होती है। 'तन्मयता' का आधार लेकर बढ़ना होता है। यदि तन्मयता नहीं तो कुछ हाथ नहीं लग सकता। दुष्ट और चंचल मन यहां भी तर्कों और कुतर्को में फंसता उलझता चला जाता है। मूर्ति पूजा करते समय यह मन पुत्र, पौत्र, कलत्र में ध्यान लगा देता है। मन स्थिर नहीं हो पाता। मन को वायु के वेग के समान चंचल कहा गया है। यह सब होते हुए भी साधक पूजा, अर्चन विधि को अपनाकर चलता रहता है। एक जन्म में न सही, अनेक जन्मों में ही सही, कभी तो गंतव्य स्थान मिल ही जाएगा
'अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।'
महर्षि व्यास जी ने पूजन तथा अर्चन विधि को कर्मकांड ही माना है। महर्षि व्यास जी ने ध्यान-धारणा द्वारा भगवनचिन्तन को सर्वोपरि माना है| ध्यान-विधि का सहारा लेकर भक्त अपने भगवान को पाने में निश्चित सफलता प्राप्त कर सकता है। यद्यपि मन तो यहां भी बाधक बनता है, किन्तु चंचल मन को वश में करने के लिए उपाय बतलाये गये हैं।
ध्यान विधि
ध्यान विधि में अधिक आडम्बर की आवश्यकता नहीं है। शुद्ध वस्त्र पहनकर समतल आसन पर बैठ जाइये। कुशासन या कम्बलासन पर बैठकर 'पद्मासन' लगा लेंअपनी दोनों हथेलियां गोदी में रखें या घुटनों पर। बिल्कुल सीधे बैठना चाहिए| दक्षिण दिशा को छोड़कर किसी भी दिशा में मुख करके बैठना ठीक है। यदि सूर्यदेव की ओर मुख करके बैठिये तो अति उत्तम है। नेत्रों को अर्धनिमीलित करें। अर्थात आधा मूंद लें दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर जमा दें। पहले यही अभ्यास करें चंचल मन को नियंत्रण में रखने के लिए 'नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र का जप करते रहना चाहिए। कुछ ही दिनों के अभ्यास से नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमने लगेगी। अब क्रमशः परब्रह्म परमात्मा के सगुण रूप भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप का ध्यान करने के लिए 'धारणा' का सहारा लीजियेधारणा का सहारा ही सिद्धि दिलाता है। विष्णु भगवान के चरण कमल का ध्यान करने के पूर्व उन चरणों का कमल के अष्टदल पर ध्यान कीजिये। भगवान के तलवे कमल के पुष्प के समान लाल रंग के हैं। ऊपर के भाग तीसी के फूल या नील कमल के समान नील वर्ण के हैं। उनका सारा शरीर ही नीले कमल के समान हैचरणों के बाद क्रमशः घुटने, कटि, वक्ष स्थल, गर्दन और अन्त में प्रसन्न बदन अर्थात मुस्कुराते हुए मुख कमल का ध्यान करें। मस्तक के ऊपर अनेकों रत्नों से जटित मुकुट, पैरों में पैजनी, कमर में करधनी, बाहों में बिजायठ, वक्ष स्थल के मध्य में कौस्तुभमणि, सारे शरीर पर पीला रेशमी वस्त्र और चारों हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा एवं पद्म हैं। आजकल के चित्रकार भगवान विष्णु के कई प्रकार के चित्र बनाते हैं, पर श्रीमद्भगवत पुराण में कमल के ऊपर ही भगवान को विराजमान बताया गया है। ध्यान का नित्य अभ्यास कीजिये। दिन में प्रातः काल, दोपहर और सायंकाल- तीन बार अभ्यास करना चाहिए। शनैः-शनैः सफलता मिलने लगेगी। श्रीमद्भागवत में चार स्थलों पर ध्यान की विधि समझाने का जो प्रयास किया गया है, उससे यह स्पष्ट है कि विधि-पूर्वक ध्यान करने से भगवान को समझा और पाया जा सकता है।
दक्षिण दिशा को छोड़कर किसी भी दिशा में मुख करके बैठना ठीक है। यदि सूर्यदेव की ओर मुख करके बैठिये तो अति उत्तम है। नेत्रों को अर्धनिमीलित करें। अर्थात आधा मूंद लें दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर जमा दें।
श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध में लिखा है कि भगवान के चारों हाथों में क्रमश:- शंख, चक्र, गदा और कमल है। उनके मुख मंडल पर प्रसन्नता विराजमान है। मन्द-मन्द मुस्काते हुए वे अपने भक्त के ऊपर आनन्द की वर्षा कर रहे हैं। उनके नेत्र कमल के समान सतनारे हैं। कदम्ब के फूल के समान पीला पीताम्बर है। भुजाओं में अनेकों रत्नों से जटित बिजायठ है। सिर पर अति सुन्दर मुकुट है। कानों में कुंडल लटक रहे हैं। भगवान के दोनों चरण कमल की विकसित कर्णिका पर ध्यान दें |
यदि सूर्यदेव की ओर मुख करके बैठिये तो अति उत्तम है। नेत्रों को अर्धनिमीलित करें। अर्थात आधा मूंद लें। दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर जमा दें। पहले यही अभ्यास करें। चंचल मन को नियंत्रण में रखने के लिए 'नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र का जप करते रहना चाहिए।
कुछ ही दिनों के अभ्यास से नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमने लगेगी। कंठ में कौस्तुभमणि और हृदय में श्रीवत्स चिन्ह है। वक्ष स्थल पर कभी न कुम्हलाने वाली वनमाला है। कमर में सुन्दर करधनी और अंगुलियों में जड़ाऊ अंगूठियां हैं। हाथों में कंगन और चरणों में नुपुर है| सिर के बालों की सुन्दर लटें लटक रही हैं। मुखकमल मन्द-मन्द मुस्कान से खिल रहा है। इस प्रकार के प्रभु अपने उन्मुक्त हास और अनोखी चितवन से अपने भक्तजनों के ऊपर अनुग्रह की वर्षा कर रहे हैं(श्रीमद् 2/2/8-11)
इस प्रकार की 'धारणा' द्वारा भगवान के ध्यान का अभ्यास करना चाहिए| महर्षि व्यासजी ने स्पष्ट कर दिया कि भगवान के रूप का ध्यान पहले चरण कमलों से क्रमशः प्रारम्भ करके सिर तक का करना चाहिए।
शेष भाग २ में