भारत का अमरकाव्य 'मानस'

मानस कथा



वाल्मीकि रामायण यदि देववाणी की पवित्रता से अभिषिक्त प्राचीन भारत का कैलास शिखर है तो महा-कवि तुलसीदास जी का 'रामचरितमानस' मानस-सरोवर।


वह कवि की भक्ति-चेतना और काव्य-प्रतिभा का अनूठा समन्वय है। काव्य-प्रेमी उसे महाकाव्य का द्वार समझकर काव्य के रसास्वादनहेतु और भक्तिलुब्ध अपनी श्रद्धा और विश्वास को अटल बनाकर भगवच्चरणों के अनन्य प्रेम की प्राप्ति के लिए रोमाञ्चित होते हुए मानस के भव्य सरोवर में प्रविष्ट होते हैंइसके गर्भ में छिपे हुए मोतियों की ज्योति से न जाने कितने हृदय देदीप्यमान हो गए हैंइसकी उद्वेलित वीचियों में कितने ही हंस, बक, काक आदि अच्छे और बुरे सभी तरह के जीव डुबकियाँ लगाते रहते हैं। जो भले हैं, उनमें सात्त्विकता का विकास होता है और जो बुरे हैं, उनके बाह्य और आभ्यान्तर, दोनों मलिनता के हट जाने से स्वच्छ हो जाते हैं| बक और काक क्रमशः हंस और पिक  हो जाते हैं| विवेकपूर्ण रामचरित मानस का गान करने वाले ही इस जलाशय के चतुर संरक्षक हैं, जिनमें श्रद्धा, सत्संग और श्रीराम में प्रीति नहीं है, उनके लिए यह अगम्य है। इसमें अवगाहन करने वाले मानव संसार- सूर्य की प्रचण्ड किरणों में पड़कर भी दग्ध नहीं होते| मानस भारत की श्रेष्ठ साहित्यिक, धार्मिक और आध्यात्मिक परम्पराओं का उत्कृष्ट प्रमाण है। यदि रामकथा भारतीय-संस्कृति और मानवीय इतिहास की अमर कथा है तो रामचरितमानस राम की तरह ही काव्य के समस्त गुणों का पुञ्जीभूत रूप है। वह हिन्दी भाषा की क्षमता, सौन्दर्य एवं अथाह गौरव की निधि है|


वह राम और सीता के यशोमयी सुधासलिल से परिपूर्ण राष्ट्रीय-चेतना का जैसे सूर्य, इस देश का राष्ट्रीय ग्रन्थ और विश्व साहित्य का अमर काव्य हैसे अशोक, अकबर आदि तो जनता के लिए केवल अतीत की कहानी के बादशाह मात्र बने, पर रामचरितमानस पीढ़ियों से हमारे हृदय में सामाजिक-बोध, विचार और हमारी अनुभूतियों को जीवन्त बनाये रखकर जीवन में नयी प्राणवत्ता का सृजन करने में निरन्तर संलग्न है|


                               


जैसे मनुष्य में एक अमरतत्व आत्मा रहता है, वैसे ही किसी भी जाति की आत्मा संस्कृति होती है। मानस ने अपनी शक्तिमत्ता, सरलता, श्रेष्ठता और व्यापकता द्वारा पूर्ण बल से इस देश की संस्कृति और समाज की आत्मा को जीवित रखने में सच्चे संविधान के रूप में महान् योगदान किया है। और, वह भी ऐसे काल में, जब इस संस्कृति के जीवन-मरण का संघर्ष एक क्रूर आक्रान्त विदेशी संस्कृति से चल रहा था। महान् कवित और कलाकार युग का प्रतिनिधित्व करते हुए युग का निर्माण करता है। इस देश की जनता को निर्ममता और क्रूरता से अपने दमन चक्र के नीचे पीसने वाले इस धरती को छोड़कर चले गये।


उनके दुःशासन का भारत धरा से अन्त हो गया, किंतु मानस का सांस्कृतिक रामराज्य आज भी भारतीय जनक के हृदय-सिंहासन पर प्रतिष्ठित है। तुलसीदास जी ने जितनी गहराई से चिन्तन किया, उतने ही श्रेष्ठ तत्व मानस की थाली में भरकर संसार को भी लुटाये| साधारण जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्य तो चारों ओर भरे पड़े हैं, केवल बातों में बड़े-बड़े आदर्शों की बात करने वाले लोगों की भी कमी नहीं है, पर सत्यसंघ दृढव्रत और चरित्रवान् मनुष्य कहाँ है?


चरित्र सम्पन्न लोगों के बिना यह सारी पृथ्वी दुर्भाग्यपूर्ण और दुःखद घटनाओं से भर जाती है। उस पर भी समाज के नेता, श्रेष्ठ और अग्रणी कहे जाने वाले लोग, जिनका आचरण देखकर समाज के करोड़ों लोग अपने जीवन की रचना करते हैं, जब वे ही भटक जाएं तो समाज में चरित्र और अनुशासन की रक्षा कैसे हो सकती है? चरित्रवान् व्यक्ति को ढूँढने के प्रयत्न में ही रामायण का जन्म हुआ। 'व्यक्ति' माने 'व्यनक्ति इति व्यक्तिः', जो श्रेष्ठ और व्यापक तत्व को प्रकट करे, व्यक्त करे, प्रकाशित करे, वही सच्चे अर्थ में व्यक्ति कहे जाने योग्य है।


अच्छे वातावरण में और अच्छे काम करने वालों के बीच में रहते हुए हम कभी-कभी ऊँचे स्तर पर पहँच जाते हैं; किंतु दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे क्षण सदा नहीं रहतेऐसी परिस्थितियाँ बहुत ही कम आती हैं जिनके कारण हम सदा ऊँचे स्तर पर रह सकें। हमारे जीवन में प्रायः ऐसी दुर्भावनाएँ और प्रेरणाएँ आ जाती हैं, जो हमें नीचे स्तर पर खींच ले जाती हैं। ऐसे प्रलोभन उन लोगों के भी सामने आ जाते हैं, जिन्होंने अपना जीवन त्यागपूर्ण और तपस्यामय बनाया है। मनष्य के भीतर क्षमा भी है, क्रोध भी है, धर्म भी है, अधर्म भी है, सत्य भी है, असत्य भी है, उसके जीवन में सुख भी है, दुःख भी है, जय भी है, पराजय भी है, मान भी है, अपमान भी है। एक ही जगह पर कई द्वन्द्व रहते हैं। धीर पुरुष वही है, जो इन सभी स्थितियों में अविचलित, अकम्प और सन्तुलित रहकर अपने जीवन-मार्ग पर आगे बढ़ता रहता है, नीचे नहीं उतरता।



अच्छे वातावरण में और अच्छे काम करने वालों के बीच में रहते हुए हम कभी-कभी ऊँचे स्तर पर पहुँच जाते हैं; किंतु दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे क्षण सदा नहीं रहते। ऐसी परिस्थितियाँ बहुत ही कम आती हैं, जिनके कारण हम सदा ऊँचे स्तर पर रह सकें।



श्रीराम में सदा ही ऊँचे स्तर पर रहने की भावना है। वे कभी उस स्तर से या अपने श्रेष्ठ आचरण से नीचे नहीं उतरते। जब श्रीराम के हाथों में सम्राट के रूप में शासन की बागडोर नहीं थी और न किसी को देने के लिए धन-सम्पदा उनके अधिकार में थी, तब भी वे उस युवाकाल में ही कीर्ति के अत्युच्च शिखर पर पहुँच गये थे। बड़ा या छोटा, शासक या साधारण प्रजा, ऋषि-मुनि या महान् योद्धा, जो भी उनके सम्पर्क में आया, वह श्रद्धा से उनके सामने नत-मस्तक होता रहा। कोई उनका विरोध नहीं कर सकता था। वह कितना महान् होगा, जो बिना किसी प्रतिवाद के इस अनुपम उच्चतातक पहुँच जाए! ऐसा होना असम्भव था, यदि श्रीराम सत्य के महान् रक्षक और धर्म के अवतार न होते। समय-समय पर भयंकर विपत्तियों ने उनको घेरा, दूसरे लोगों ने उनको सांसारिक व्यवहार के अनुरूप सलाह दी, उन्हें नीचे स्तर पर लाने का प्रयत्न किया, किंतु उन्होंने सदा ही ऊँचे चरित्र का उदाहरण रखते हुए सबको आश्चर्यचकित कर दिया|


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