संस्कार

                      परिवार सुखी कैसे हो? 


           


यह आवश्यक नहीं कि सभी प्रकार से ऐश्वर्य सम्पन्न परिवार सुखी ही हों, क्योंकि धनिक परिवार तो बहुतेरे हैं, पर सुखी सब कहां हैं?


कारण यह है कि ऐश्वर्य तथा सुख का कार्य-कारण का संबंध नहीं है। भौतिकता का महत्व शरीर के भौतिक होने के कारण ही है। शरीर को बनाये रखने के लिए भौतिक नियमों को मानना ही होगा, जिससे शरीर से धर्म साधना की जा सके। और परिवार वास्तविक अर्थ में सुखी बन सके। किन्तु केवल शरीर को बनाए रखने मात्र के लिए ही भौतिकता में लिप्त रहना युक्तियुक्त नहीं। बिना धर्म-साधना के शरीर को धारण करना तो एक प्रकार से जन्म को निरर्थक करना होगा। देखने के लिए आंख का होना आवश्यक है। भौतिक वस्तुओं के दर्शन के लिए आंखों का निर्विवाद महत्व है, पर क्या भी जरूरी है कि प्रत्येक आंखवाला अच्छा देखे पर क्या आज सभी आंखवाले अच्छा ही देख रहे हैं। वस्तुतः अच्छा देखने के लिए सुसंस्कार, सद्बुद्धि एवं सद्वातावरण को प्राप्त करना होगा। कर्म करने के लिए भौतिकता आवश्यक है, पर सत्कर्म करने के लिए अध्यात्म की ओर जाना होगा; क्योंकि यही सत्-चित् और आनन्द का मार्ग है। 


आज परिवार को सीमित रखने की जो बात कही जाती है, वह परिवार के भौतिक आकार को परिवार तथा समाज दोनों की सामर्थ्य के अनुरूप ढालने के लिए कही जाती है। " कहीं ऐसा न हो जाये कि कहीं ऐसा न हो जाये कि परिवार तथा समाज दोनों की सामर्थ्य के अनुरूप ढालने के लिए कही जाती है। कहीं ऐसा न हो जाये कि परिवार का असीमित आकार परिवारिक तथा सामाजिक सामर्थ्य को पंगु बनाकर उसको सुख के मार्ग पर चलने से अवरूद्ध कर दे। एक समर्थ परिवार को भी अपने आकार को सीमित रखना हैक्योंकि वह बृहत् समाज की एक महत्वपूर्ण ईकाई हैतथा उसे अपनी अतिरिक्त सामर्थ्य से समाज के समर्थहीन परिवारों को उठाकर स्वयं समाज को प्रगति पर आरूढ़ करना है।


सत्कार्य में लगा सीमित परिवार आवश्यक नहीं कि सुखी हो; क्योंकि सुख का महत्वपूर्ण कारण कर्त्तव्यहीन रहना हैसत्कार्य और कर्तव्य में अन्तर है। स्वजनों को मारना अर्जुन के लिए सत्कार्य नहीं था, पर कर्त्तव्य अवश्य था जिसे कृष्ण ने बताया और जो गीता का रहस्य हैपूजा करना सत्कार्य है, पर पूजा के लिए अन्य गृहस्थ कार्यों को त्यागना कर्त्तव्य नहीं। सुख कर्त्तव्य पालन में हैं। पूजा में सुख उतना ही है, जितना पूजा कर्त्तव्य है। यदि पूजा कर्त्तव्य नहीं तो पूजा सुख का कारण नहीं हो सकती। परिवार के प्रत्येक सदस्य जहां भी हों, अपने-अपने स्थान पर कर्त्तव्य करते हुए ही परिवार को सुख-संतोष दे सकते हैं। अंग्रेजी में कहावत है- 'कर्त्तव्य ही ईश्वरीय पूजा है।'


कर्त्तव्य क्या है? यह जानना सामान्यतया कठिन है; क्योंकि वह समय और स्थान के साथ बदलता रहता है। जो आज कर्त्तव्य है, वह कल नहीं रहेगाइसी तरह जो काम एक व्यक्ति के लिए कर्त्तव्य हैं, वही दूसरे के लिए भी हो, यह आवश्यक नहीं। कर्तव्य करने से ज्यादा कर्त्तव्यबोध दुष्कर है। अर्जुन को जब कर्त्तव्य बोध हो गया तो कर्तव्य करना उसके लिए उतना कठिन नहीं रहा। चूंकि कर्त्तव्य बदलते रहते हैं, अतः कर्त्तव्य बोध एक प्रक्रिया है। बोध होता रहना चाहिए, ज्ञान होता रहना चाहिये। यदि कोई कहता है कि मुझे ज्ञान हो गया और मैं पंडित हो गया तो समझिये कि उसे एक प्रकार से अज्ञान ही हो गया; क्योंकि ज्ञान का होना एक प्रक्रिया है। एक अकेला कर्म नहीं। पंडित वहीं हैं, जो आजन्म विद्यार्थी बना रहता है। विद्यार्थी बने रहने में ही पाण्डित्य का अस्तित्व है। परिवार का प्रत्येक सदस्य समय और स्थानानुसार कर्त्तव्य बोध करते हुए कर्मलीन रहकर अपने परिवार को सुखी रख सकता है|



पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही परिवार जी पाते हैं, जो उत्तरोत्तर प्रगति के लिए यथेष्ट धन, स्वास्थ्य एवं विद्या-संचयन करते हैं। आलसी, अहंकारी तथा मूर्खजनों से युक्त परिवार दीमक लगे पेड़ के समान है; अतः ऐसे परिवार समय के गर्त में गिर जायेंगे। जो परिवार मिट गये, वे भविष्यद्रष्टा नहीं थे, पुरूषार्थी नहीं थे।



सुखी परिवार का एक और महत्वपूर्ण गुण है, उसका भविष्यद्रष्टा होना। पीढी-दर-पीढी वही परिवार जी पाते हैं, जो उत्तरोत्तर प्रगति के लिए यथेष्ट धन, स्वास्थ्य एवं विद्या-संचयन करते हैंआलसी, अहंकारी तथा मूर्खजनों से युक्त परिवार दीमक लगे पेड के समान हैअतः ऐसे परिवार समय के गर्त में गिर जायेंगे। जो परिवार मिट गये, वे भविष्यद्रष्टा नहीं थे, पुरूषार्थी नहीं थे। और, जो परिवार बन गये, उन्होंने भविष्य के लिए धन, स्वास्थ्य तथा विद्या का संचयन किया था, ताकि समस्याओं का समाधान हो और वे प्रगत्युन्मुख हो सकें। 


सूफी एवं संत कवियों ने- जायसी, मंझन और कबीरदास, रैदास, मीरा आदि ने- प्रेम की महिमा का बखान किया। कबीर ने तो यहां तक कह दिया कि 'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय' क्योंकि केवल ज्ञान अहंकार लाता है। ज्ञान के साथ नम्रता आवश्यक है- नम्रता यानी पेड़। पेड़ फल से सदा झुक जाते हैं; अतः ज्ञानवान को भी झुकना चाहिए। इतना झुक जाये कि अज्ञानी बौने उसके ज्ञानरूपी फलों का रसास्वादन कर सकें। ज्ञान कर्तव्य बोध कराता है तो प्रेम कर्त्तव्य करने की भावनाओं को बल देता है। हम सभी जानते हैं कि अमुक व्यक्ति कोढ़ी है, पर कोढ़ी के घावों को जो भरे, वह प्रेमी है। महाप्रभु चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ प्रभुति महात्मा प्रेम और ज्ञान के प्रतीक थे|


 राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने क्या ही सुन्दर कहा है कि -


उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती।


उसी उदार से धरा कुतार्थ भाव मानती॥


उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती।


तथा उसी उदार के समस्त सृष्टि पूजती॥


अखंड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे।


वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥ 


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