सत्संगः एक कला
प्रसंग
सत्संग सुनना भी एक कला है। इस कला में पारंगत होने से मनुष्य विद्वान हो जाता है। ग्रंथ पढ़ने से कोई विद्यान नहीं बन सकता। उसे पढ़ने से तो केवल उसी विषय का ज्ञान होता है। सत्संग से पारमार्थिक तथा व्यवहारिक सब तरह का ज्ञान होता है। सत्संग से मनुष्य कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग तीनों में पारंगत हो जाता है। सत्संग में विषयों की विविधता होती है। प्रत्येक कार्य को मन लगाकर करने से सत्संग में भी मन लग सकता है। कई वर्ष तक एक कार्य करने पर भी मनुष्य उस कार्य में पारंगत नहीं होता। मन से भगवान का नाम लेने से एकाग्रता आती है| एक व्यक्ति ने किसी महात्मा से एक प्रश्न किया। उस व्यक्ति से महात्मा जी ने पूछा कि क्या पहले भी इस प्रश्न का उत्तर किसी से पूछा है? उसने उत्तर दिया कि मुझे याद नहीं है, कि किसी से प्रश्न का उत्तर पूछा है या नहीं? तब उस महात्मा ने कहा, कि फिर तो मुझसे पूछने पर भी इसी प्रकार भूल जाओगे। सत्य तो यह है कि सत्संग में एक चित्त होकर सुनने से सत्संग का लाभ उठाया जा सकता है। एक बार ऋषिकेश में सत्संग हो रहा था। महात्मा जी ने एक श्रोता से पूछा- क्या तुम्हें गंगा जी की कलकल आवाज़ आ रही है? श्रोता ने उत्तर दिया, नहीं, मेरा ध्यान तो केवल आपके प्रवचन सुनने में लगा हुआ था। भजपा जाप से मन एकाग्र करने का अभ्यास हो सकता है।
नब्ज और सांस चलती है तो हमें पता ही नहीं चलता, उसी प्रकार संसार के कार्य करते हुए भी मन का जाप किया जा सकता है। ध्यानपूर्वक सत्संग न सुनने से सात्विक वृत्ति राजसी में तथा राजसी वृत्ति तामसी में बदल जाती है। फिर उसे नींद आ जाती है। भक्ति अभ्यास है, ज्ञान लगन प्रधानता होती है जबकि लगन में "स्वयं" की प्रधानता होती है। अनुभवी व्यक्ति की बात शीघ समझ में आती हैविवेकी व्यक्ति की बात सुनने में कठोर होने के कारण ग्राह्य नहीं होती|
श्रोता लोहा है तो वक्ता पारस है। दोनों के संयोग से लोहा सोना बन सकता है। पारस से लोहा बनाने पर दूसरे लोहे को सोना नहीं बना सकता। सत्संग को बुद्धि का नहीं मन का विषय बनाइए।
वर्षा से बीज के अनुरूप फल लगता है परन्तु भक्ति से मन का भाव अर्थात बीज बदल भी सकता है। लोहा और पारस दोनों असली होने पर लोहा सोना बन सकता है। इसी प्रकार श्रोता लोहा है तो वक्ता पारस है। दोनों के संयोग से लोहा सोना बन सकता हैपारस से लोहा बनाने पर दूसरे लोहे को सोना नहीं बना सकता। सत्संग को बुद्धि का नहीं मन का विषय बनाइए। परमात्म-तत्व की प्राप्ति तो तुरन्त होती है उसका कोई भविष्यकाल नहीं होता। नित्य से सुनने की अपेक्षा कम प्रभाव पड़ता है। श्रीमद्भागवत में लिखा है:- “जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीला का वर्णन करते-करते गदगद हो जाती हैजिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओं का चिन्तन करते समय द्रवित हो जाता है जो बारम्बार रोता है, कभी हंसने लगता है, कभी नाचने लगता है ऐसा मेरा भक्त संसार को पवित्र कर देता है।" श्रीभगवनचरित्रों को पढ़ने से हृदय की सूक्ष्म भावना तिरोहित हो जाती है। वेदान्तों को पढ़ने से उतना लाभ नहीं होता जितना भगवान के चरित्रों को पढ़ने से लाभ होता है। उससे उसका अन्त:करण निर्मल तथा कोमल हो जाता है। फलतः भगवद् भक्ति में मन लगने लगता है।
जब सदाचार तथा सद्गुण को ग्रहण करने उसमें अपने अन्दर सद्गुण दिखाई देने लगते हैं। फलतः अपने सद्गुण तिरोहित हो जाते हैं तथा दूसरों के दुर्गुण प्रविष्ट हो जाते हैं।
भक्ति से अन्त:करण पिघलता है, ज्ञान से कठोर होता है। भूख लगने पर खाना खाने से उसमें रस प्राप्त होता है। भक्ति एक भूख है, ज्ञान कठिन है उसके लिए भूख लगना सात्विक वृत्ति उत्पन्न होती है। जब श्रोता का ध्यान सांसारिक विषयों में भटक जाता है तो सात्विक वृत्ति राजसी वृत्ति में बदल जाती है तथा उसी विषय पर चिन्तन करने से राजसी वृत्ति तामसी वृत्ति में बदल जाती हैएक बार कथा का तारतम्य टूटने पर हमारी वृत्ति एकाग्र नहीं रहतीसत्संग में जब दुर्गुण दुराचार के त्याग की बात आती है तो श्रोता को दूसरों में दुर्गुण दुराचार दिखाई देते हैं। जब सदाचार तथा सद्गुण को ग्रहण करने की बात आती है तो उसमें अपने अन्दर सद्गुण दिखाई देने लगते हैं। फलतः अपने सद्गुण तिरोहित हो जाते हैं तथा दूसरों के दुर्गुण प्रविष्ट हो जाते हैं।
जाते अनुभव से मनुष्य अपना जीवन बदल सकता है परन्तु शास्त्र पढ़ने से अच्छा वक्ता बन सकता हैसत्संग अनुभव प्राप्त करने का साधन है। गीता रामायण आदि पढ़ने निरन्तर रहने वाली वस्तु परमात्म तत्व है फिर उसका भविष्य कैसे हो सकता है। उसके लिए तीव्र जिज्ञासा की आवश्यकता है|
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