थोड़ा पुरातन हो लिया जाए...

 


                 


जी, मन तो यही चाह रहा है कि थोडा पुरातन हो लिया जाए| आधुनिक होकर देख लिया। चांद पर पहुंच कर देख लिया| मंगल पर यान भेजकर देख लिया। स्पेस वार के साये में जीकर देख लिया। परमाणु बम बनाने का सुख लेकर देख लिया। 9 फीसद जीडीपी ग्रोथ करके भी देख लिया। अमेरिका एवं रूस दोनों के पीछे भागकर भी देख लिया| इन सबका कुल जमा हासिल हुई सिर्फ एक चीज- पोर्टेबिलिटी। इसे आप शॉर्टकट कहें, आरामतलबी कहें, या स्मार्टनेस करेंइस पोर्टेबल युग में हमें बच्चे भी स्मार्ट चाहिए। मतलब अपनी मर्जी वाले दिन ऑपरेशन के जरिये! घर भी स्मार्ट चाहिए। टीवी फ्रिज तो स्मार्ट चाहिए ही। इस सबने मिलकर हमें दूसरी धरातल पर पहुंचा दिया, जहां जीवन मतलब एक स्विच हो गया। अलार्म बज गया, उठ जाइए। अलार्म बज गया सो जाइए। जीवन की सारी जरूरतें सिर्फ एक स्विच से पूरी होने लगी हैंये सब बिजली देवी के आविष्कार से संभव हुआ है। लेकिन बिजली देवी के आने से क्या हुआ? पेड़ कटने लगेपहाड़ उजाड़े जाने लगे। बर्फ पिघलाई जाने लगी। सस्ते...आहा सॉरी पोर्टेबल के नाम पर प्लास्टिक का ईजाद हुआ। प्लास्टिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई कराई जाने लगी। पूरा घर प्लास्टिक से भर दिया गया। हम फूले नहीं समाए। पत्तल पर खाना खाने वाला हमारा समाज प्लास्टिक एवं थर्मोकोल की थाली में खाने लगा। इसे जीवन की नई पद्धति 'बफे सिस्टम' कहा गया। पोर्टेबिलिटी के चक्कर में हम एक रुपए का पानी पीने लगे, प्लास्टिक में!


इस आधुनिक जीवन की पोर्टेबिलिटी की भुक्तभोगी हैं दिल्ली की अवैध कॉलोनियां। हर दस साल में यहां के घर की पहली मंजिल बेसमेंट हो जाती है। यहां सड़कें घर को खा जा रही हैं|



               


चूंकि इस पोर्टेबिलिटी में सुधार जैसा कुछ नहीं होता। सब कुछ नया होता है, वह भी पुराने के ऊपरसड़क टूटी या खराब हुई तो उसे ठीक करने के बजाय उसके ऊपर रात में नई चिप्पी साट दी जाती हैसुबह जब लोग उठते हैं तो उन्हें चमाचम सड़क मिलती है। वे इसे विकास कहते हैं। लेकिन यह विकास भी प्लास्टिक एवं पोर्टेबल का एक चरण मात्र है। चांद पर पहुंचने के बाद हम चिप्पी साटने वाले युग में पहुंच गए हैं। इस लिखो-फेंको समाज में ढंग की सांस कैसे ली जाए, कई बार यह समझ में नहीं आता। आपने कभी सुना है कि जब गुलाबी ठंड (दुर्गा पूजा के आस-पास का समय, जब पंखा हल्की स्पीड में चले और आप चादर ओढ़े सोने का आनंद लें) की शुरुआत में बाढ़ का प्रचंड प्रकोप हो। अभी जब पूरा देश यूनाइटेड नेशन में प्रधानमंत्री के भाषण में नई देशभक्ति का रसोपान कर रहा है, तो फिर बिहार के कई जिले डूब रहे थे। जिस गंगा सफाई का विशाल कार्यक्रम पिछले छह वर्ष से नए तरीके से चल रहा है, वही गंगा मैया उफान पर हैं और इस पोर्टेबल समाज को उसकी औकात बता रहे हैं29 सितंबर, जब देश अखबारों में देशभक्ति का रसपान कर रहा था, बिहार के 14 जिले रेड अलर्ट पर थे। वो कहते हैं न- मुंदडं आंख कतौ कोई नाहिं। तो गंगा मैया ने भी मानो गुस्से में अपनी आंखें मूंद ली हैं| मैया सावन, भादो चुप रहीं और कार्तिक स्नान से मात्र 15 दिन पहले आश्विन शुक्ल पक्ष में उफान पर हैं। मैया क्यों गुस्साई? क्योंकि उनके पेट में यही प्लास्टिक भर दिया है हमलोगों ने। हम पोर्टेबल हो गए हैं। हम डिस्पोजेबल हो गए हैंतो इस बार मैया भी डिस्पोजेबल हो गई। उन्होंने भी अपना अतिरिक्त पानी डिस्पोज कर दिया। इंद्र देवता भी मानो इसी समय का इंतजार कर रहे थेबफे सिस्टम वाला सोमरस पीने वाले आधुनिक समय के इंद्रदेव ने भी अपच हुए सोमरस को बरसाने का यही उपयुक्त समय चुना। सावन भादो में तो वरुण देव चुप ही थे। मौसम विभाग कम वर्षा की भविष्यवाणी तो कर ही रहा था। तो अब क्या हो गया?


 इसलिए वापस पहली लाइन पर आता हूं। थोड़ा पुरातन हो लिया जाए। चांद पर पहुंचने के बाद हमने बहुत कुछ डिस्पोज किया| इतना कि हमें बच्चों की क्लास में हैपीनेस क्लास शुरू करनी पड़ी है और वह भी पूरे प्रचार (विज्ञापन वाला प्रचार) के साथ। जिस बच्चे की हंसी से मां-बाप अपनी थकान भूल जाते थे, उस बच्चे की हंसी वापस लाने के लिए हम स्कूलों में हैपीनेस क्लास शुरू कर रहे हैं। वह भी पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर। कैसा बच्चा गढ़ रहे हैं हम? कैसा समाज बना रहे हैं हम? 


बात शुरू होगी तो दूर तक जाएगी। 'नो यूज सिंगल प्लास्टिक' अभियान से यह बात शुरू हुई थी-थोड़ा पुरातन हो लिया जाए।' लेकिन बात पहुंच गई हैपीनेस क्लास तक। इस प्लास्टिक ने हमें कहां से कहां पहुंचा दिया।


हम डिस्पोजेबल उपभोग के अभ्यस्त हो गए, लेकिन यूज हुए प्लास्टिक की रिसाइकिल की व्यवस्था हम नहीं बना पाएयही होता है शॉर्टकट की जिंदगी में। हम दूर की नहीं सोचते। यह ठीक ऐसा ही है जैसे रात के अंधेरे में हम अपने घर का कूड़ा दूसरे घर के सामने फेंक आते हैं। और दूसरा तीसरे के सामने...पूरा चक घूम जाता है। यह कूड़ा सनातन सत्य है। अंत में यह कूड़ा नदी, तालाब, समुद्र में डाल दिया जाता है। वहां चूंकि हमें यह कूड़ा हमारी नंगी आंखों से दिखता नहीं है, सो हम खुश हो जाते हैं कि चलो हमने कूड़ा का निस्तारण सही ढंग से कर लिया।


अब होता क्या है? तालाब छोटा है। सो वह भर जाता है। वहां बिल्डिंगें, बड़े-बड़े मॉल बन जाते हैं। किसी को याद नहीं आता कि वे कूड़े के ढेर पर शॉपिंग कर रहे हैं! बस कूड़े के ऊपर पर कंकीट का खूबसूरत घेरा बना दिया गया है।


छोटी नदियों का भी यही हाल हुआ है। वे सूख गई या बरसाती नदी में तब्दील हो गईजब बारिश का पानी आता है तो वे उफान पर होती हैं और आस-पास कहर बरसाती हैंअब बात करें गंगा जैसी बड़ी नदियों की। वे चूंकि बड़ी हैं, सो उनकी पाचन शक्ति जबर्दस्त हैलेकिन जब उनका हाजमा बिगड़ता है, तो असमय बाढ़ आती है। जैसे अभी हो रहा है। इस असमय बाढ़ की वजह से आरओ का पानी भी अशुद्ध है, गंध कर रहा है।


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