अहिंसा अर्थात् प्रेम

 गीता में दैवी सम्पद् 


. दैवी सम्पदा का दसवां लक्षण है अहिंसा और ग्यारहवां लक्षण सत्य। गीता में इतना ही मिलेगा लिखा हुआ- अहिंसा| अब आप इसकी विस्तार से व्याख्या सुनिएइसका सही अर्थ तभी समझ आएगा|


अहिंसा का अर्थ होता है प्रेम ही प्रेम, इसके अतिरिक्त कुछ नहींअहिंसा का अर्थ होता है करुणा ही करुणा, करुणा के अतिरिक्त और कुछ भी नहींजैसे फूल में सुगंधि रहती है, सुगंधि के अतिरिक्त उसमें और कुछ रहता ही नहीं हैफूल को चाहे तुम मंदिर में रखो, उसमें केवल सुगंध ही सुगंध रहती है, दुर्गंध उसमें होती ही नहीं। चंदन में सुगंध भी होती है और शीतलता भी।


                   


शीतलता फूल में केवल सुगंधि होती है, लेकिन चंदन में सुगंधि और  शीतलता दोनों होती है। चंदन न अपनी शीतलता को छोड़ता है और न ही सुगंध को छोड़ता है। भले चंदन को अग्नि में जला दो, फिर भी वो अपनी शीतलता और सुगंधि को छोड़ेगा नहीं। भले ही आप उसे कुल्हाड़ी से काटो लेकिन वो अपनी सुगंधि और शीतलता को छोड़ेगा नहीं। किसी भी परिस्थिति में, किसी भी समय और किसी भी विपत्ति और कैसी भी मुश्किल में अहिंसा अपना प्रभाव नहीं छोड़ती। चाहे कैसी भी परिस्थिति हो छोड़ नहीं सकते अपने प्रेम को।


जैसे दीपक में प्रकाश होता है, रोशनी होती है इसलिए आप दीपक को कहीं पर भी रख दीजिए, वह कभी यह नहीं कहता- यह महल है, यह झोपड़ी है, यह जंगल है, यहाँ सूनापन है. यहाँ लोग नहीं हैं इसलिए मैं रोशनी नहीं दूंगा। दीपक का यह स्वभाव है ही नहीं, दीपक का स्वभाव है रोशनी देना। अहिंसा की परिभाषा है प्रेम ही प्रेम, प्रेम के अतिरिक्त और कुछ होता ही नहीं है वहाँ। तुम सारे संसार को मित्रता की आँख से देखोस्नेह की आँख से देखो। प्रेम की आँख से देखो।


देखो। अहिंसा का अर्थ है दूसरे को दुख देने की वृत्ति का अभाव। इसे नोट करो। अच्छी तरह से नोट करो। हृदय में नोट करो। अपने हृदय के कण-कण में नोट करो। अहिंसा का अर्थ है दूसरों को दुख देने की वृत्ति का अभाव। और हमारी आदत क्या है? हमारी आदत है दूसरों को दुखी करने की वृत्ति बनाना। दैवी सम्पदा का लक्षण है दूसरों को दुख नहीं देना। और हमारा स्वभाव है, यह सुखी क्यों है, संपन्न क्यों है, यह दुखी क्यों नहीं है यह सोचकर परेशान रहना। अहिंसा का अर्थ है दूसरों को दुख देने की प्रवृत्ति का अभाव। दूसरे को दुख देना, संताप देना, क्लेश देना, कष्ट देना, कड़वा बोलना, चुभती बात कहना और व्यंग्य वचन कहना, इस ढंग का जीवन में प्रकरण लाना कि जिससे दूसरे का हृदय जलकर राख हो जाए. दसरे के हृदय में आग लग जाए, दूसरा तिल-तिल कर जले यह अहिंसा नहीं है।


दूसरे की विद्या देखकर, दूसरे की बुद्धि देखकर, दूसरे का ज्ञान देखकर, दूसरे का ध्यान देखकर, दूसरे का जप-तप देखकर, दूसरे की पाठ-पूजा देखकर, दूसरे का दान-पुण्य देखकर, दूसरे का धर्म-कर्म देखकर, दूसरे को माला फेरते देखकर और दूसरे को तीर्थों में स्नान करते देखकर जिसके हृदय में जलन और ताप होता है वह अहिंसक नहीं है। जैसे पैदा होते ही सांप के मुंह में जहर की थैली होती है, बिना किसी मतलब के, बिना किसी अभिप्राय के, बिना किसी प्रयोजन के वह मनुष्य को काट लेता है और उसको पूरी तरह बर्बाद करके रख देता है, ठीक इसी ढंग से मनुष्य के हृदय में भी हिंसा की पूरी ग्रंथी रहती है। वो बिना किसी प्रयोजन के. बिना किसी मतलब के, बिना किसी अभिप्राय के, बिना किसी लेन-देन के, किसी का अनिष्ट सोचता जाता है। यह आसुरी सम्पदा है दैवी सम्पदा नहीं है। यह आसुरी प्रवृत्ति है, यह दैवीय प्रवृत्ति नहीं है। सोच लेना जरा। श्रीकृष्ण कह रहे हैंअहिंसा। यह दैवी सम्पदा का लक्षण है |


 


 


 


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