योग साधना
चित्त की प्रसन्नता के उपाय
चित्त का प्रसन्न, एकाग्र एवं शान्त होना केवल योगी के लिए ही नहीं, अपितु एक सामान्य व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है। चित्त की प्रसन्नता या मन की शान्ति के लिए ही विभिन्न प्रकार के उपायों का आश्रय लिया जाता है। और इन उपायों से मन भले ही कुछ क्षणों के लिए प्रसन्न हो जाता होगा, परन्तु पुनः कुछ पलों के बाद व्यक्ति और अधिक अशान्त, अप्रसन्न व उद्विग्न हो जाता है|
महर्षि पतंजलि चित्त की प्रसन्नता के लिए सूखरूप में जिन चार उपायों को बताते हैं वे उपाय अत्यन्त व्यवहारिक व पूर्ण हैं। यदि इन चार भावनाओं के अनुरूप व्यक्ति चिन्तन, विचार व आचरण करता है तो जीवन में कभी भी दुखी व अशान्त नहीं हो सकता| योग दर्शन प्रणेता योगिराज पतंजलि कहते हैं-
मैत्री करूणामुदितोपेक्षाणाम्सु
खदुःख पुण्यापुण्य विषयाणां
भावनातश्चित्त प्रसादनम् (योग- 1/33)
सुखियों के प्रति मैत्री, दुखियों के प्रति करूणा, पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता तथा अपुण्यशील (असुर प्रवृत्ति वालों) के प्रति उपेक्षा का भाव रखने से चित्त सदा प्रसन्न रहता है। इसी सूत्र की व्याख्या में महर्षि व्यास कहते हैं कि प्रसन्न एवं एकाग्र चित्त ही ध्यान में स्थिर हो सकता है। महर्षि ने जो चार विचार या भावनाएं बतलाई हैं, ये प्रत्येक साधक के लिए आचरणीय हैं। आज व्यक्ति इन चार शुद्ध भावनाओं के विपरीत ही कार्य कर रहा है, इसलिए वह दुखी व अशान्त है। आज समाज के अधिकांश व्यक्ति ऋषियों द्वारा उपदिष्ट मार्ग से हटकर कुपथ पर चल रहे हैं। और इन चार प्रकार की शुद्ध भावनाओं से हटकर इसके विपरीत व्यवहार कर रहे हैं।
आज व्यक्ति अज्ञानवश सुखियों के प्रति मैत्री का नहीं शत्रुता व ईर्ष्या का भाव रखता है। दुखियों के प्रति करूणा की बजाय घृणा का भाव रखता है। पुण्यात्मा महापुरूषों के प्रति मुदिता (प्रसन्नता व आनन्द) के भाव की अपेक्षा अप्रसन्नता व दुख का भाव रखता है। तथा अपुण्यशील असुर व्यक्तियों की उपेक्षा करने की जगह उनसे प्रीति करता है, उन्हीं का अनुकरण करता है। तथा दुष्टों की उपेक्षा के स्थान पर उनसे अपेक्षा रखता है। इसीलिए व्यक्ति दुखी है। आज व्यक्ति अपने दुख की अपेक्षा दूसरों के सुख से अधिक परेशान हैवह दुखी हो रहा है। ईर्ष्या व राग द्वेष का भाव या मैत्री की बजाय शत्रुता का भाव वह और किसी से नहीं बल्कि अपने संबंधियों या मित्रों से ही रखता है। याद रखना यदि आपके मित्र, आपके भाई, संबंधी रिश्तेदार सुखी हैं तो एक लाभ तो यह होगी ही कि वे कभी आपसे मांगने नहीं आयेंगे। आपको परेशान नहीं करेंगे। इसीलिए अपने परिचितों व आसपड़ोस के लोगों के योगक्षेम के लिए भगवान से प्रार्थना किया करो।
उनसे मैत्री का भाव रखना, शत्रुता, ईर्ष्या या राग द्वेष का नहीं, इससे आप भी सुखी रहेंगे और आपके मित्र भीदुखियों के दुख को देखकर उनसे घृणा न करना, अपितु उनको दुखी देखकर यदि कर सकते हो तो करूणामय हृदय से उनका तन-मन व धन से सहयोग करना। यदि किसी विशेष परिस्थिति वश दुखियों के दुख को दूर करने में आप उनका आर्थिक सहयोग भी नहीं पा सकें तो कोई बात नहीं, अपने हृदय में उनके प्रति करूणा का भाव अवश्य रखना। अपने दुखों के कारण तो दुनिया के सब लोग ही रोते हैं। वास्तव में उनका रोना या आंखों में करूणा के आंसुओं का बहाना धन्य है. जिनकी आंखें दूसरों के दुख को देखकर नम हो जाती हैं।
पुण्यात्मा सत्पुरूषों के प्रति मुदिता, प्रसन्नता, हर्ष व आनन्द का भाव रखना तथा अध्यात्म में उन्नति करने वाले पुण्यात्माओं के प्रति सदा नम्र रहना चाहिए- उनसे कभी भी अप्रसन्नता न रखना अपितु जैसे ही सन्त पुरूषों का दर्शन हो मन में अपार हर्ष, मुदिता, आनन्द व प्रसन्नता का भाव रखना, उनसे प्रीति करना तथा जो अपुण्यशील असुर प्रकृति के लोग हैं, उनके प्रति चाहे वे कितने ही धनी-वैभवशाली, बलवान व सत्तावान हों, उनकी सदा उपेक्षा ही करना, उनसे कभी भी कोई अपेक्षा नहीं रखना, न ही उनके प्रति कभी आकृष्ट होना क्योंकि असुरों की यदि हम उपेक्षा नहीं करेंगे तो वही आसुरीवृत्ति हममें भी आ सकती है। इसलिए सदा सुखी-दुखी पुण्यात्मा व अपुण्यशील पुरूषों के प्रति क्रमशः मैत्री, करूणा, मुदिता व उपेक्षा का भाव रखते हुए सदा प्रसन्न. शान्तचित्त व आनंदित रहना चाहिए|