गीता में दैवी सम्पदा


क्रोध आसुरी सम्पदा है। इससे बचना पड़ेगा। इससे बचने का कारण क्या है। हम आसुरी सम्पदा से बचे क्यों? बड़े बावरे लोग हैं। तुम्हें आसुरी सम्पदा से इतना प्रेम क्यों है? यह क्रोध है, तुम्हें मालूम है, यह जहर है, तुम्हें मालूम है यह आग है। तुम्हें मालूम है यह सांप है, तुम्हें मालूम है यह बिच्छू है। तुम कहते हो रात-दिन कि क्रोध सांप है। सांप तुम्हारी झोली में अगर आ जाए तो क्या करोगे। अपने आप चला जाएगा वो? मुझे कहते हैं लोग, धीरे-धीरे चला जाएगा। इसका मतलब है बिच्छू है और वो तुम्हारी गोद में आ जाए और तुम कहोगे महाराज! कोई नहीं, धीरे-धीरे चला जाएगा। _


तुम झूठ बोलते हो। तुमने बिच्छू को समझा नहीं है, सांप को समझा नहीं है। जरा-सा पता चल जाए, कि खूबसूरत शर्बत जहर है। जरा पीकर तो दिखाओ। ये केवल तुम्हारी बातें हैं। ये रटा हुआ ज्ञान है। तुम्हारा यह जिह्वा पर नाचने वाला ज्ञान हैतुम्हारी जिदंगी में यह बिलकुल नहीं आया है। अगर जिंदगी में कोई चीज है तो आसुरी सम्पदा आई है। यह क्रोध आसुरी सम्पदा है, यह मालूम है आपको। क्रोध का अर्थ है पागलपन।


क्रोध का अर्थ है बेहोशी। क्रोध का अर्थ है ईर्ष्या। क्रोध में आदमी की क्या स्थिति होती है, देखा है कभी आपने? आंखें लाल हो जाती हैं। चेहरा लाल हो जाता है और बाद में काला हो जाता है। होंठ फड़फड़ाने लगते हैं। दांत किटकिटाने लगते हैंशरीर पर पसीना आने लगता है। सांस बड़ी तेजी से चलने लगती है, ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है और व्यक्ति पागलों की तरह नाचने लगता है। हाथ-पांव की ऐसी स्थिति कि क्या करेगा, कुछ अन्दाजा नहीं लगता।


यह आसुरी सम्पत्ति जब हममें घुस जाती है तब कोई क्या यह देखेगा कि यह हमारी माता है, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे बच्चे हैं। जब यह आसुरी सम्पदा का क्रोध तुम्हारे अन्दर नाचने लगेगा तो तुम्हें कोई होश नहीं रहेगा। उस समय तुम्हारी वाणी, उस समय तुम्हारी क्रियाएं पशुओं की तरह हो जाएंगी। अत्यन्त क्रोध में मनुष्य हिंसा कर बैठता है, हत्या कर देता है, छुरा मार देता है, तलवार चला देता है, गला घोट देता है, आग में फूंक देता है। तुम देख नहीं रहे हो क्या-क्या घटनाएं घट रही हैं संसार में इस समय।


थोड़ा सोच लो। क्रोध इसमें ही आता है। क्रोध आता क्यों है? कभी सोचा है आपने। क्रोध से बेकार कोई चीज नहीं होती है। जब हम मन के अनुमूल चाहते हैं, और जो हमने सोचा है उसके अनुकूल चीज नहीं होती तो क्रोध आता है। मन हमारा हो और तन दूसरे का हो, उससे बड़ा अन्याय और जुल्म क्या होगा। पूरा घर दौड़ता फिरेगा और सब तुम्हारे अनुसार काम करेंगे तो उनका कोई मन नहीं है क्या? जो डोल रहा है उसके मन नहीं है क्या? सब मेरे मन के अनुसार चले। पत्नी कहती है, सुनो जी, मन मेरे पास भी है। मैं भी यह चाहती हूं कि तुम मेरे अनुसार चलो। सास कहती है, होगी बड़े घर की बेटी। मेरे मन के अनुसार चलना पड़ेगा। बहू कहे, मैं भी कोई ऐसे वैसे घर से नहीं आई हूं। तुमको भी मेरे मन के अनुसार चलना पड़ेगा। तब हो गई लड़ाई, तब हो गया झगड़ा, तब हो गई मार-पीट, हो गई अशांति और आसुरी शक्ति नाचने लगी घर में|


मन के अनुकूल अगर बात नहीं होती तो हमें आग लग जाती है। मैंने कितनी पत्नियों को देखा है, इतनी गुस्से में हैं, इतनी नाराज हैं. कहती हैं कि मेरा पति हमारी बात ही नहीं मानता और पति कहता है, महाराज! हमारा तो आत्महत्या करने का मन करता है। हमारी जिंदगी तो नरक बन गई और कोई माने या न माने, लेकिन पत्नी बिलकुल यह मानती है। वेदान्त पढ़ते हैं। हम आपका सत्संग करने के बाद स्वाध्याय करते थे।


यह जो हम दिन-रात कठोर वाणी बोलते हैं, यह भी आसुरी सम्पदा है। जिस मनुष्य के मन में उत्तेजना है, जिसका मन क्रोध से मचल रहा है, इतना कठोर हृदय, जहां आग जल रही हो, जहां आग की लपटें निकल रही हों, उसमें कोई माधुर्य, कोई मिठास और कोई रस होगा क्या? माधुर्य और मिठास तो दैवी सम्पदा में होती है। जब हमारी वाणी में कठोरता आए, हमारी वाणी में क्रूरता आए और जब जानबूझकर ऐसी वाणी बोलोगे, ऐसे शब्द बोलोगे तो रातभर सो न सकोगे। मैंने देखा है कि कई लोग जानबूझकर ऐसी बातें बोलते हैं। मेरी आंखों के आगे ऐसी बातें घटी हैं। मैंने ऐसी बातें सास से कहीं, रातभर नींद नहीं आई उसे घूरती रही, चुभती-चुभती बातें कहीं, उसके बेटे की, उसके पति की, उसकी बेटी की। मैंने कहा, आओ बेटी। तुम्हारी पीठ थपथपा दूं। तुमने तो आसुरी सम्पदा को गले लगा लिया। पूरी आसुरी सम्पदा ग्रहण कर ली तुमने। अब तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं। सब अपने आप हो जाएगा। 


तुम कहते हो, हम मांस नहीं खाते हैं महाराज! हम शाकाहारी हैं। किसी पशु का, किसी पक्षी का, मांस खाना इन्सानियत थोड़ी न है। ठीक कह रहे हो, लेकिन जब क्रोध में तुम जलते हो, तो तुम अपना ही मांस खा रहे हो। देखो, पशु-पक्षी के मांस को तो छोड़ो, क्रोध में आदमी अपना ही मांस खा रहा होता है। क्रोध की आग में जल रहा होता है, इसलिए यह आसुरी सम्पदा है। क्रोध से थोड़ी विदाई लेनी पड़ेगी।


यह अज्ञान भी आसुरी सम्पदा है। अज्ञानम् का अर्थ जानते हो क्या होता है। इसके अर्थ बहुत बड़े-बड़े हैं। अज्ञानम् का अर्थ है, अपनी भूलों को स्वीकार न करना, अपनी गलतियों को, अपने दोषों को स्वीकार न करना, यह अज्ञान है। अभी यदि इसी हाल में कोई आदमी सो जाए और उससे पूछो कि सो रहे हो क्या? सोने के लिए आए हो क्या? तो उसका जवाब होगा, मैं तो आंखें बन्द कर समाधि लगाकर सुन रहा था। अब आप बोलिए, यह ठिकाना है क्या सोने का? गर्दन लटकी हुई है, खर्राटों की आवाज सनाई दे रही है और कह रहा है मैं तो आंखें बन्द करके सुन रहा था। अपनी गलती को स्वीकार नहीं करतामन नहीं तैयार होता इस स्वीकृति के लिए|


मन नहीं तैयार होता इस स्वीकृति के लिए बगल में बैठी हुई एक माई, इधर-उधर ताक रही है। एक दूसरी माई ने कह दिया, कुछ टाइम के लिए तो चैन से बैठ जाओयहां इधर-उधर क्या देख रही हो, चिड़ियों की तरह। मैं कहां देख रही हूं। मैं तो ऐसे ही बैठी हुई हूं|


अपनी भूलों और गलतियों को स्वीकार न करना, यह अज्ञान है |ज्ञान का अर्थ है जितना जल्दी हो सके, अपने आपको जानो ,अपने आपको पहचान लो, वरना अर्थी उठने से पहले जान लोगे एक न एक दिन सब सामने आ जाएगा और तब तुम्हें पश्चाताप करना पड़ेगा।


उपनिषदों के ऋषि हिमालय की सबसे ऊंची चोटी पर खड़े होकर कहते हैं, अरे ओ संसार के लोगों, इसी जिंदगी में, इन्हीं क्षणों में, इन्हीं लम्हों में यदि तुमने अपने आपको जान लिया तो तुम्हारा कल्याण है। अगर तुमने अपने को नहीं जाना तो अपने आपका नुकसान कर लिया। अज्ञानी कह रहा है, यह मेरे बगल में बैठा है, इसको देखो यह कैसा आदमी है, पहले तू खुद अपने आपको देख और पढ़ ले।


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