गीता में दैवी सम्पदा

जलन, ईर्ष्या : क्या है प्रयोजन इसका


 


दैवी सम्पदा का यह दसवां लक्षण है अहिंसा। सुकरात को जहर दे दिया गया। सुकरात के यही वचन थे | दयानंद को जहर दिया गया, आपको मालूम है, जैसे ही महर्षि दयानंद को जहर दिया गया और वह अपना असर दिखाने लगा, उन्हें तुरंत पता चल गया। जिसने जहर दिया था, उसका भी पता चल गया| धीरे से उसे बुलाया स्वामी जी ने और कहा, वह अलमारी खोलो, उसमें से रुपए निकालो और तुरंत, जितनी जल्दी हो सके नेपाल भाग जाओ| यदि मेरे शिष्यों को पता चल गया, मेरे सेवकों को पता चल गया तो वे तुम्हारा अनिष्ट कर देंगे, अहित कर देंगे। हो सकता है कि तुम्हारी जीवन लीला भी समाप्त कर दें। आप कहोगे, ये साधु-संतों की कथाएं, आप दूसरी जगह सुनाया करो। हम साधु-संत नहीं हैं, हम कोई फकीर नहीं हैं| हम तो गृहस्थ हैं। हमारी जिंदगी के पीछे तो बहुत कुछ लगा हुआ है। आप इतनी लंबी-चौड़ी व्याख्याएँ कर रहे हैं। दैवी सम्पदा का लक्षण कह रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम इतनी ऊँचाई पर चले जाओ। मैं यह कह रहा हूँ कि तुम जलते क्यों रहते हो, बैठे-बैठे दूसरों की वृत्ति पर?


यहाँ जरा-सा कोई आदमी आ जाए तो हम उसके गले में हार-माला पहना दें, चंदन लगा दें और खड़े होकर ये कह दें कि यही वो बहादुर और वीर है, दाता और दानी है, जिसने ऐसा-ऐसा धर्म किया है और ऐसा-ऐसा कर्म। यहाँ तो नहीं बोलेंगे, लेकिन नीचे उतरते ही मुझे पकड़ लेंगे कि ये स्वामी जी कह रहे हैं, यह एक नंबर का ब्लैक मार्केटी है, यह जो रुपए इसने दान में दिए हैं ऐसे ही दिए हैं, छल-कपट से कमाए हैं और आप लोगों को भी पता नहीं क्या बिमारी है कि चले स्टेज पर खड़े होकर स्तुति करने। यह जलन है, यह ईर्ष्या है। मैं यह कह रहा हूँ, इसको विदा कर दो|



अहिंसा का अर्थ है जब कोई दुखी हो तो उसकी जगह अपने को रखकर देखो। क्या कह रहा हूं मैं, ध्यान दिया? अहिंसा का मायने जब किसी को कोई रोग हो, किसी को कोई शोक लगा हो, कोई असहनीय पीड़ा से गुजर रहा हो। आंखें बंद कर तुम यह देख लेना कि उसकी स्थिति तुम पर भी आ सकती है।



मैं तुम्हें दयानंद बनने के लिए थोड़े कहता हूँ। मैं तुम्हें जीसस क्राइस्ट और मंसूर बनने के लिए नहीं कह रहा हूँ, न ही सुकरात बनने के लिए कह रहा हूँ। छोटी-छोटी बातों से जो तुम्हारे अंदर जलन और ईर्ष्या होती है, क्यों होती है यह? किसलिए होती है यह? प्रयोजन क्या है इसका? तुमने अंत:करण में कीड़े-मकौड़े ही पाल रखे हैं, बिच्छू भी पाल रखे हैं क्या? वहाँ मकड़ियों के जाले भी लगा रखे हैं क्या? तुम्हारे हृदय में कभी शुभ विचार आता ही नहीं है क्या? दैवी सम्पदा का यह दसवाँ लक्षण है अहिंसा।देखो, महात्मा गाँधी को जिसने गोली मारी थी, यदि महात्मा गाँधी जीवित होते तो भारत की राजनीति, समाज नीति चाहे कितना जोर लगा देती, वे उसे कभी भी फांसी नहीं लगवाने देते। अगर वे जीवित होते तो? मैं महात्मा की बात कर रहा हूँ, तुम्हारी बात नहीं कर रहा हूँ। तुम तो नौकर को जेल पहँचाकर भी दम नहीं लोगे| नौकर से अगर गलती से चाय का प्याला भी टूट जाए तो तुम उसे नौकरी से निकाल देते हो। गलती हो गई, भूल हो गई उससे। मैं यह नहीं कह रहा कि नौकरों को सिर पर चढ़ा लो। लेकिन यह भी तो ठीक नहीं है। मैं जो कह रहा हूँ उसे ठीक से समझो। छोटी-छोटी चीजों में, छोटी-छोटी बातों में अपने अंत:करण को संभाल कर रखो, थोड़ा संभाल कर रखो, यह अहिंसा है। मन बिगड़ा और तुमने नुकसान पहुंचाया दूसरे को।


गौतम बुद्ध किसी पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं, किसी नदी के किनारे, किसी मिट्टी के ढेर पर। एक 80-90 वर्ष का बूढ़ा व्यक्ति जा रहा है। उसके हाथ कांप रहे हैं, सिर कांप रहा है। आँखों में मोतियाबंद उतर आया है। सारी इंद्रियां जर-जर हो गई हैं। उससे चला नहीं जा रहा है। उसके पांव में कष्ट भी है।


उसके पांव में चोट भी लग गई है। वो कभी उठता है, कभी गिरता है। कभी इधर होता है, कभी उधर होता है। बगल में ही एक जवान भिक्षु खड़ा है| वह उसे देखकर हंसने लगता है। उसकी खिल्ली उड़ाने लगता है। बगल में खड़ा एक जवान भिक्षुक उसकी नकल उतारने लगता है| गौतम बुद्ध ने कहा, अरे ओ भिक्षु! ऐसा मत करो। तुम्हारी जिन्दगी में भी ऐसी घड़ी आने वाली है। तुम सुस्ताओ, प्रतीक्षा करो, थोड़ी देर के लिए तुम्हारी जिन्दगी में भी ऐसा समय आएगा, जब तुम्हारे पैर लड़खड़ाने लगेंगे। तुम्हारे हाथ भी कांपेंगे, तुम्हारा सिर भी कांपेगा, तुम्हारे शरीर में भी पसीना आएगातुम भी डगमगाकर इसी ढंग से नीचे गिरोगे। अरे ओ, भिक्षु! तुम मत हंसो। हंसी मत उड़ाओ|


सुनो, अहिंसा का अर्थ है जब कोई दुखी हो तो उसकी जगह अपने को रखकर देखो। क्या कह रहा हूं मैं, ध्यान दिया? अहिंसा का मायने जब किसी को कोई रोग हो, किसी को कोई शोक लगा हो, कोई असहनीय पीड़ा से गुजर रहा हो। आंखें बंद कर तुम यह देख लेना कि उसकी स्थिति तुम पर भी आ सकती है। तब तुम्हारे भीतर से कठोरता चली जाएगी।


जो तुम्हारे भीतर में कठोरता है, जो तुम्हारे हृदय में इतना बड़ा भारी जंजाल मचा हुआ है, वह चला जाएगा। वो सुखी है, वो संपन्न हैं। कोई अहम् में है, कोई झूम रहा है, तो कोई आंखें बंद करके चल रहा हैअगर मेरी ज़िन्दगी में ये चीजें आएं तो मैं कितना आनंदमग्न होऊंगा। तुम उसे देखकर जलोगे नहीं। एक ही तराजू पर तोलो अपने को। ये दो तराजू अच्छे नहीं हैं। अहिंसा का अर्थ है एक ही तराजू पर तोलना कि हमारी जो आदत बन गई है, वह अच्छी नहीं है। बस यही है अहिंसा का अर्थ। इसी से हिंसा का रूप भी समझ आ जाएगा।


एक किसी बहुत बड़ी नगरी में, बहुत बड़े विशाल मन्दिर के बाहर विशाल मन्दिर के बाहर सड़क के किनारे पर एक भिखारी पड़ा हुआ था। उसका सारा शरीर गल गया था| उसका शरीर सड़ गया था। लकवा लग गया था उसे। उसे दिखाई भी नहीं दे रहा था। उसे सुनाई भी नहीं पड़ रहा था। वहीं पड़ा-पड़ा वो मल-मूत्र कर रहा था। पूरे शरीर में कीड़े पड़ गए थे। दुर्गध आ रही थी। अपनी दोनों टांगों पर खड़ा होना कठिन था उसके लिए। मन्दिर पर आने-जाने वाले लोगों की बहुत भीड़ थी। जो भी उसके पास से गुज़रता, अपना कपड़ा अपने मुंह और नाक पर रख लेता और जल्दी से आगे बढ़ जाता, जल्दी से वहां से निकल जाता। वह सड़क पर कराह रहा था, रो रहा था, दुखी हो रहा था। मन्दिर के किसी सत्संगी ने साहस किया, हिम्मत की। वो जाकर उसके पास खड़ा हो गया।



भिखारी ने कहा, मैं रोज परमात्मा से पूछता था कि मैं क्यों जी रहा हूं, मुझे बता दो, क्यों जला रहे हो मुझे। रोज पूछ रहा था ईश्वर से। लेकिन आज परमात्मा ने मुझसे मेरे कान में कहा कि कुछ और दिन मैं तुम्हें इसी स्थिति में रखूगा। इसलिए रखूगा कि इस मन्दिर में । आने-जाने वाले भक्तों की भीड़ भी इसे समझ सके कि कभी तुम भी इन जैसे थे, और वे भी तुम जैसे हो सकते हैं। इसका नाम अहिंसा है



वह बोला, मित्र, दोस्त! यह क्या हो रहा है? क्यों जी रहे हो तुम? जीने का कोई मतलब नहीं है, कोई प्रश्न नहीं है। सारे अंग में कीड़े पड़ गए हैं। लकवा लग गया है। पड़े-पड़े मल-मूत्र निकल रहा है। यह जीने का कोई तरीका तो नहीं है। क्यों जी रहे हो तुम, यह बता दो। उसे भिखारी ने जानते हो क्या कहा। उस भिखारी ने कहा, मैं रोज परमात्मा से पूछता था कि मैं क्यों जी रहा हूं, मुझे बता दो, क्यों जला रहे हो मुझे। रोज पूछ रहा था ईश्वर से। लेकिन आज परमात्मा ने मुझसे मेरे कान में कहा कि कुछ और दिन मैं तुम्हें इसी स्थिति में रखूगा। इसलिए रखूगा कि इस मन्दिर में आने-जाने वाले भक्तों की भीड़ भी इसे समझ सके कि कभी तुम भी इन जैसे थे, और वे भी तुम जैसे हो सकते हैं। इसका नाम अहिंसा है। कभी मैं भी तुम्हारे जैसा था। अहंकार और अभिमान मत करो क्योंकि तुम कभी मेरे जैसे भी हो सकते हो। इसका नाम अहिंसा है। कभी मैं भी तुम्हारे जैसा था। अहंकार और अभिमान मत करो क्योंकि तुम कभी मेरे जैसे भी हो सकते हो स्थिति को बदलते हुए देर नहीं लगती। अहिंसा का अपने मन में भाव लाने की कोशिश करो| पूजा-पाठ न भी हो तो चलेगा। मन्दिर, मस्जिद, चर्च में भी न जाओ तो चलेगा, लेकिन अगर हृदय में करूणा के भाव आ गए, जलन और दाह की प्रवृत्ति खत्म हो गई तो जिन्दगी में अमृत रस आ जाएगा। जिन्दगी आनन्द से भर जाएगी।


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