"संसार-चक्की "

लेख



किसी समय किसी नगर में कोई महात्मा विचरण कर रहे थे- निरीह और निरविकार। यूँ ही घूमते हुए एक मुहल्ले में जा पहुँचे। तभी किसी घर से उन्हें धरर-धरर की आवाज आती सुनाई दी। ये आवाज कैसी है- ये जानने के लिए ध्यान से कान लगा कर सुनने लगे। तब मालूम हुआ कि घर में एक स्त्री बैठी चक्की चला रही थी और उसी से ये धरर-धरर का शब्द हो रहा थाउस स्त्री ने दाएँ-बाएँ दोनों ओर गेहूँ की बोरी रखी हुई थी। जब बाएँ हाथ से चक्की चलाते थक जाती तो दाएँ हाथ से चलाने लगती और जब दायाँ हाथ थक जाता तो बाएँ हाथ से चलाने लगती। जो हाथ खाली होता उस हाथ से उस ओर पड़ी बोरी में से गेहूँ निकाल कर चक्की में डालती जाती। ये सब देखकर वह उदारचरित महात्मा बहुत उदास हो गया और जोर-जोर से रोने लगा।


राह चलते लोग उसे इस तरह रोते देख बड़े हैरान हुए और उस से  रोने का कारण पूछने लगे। पर वो न तो चुप होता और न अपने रोने का कारण ही बताता था। ऐसे योगी को देखने बहुत से लोग इकट्ठे हो गए। इसी तरह बहुत समय बीत गया। तभी 'नारायण-नारायण' का जाप करते हुए कोई सन्यासी वहाँ आ पहुँचे। और रोते हुए उस महात्मा से बड़े प्रेमपूर्वक उनके रोने का कारण पूछने लगे। तब, जिस तरह कोई नन्हा रोता हुआ बालक बहुत-सी अन्य स्त्रियों द्वारा लाड-दुलार करके चुप कराने पर भी चुप नहीं करता और जब उसके मनोभावों को जानने वाली उसकी माँ आकर गोद में उठा लेती है तो वो शान्त हो जाता है; उसी तरह वह महात्मा उन संन्यासी को देखते ही चुप हो गया और उनसे अपने रोने का कारण कहने अपने रोने का कारण कहने लगा कि- 'स्वामी जी, यहाँ ये सैंकड़ों मनुष्य खड़े तो हैं, पर इनमें से किसे मैं अपने दिल की बात कहूँ, कोई भी ऐसा व्यक्ति इनमें नहीं जो मेरी बात समझ सके इसलिए इनमें रोने का कारण कहने का फायदा, आप सब जानने वाले हैं इसलिए आपसे मैं दिल की बात कहता हूँ। यह स्त्री यहाँ बहुत देर से चक्की चला रही है। इसकी यह गेहूँ पीसने की क्रिया देखकर मुझे उस बड़ी चक्की की याद आती है और उसकी महाप्रलय-कारिणी क्रिया को याद कर मुझे उसमें पिसने वाले प्राणियों पर बड़ी दया आती है और उस करुणा से मुझे रोना आ रहा है।' 


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