स्वामी राम तीर्थ की नीति कथाएँ

      अपने आप में भलाई का प्रसारण


                            (पवित्र छाया)


युग बीत गये पर एक समय ऐसा भी था जब पृथ्वी पर एक महात्मा रहते थे, वे इतने ऊंचे और श्रेष्ठ थे कि स्वर्ग से देवतागण चकित होकर पृथ्वी पर यह देखने आते थे कि क्या कोई मृत्यु लोक में इतना महान धर्मात्मा भी हो सकता है? वह महात्मा अपने दैनिक कार्यों के लिए इधर-उधर जाते थे और स्वतः ही सद्गुण ऐसे फैलने लगते थे जैसे तारे से प्रकाश और फूलों से सुगंध। उन्हें उनकी कुछ भी खबर नहीं होती थी। 


दो शब्दों में उनकी दिनचर्या समाप्त होती थी- "वह दान देते थे और क्षमा करते थे।" तो भी ये शब्द कभी उनके मुख से नहीं निकलते थे। हां, उनकी उत्साहपूर्ण मुस्कान, दया, क्षमा, दानशीलता और उदारता में ही व्यक्त होते थे |


स्वर्गीय दूतों ने ईश्वर से प्रार्थना की- प्रभो! आप उसे कुछ दिव्य - शक्तियां प्रदान कीजिये।


ईश्वर ने उत्तर दिया- स्वीकार है, पर उससे पूछो कि वह क्या चाहता है?"


तब देवताओं ने महात्मा से पूछाः क्या आप अपने कर के स्पर्श मात्र से रोगियों को चंगा करना चाहते हैं?


"नहीं", महात्मा ने उत्तर दिया- "मैं चाहता हूं कि ईश्वर उन्हें चंगा करे।"


क्या आप पतित आत्माओं को धर्म में लाना तथा पथभ्रष्ट हृदयों को सन्मार्ग पर लाना पसन्द करेंगे?"


"नहीं, वह कार्य स्वर्गीय दूतों का है। मैं सविनय निवेदन करता हूं कि मैं धर्म परिवर्तन नहीं कराता।"


अच्छा, आप संतोष की मूर्ति बनकर अपने सद्गुणों के प्रकाश से मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित करना और इस प्रकार ईश्वर का महत्व अधिक बढ़ाना चाहेंगे?"


महात्मा ने उत्तर दिया- "नहीं, यदि मनुष्य मेरी ओर आकर्षित होंगे तो वे ईश्वर से पृथक हो जायेंगे। प्रभु के पास अपना यश बढ़ाने के अन्य अनेक साधन हैं।"


स्वर्गीय दूत झल्ला उठे -" तब आप क्या चाहते हैं?" महात्मा ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- "मुझे तो किसी वस्तु की इच्छा नहीं है?"


यदि ईश्वर मुझ पर अनुग्रह करें, तो क्या उसी अनुग्रह के साथ, मेरे पास अन्य प्रत्येक वस्तु स्वयं न आ जायेगीपरन्तु स्वर्गीय दूतों ने इच्छा प्रकट की कि आपको कोई न कोई सिद्धि जरूर मांगनी होगी, नहीं तो एक न एक सिद्धि आप पर थोप दी जायेगी|


महात्मा ने कहा- "बहुत अच्छा, यदि नहीं मानते हो तो यह वरदान दीजिये कि मैं बिना जाने महान उपकार करता रहूं।"


स्वर्गीय दूत बड़े परेशान थे| उन्होंने परस्पर परामर्श किया और यह युक्ति निकाली कि हर बार बाहर जाते समय जब महात्मा की छाया उनके पीछे या दाई या बाई ओर पड़े जिसे वह देख न सकें, तो उस छाया में रोग को अच्छा करने, दुख को शान्त करने और शोक को हरने की शक्ति होनी चाहिए।


ऐसा ही हुआ, जब कभी महात्मा चलता और उसकी छाया पृथ्वी पर दायें-बायें अथवा पीछे पड़ती, तो वह शुष्क मार्गों को हरा-भरा कर देती, मुाए हुए वृक्षों को तरोताज़ा और शुष्क स्रोतों को निर्मल जल से प्लावित कर देती, छोटे-छोटे पीतवर्ण बच्चों को हुष्ट-पुष्ट और दुखी माताओं को प्रसन्नता से भर देतीपरन्तु महात्मा तो अपने नित्य कार्यवश इधर-उधर जाता था, और सद्गुण, उसके अनजान में इस प्रकार फैलते थे, जिस प्रकार तारागण से प्रकाश और पुष्प से सुगंध। और लोग उसकी शालीनता का सम्मान करते हुए, चुपचाप उसका अनुसरण करते, उससे उसकी अलौकिक सिद्धि के संबंध में कभी कुछ न कहतेधीरे-धीरे वे उसका नाम भी भूलने लगे और उसे 'पवित्र छाया' के नाम से पुकारने लगे



                                                    निष्कर्ष


जो मनुष्य समस्त इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है वह भलाई को संसार में वैसे ही बिखेरता है जैसे अंजाने ही फूल सुगंध या एक तारा प्रकाश फैलाता है।


 



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