गीता में दैवी सम्पदा
अहिंसा अर्थात प्रेम
बहुत विशाल मन्दिर के बाहर एक अंधा और एक लंगड़ा दोनों बैठे रहते थे। दोनों में पार्टनरशिप थी, बड़ी मित्रता हो गई थी, होगी ही क्योंकि एक अंधा था और दूसरा लंगड़ा| लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठ जाता और लंगड़ा अंधे को रास्ता बताता जाता, अंधा चलता जाता। दोनों में पार्टनरशिप हो गई। मन्दिर बहुत बड़ा था, वहां आने वाले लोग धनवान थे। बहुत कमा लिया था उन्होंने| लाखों कमा लिए थे उन्होंने। एक दिन उन दोनों में लड़ाई हो गई। याद रखना, जब लाखों-करोड़ों रूपए कमाओगे तो झगड़ा तो होगा ही। चाहे वो तुम्हारा सगा बेटा और सगा भाई ही क्यों न हो। धन आए, सम्पत्ति आए और लड़ाई न हो, छापे न पड़ें, तुम्हारे घर में बीमारियां न आएं, केस और मुकद्दमे न हों, ऐसा असंभव है। जहां नोटों के बंडल घर में आते हैं तो खून के बंडल भी साथ आते हैं। यह जो इतने बड़े नोटों के ढेर लग जाते हैं ऐसे नहीं आते। यह कमाई का धन तो खाने-पीने में ही काम आएगा। उससे ज्यादा तुम कुछ नहीं कर सकोगे। जब कहीं गड्ढा देखो, जमीन में बहुत गहरा गड्ढा हो गया है तो देख लेना ऊंचा टीला भी बन गया है। यह गड्ढा क्यों हो गया है। किनारे पर देखोगे तो पर्वत की तरह ऊंचाई भी हो गई है। मिट्टी वहां से आई है, जहां से ऊंचाई हुई है|
तो लंगड़े और अंधे में लड़ाई हो गई। दोनों में झगड़ा हो गया | तू-तू, मैं-मैं हो गई। दोनों में सिर फुटव्वल हो गया। दोनों में मारपीट हो गई। खून बहने लगाआने-जाने वाले भले लोगों ने उन्हें छुड़वाया|
अंधे ने कहा, जिन्दगी भर के लिए तेरा साथ नहीं दूंगा। लाठी टेक-टेक कर चल लूंगा। लंगड़े ने भी कहा मैं घिसट-घिसट कर चल लूंगा लेकिन कभी भी तेरा मुंह नहीं देखूगा। शक्ल नहीं देखूगा। तू दोस्ती के लायक ही नहीं है|
जब लड़ाई-झगड़ा होता है तो ऐसा ही होता है। चाहे पैसे के लिए हो, जमीन-जायदाद के लिए हो, कारखाने के लिए हो, चाहे प्रेम में झगड़ा हो। लोग कहते हैं, तुम्हारा मुंह नहीं देखेंगे। अब तक पता नहीं कैसे चलता रहा।
दोनों में झगड़ा हो गया। दोनों सड़क के किनारे बैठे रहते। एक इस तरफ बैठा रहता तो दूसरा उस तरफ। सर्दी के दिन थे, ठंडी के दिन थे। चारों ओर बवंडर आया, आंधी आई। अंधा और लंगड़ा दोनों सड़क के किनारे बैठे-बैठे कांप रहे थे| परमात्मा को दया आ गई| पहले नहीं आती थी, अब आ गई होगी। करूणा आई| वो सबसे पहले अंधे के पास वो सबसे पहले अंधे के पास गए। उस अंधे से कहा, मैं ईश्वर हूं, परमात्मा हूं। वरदान देने आया हूं। जो चाहता है वो मांग। जो मांगेगा वही दे दूंगा। उसने कहा, वर ही देना है तो जो लंगड़ा बैठा है उसकी आंखें फोड़ दो। परमात्मा तो छाती पीटने लगा। बड़ा निराश हुआ| परमात्मा बड़ा उदास हुआ। परमात्मा ने कहा, अब वापस लौटकर नहीं आऊंगा। किसी अंधे या लंगड़े के पास तो बिल्कुल नहीं आऊंगा, चाहे जो कुछ भी हो जाए।
लंगड़े के पास गए। लंगड़े ने _ कहा, जो वो उस किनारे बैठा है उसकी टांगें तोड़ दो, देखो प्रसन्न मत होना। ये लंगड़ा और अंधा हर आदमी के हृदय में बैठा है। हर आदमी के मन में अंधा और लंगड़ा बैठा है। हर आदमी के मन में ये भाव हैं। हर आदमी के मन में यही चीज है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि आसुरी सम्पदा है हिंसा। इससे बचना पड़ेगा। यह दैवी सम्पदा नहीं है। दैवी सम्पदा को अर्जन करने के लिए, दैवी सम्पदा को अपने मन में लाने के लिए तुम्हें कुछ बाजी लगानी पड़ेगी। तुम्हें कुछ यत्न करने पड़ेंगे। तुम्हें कुछ कोशिश करनी पड़ेगी। तुम्हें अपने घर में झाडू देना पड़ेगा। परीक्षण और समीक्षण करना पड़ेगा तुम्हें|
श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं- अहिंसा। अगर मनुष्य के मन में अहिंसा यानी प्रेम-दया के भाव आ जाएं, तो हमारा घर स्वर्ग नहीं बन जायेगा क्या? जलन की प्रवृत्ति भाई-भाई में रहती है। जलन की प्रवृत्ति बहन में रहती है और जलन की प्रवृत्ति सास-ससुर में रहती है। जलन की प्रवृत्ति बाप और बेटे में रहती हैजलन की प्रवृत्ति मित्रों और दोस्तों में रहती है। जलन की प्रवृत्ति उन सहेलियों में भी रहती है, जो एक साथ खाती हैं, जो एक साथ पीती हैं। श्रीकृष्ण केवल इतनी बात कह रहे हैं- अहिंसा। मन में से इन बातों को हटा दो। नहीं हटती तो कम कर दो। तुम थोड़ा इसका प्रयोग करके तो देखो, दूसरों के प्रति मैत्री के भाव, करूणा के भाव, दूसरों के प्रति प्रेम के भाव और दूसरों के प्रति लौटा देने के भाव- ये भाव थोड़ी देर अपने हृदय में करके तो देखो। तुम्हें खुद फर्क महसूस होगा। मन को ठंडक मिलेगी।
श्रीकृष्ण केवल इतनी बात कह रहे हैं- अहिंसा। मन में से इन बातों _ को हटा दो। नहीं हटती तो कम कर दो। तुम थोड़ा इसका प्रयोग करके तो देखो, दूसरों के प्रति मैत्री के भाव, करूणा के भाव, दूसरों के प्रति प्रेम के भाव और दूसरों के प्रति लौटा देने के भाव- ये भाव थोड़ी देर अपने हृदय में करके तो देखो। तुम्हें खुद फर्क महसूस होगा। मन को ठंडक मिलेगी।
50-60 वर्ष पहले हरिद्वार के आसपास का जंगल बहुत भयानक था। यह शेरों से, बाघों से, हाथियों से भरा हुआ जंगल था। यहां जाने का किसी का साहस नहीं होता था। झुंड के झुंड हाथियों के और कितने ही शेर, कितने बाघ और कितने ही चीते रहते थे इन जंगलों में। यह सत्य घटना सुना रहा हूं मैं आपको बूढ़े महात्माओं ने सुनाया था यह सब मुझे। बिल्कुल सत्य घटना है यह। इस भयानक जंगल में, जो चंडी के मन्दिर के नीचे से शुरू होता था और ऋषिकेश तक फैला हुआ था, एक महात्मा रहते थे। उनका नाम था संत मथुरादास जीएक लंगोटी और एक भिक्षापात्र रहता था उनके पास। उस जंगल में वह आनंद से घूमते थे। कोई डर, कोई भय नहीं होता था। लोगों ने देखा कि उनके बगल में हाथियों के झुंड के झुंड बैठे होते थे। लोगों ने दूरबीन से, हैलीकॉप्टर से, हवाई बैठे होते थे। लोगों ने दूरबीन हैलीकॉप्टर से, हवाई जहाज से देखा कि शेरों और बाघों के झुंड बैठे रहते थे उनके पासवे आराम से बैठे रहते, उन्हें किसी से कोई भय नहीं था|
उस समय तो अंग्रेजों का राज था| बिजनौर का जो क्लेक्टर था, वो अंग्रेज था। वो वहां शिकार खेलने के लिए गया| वहां व्यवस्था की गई, मंच लगाकर पशुओं को बांध दिया गया। वह मंच पर बैठ गया जाकर। जैसे ही रात को शेर और शेरनी आए, उसने निशाना लगाकर शेर को मार दिया। शेरनी भाग गई। उस समय मथुरादास जी ऋषिकेश के जंगलों में चले गए थे, चंडी के जंगल में नहीं थे। रात्रि के समय उन्होंने देखा कि एक शेरनी गुर्राती है बड़े जोर से, तो जंगल कांप जाता था। पशु-पक्षी कांप जाते थे। उन्होंने किसी से पूछा कि यह शेरनी कभी इस तरह नहीं करती थी, क्या हुआ इसे? किसी ने कहा, महाराज, अंग्रेज कलेक्टर ने इसके पति को मार दिया है। ये उसके वियोग में रो रही है, कलप रही है। वो उसी समय चंडी के जंगल में आए। मंच लगा हुआ था। वह अंग्रेज शेरनी को भी मारना चाहता था। मथुरादास जी ने उससे कहा, ओ अंग्रेज के बच्चे! तू किसी से डरता नहीं है। तूने शेर को मार दिया। बिना किसी मतलब के, बिना किसी प्रयोजन के। नालायक, कायर यह कोई शिकार का ढंग है? ऊंचा मंच बनाकर इन पशु-पक्षियों को मार रहा है। देखना, शेरनी को मारना मत। लोगों ने कह दिया था कि यह महात्मा बड़ा सिद्ध है। जरा भी टेढ़ी आंख से देख लिया तो तुम्हारा अनर्थ हो जाएगा। उसने हाथ बांधे, महाराज! मैं शेरनी को नहीं मारूंगा। लेकिन उनके मन में संदेह हो गया कि मारे नहीं। वे मंच के पास पेड़ के नीचे आसन जमाकर बैठ गए। वह मंच पर बैठा हुआ था। चन्द्रमा की चांदनी थी। गुर्राती हुई शेरनी आई। मंच पर बैठा अंग्रेज कांप गया। शेरनी ने परिक्रमा की, फिर महात्मा के पैर चाटने लगी, और रोने लगी| महात्मा उसके शरीर पर हाथ फेरने लगे। यह प्रत्यक्ष घटना उस अंग्रेज ने अपनी आत्मकथा में लिखी है।
बहुत देर तक जब ऐसा करके वह चली गई तो अंग्रेज ने उनसे पूछा, महाराज, यह तो हिंसक पशु है। मनुष्य की गंध पाकर उसे फाड़ देते हैं। ये आपको नुकसान नहीं पहुंचाते। ये चाहते क्या हैं? तो महाराज जी ने कहा कि जब मैं इनको कोई नुकसान नहीं पहुंचाता तो ये मुझे क्यों नुकसान देंगे| वो अंग्रेज उनका शिष्य हो गया।
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