हिन्दू नारी
प्रज्ञा ग्रन्थ माला
हिन्दू संस्कृति में नारी
नारी सृष्टि की उत्पादिका-प्रतिपालिका है और कष्ट में सांत्वना देने वाली है| नारी दाम्पत्य स्नेह, सुख की सरिता का पवित्र उद्गम है| हिन्दू-नारी की महिमा अगम्य है, अपार है। स्त्री के वास्तविक आभूषण उसके अपने सुन्दर गुण हैं। गुणवती स्त्री दीन-हीन मनुष्य के घर को भी स्वर्ग के समान बना देती है। ऐसी स्त्री बाहरी शोभा-सुन्दरता की परवाह नहीं करती, उसका हृदय सुन्दर होता है और उसके हृदय के निर्मल सौन्दर्य से सब कुछ सुन्दर दिखने लगता है। महात्मा कबीरदास ने ऐसी देवी (नारी) की स्तुति की है-
पतिव्रता मैली भली, गले कांच की पोत।
सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि की जोत॥
मनुष्य को पृथ्वी से स्वर्ग तक अगर कोई पहुंचाने में सक्षम है तो वह है पतिव्रता नारी। सौभाग्यशाली होता है वह पुरूष जिसे सुशील और सदाचारिणी स्त्री जीवन संगिनी के रूप में प्राप्त होती है क्योंकि ऐसी गुणवान स्त्री तो प्रभु की असीम कृपा से ही उपलब्ध होती है। अतः पुरूष का भी दायित्व बनता है कि उसकी भावनाओं का आदर करे और उसका हर पल ध्यान रखे। सात सुखों में एक सुख सुलक्षणा नारी है। तुलसीदास जी ने स्त्रियों का उल्लेख रामायण में इस प्रकार किया है-
जगपतिब्रता चारि विधि अहहीं।
बेदपुरान संत अस कहहीं॥
उत्तम के अस बस मन माहीं
सपनेहुँ आन पुरूष जग नाहीं॥
मध्यम पर पति देखहिं कैसे।
भ्राता पिता पुत्र निज जैसे॥
धर्म बिचारि समुझि कल रहहीं।
सो निकृष्ट तियश्रुति अस कहहीं॥
बिनु अवसर भय तें रह जोई।
जानेहु अध नारि जग सोई॥
मानव जगत् का लगभग आधा भाग नारी-जाति का है। संख्या की दृष्टि से भी नारी का महत्व स्पष्ट है। नारी माता के रूप में संतानोत्पत्ति करती है, उसे पालती-पोसती है और उसे जीवन भर निःस्वार्थ भाव से प्रेम करती है, स्नेह वर्षा करती है|
गृहिणी के रूप में स्त्री-पुरूष की सखा है, मित्र है, सहधर्मिणी है, अर्धागिनी है, वह घर की व्यवस्था और धर्म का साधन करती है। पिता के कुल और पति के कुल दोनों को आनन्द प्रदान करती है। पुरूष स्त्री से शक्ति, उत्साह, उल्लास प्राप्त करने के साथ ही हर कार्य में उसकी सहायता लेता है।
हिन्दू शास्त्रों ने जहां नारी के कन्यापन की, मातृत्व तथा गृहिणी रूप की पूजा की है। माता के रूप में उसे उपाध्याय (शिक्षक) से दस लाख गुना तथा पिता से हजार गुना गौरवशाली बताया है, जननी के रूप में उसे स्वर्ग से भी अधिक महान माना है, गृहिणी के रूप में उसे लक्ष्मी, सहधर्मिणी धर्म तथा स्वर्ग का साधन और पुरूष की शक्ति माना है, वहीं उसके प्रति कामवासना को नष्ट करने के उद्देश्य से उसकी निन्दा भी की गई है।
वस्तुतः कामवासना के आधार पर नारी की निन्दा नारी के गौरव के लिए ही की गई है, क्योंकि इसके द्वारा पुरूष तथा नारी को, दोनों को बताया गया है कि नारी कामवासना की तृप्ति का ही साधन नहीं है। यह तो उसके अधोगत रूप हैं, लेकिन वास्तव में वह माता, लक्ष्मी, सखा तथा धर्म और अर्थ में सहायक है। और इन्हीं रूप में उसे मानना या स्वीकार करना चाहिये।
अर्धागिनी को अपने समान समझने के लिए हिन्दू-शास्त्रों में केवल उपदेश ही नहीं हैं, किन्तु इसे व्यवहार में लाने और सुरक्षित रखने के भी अचूक उपाय बताये गये हैं। धर्म-कर्म और दान देने से पत्नी की सम्मति के साथ-साथ उसका उपस्थित रहना भी अनिवार्य आवश्यक बताया गया है। धन सहेज कर रखने और खर्च करने का कार्य भी स्त्री को सौंपा गया है जो उसके प्रति विश्वास और सम्मान का प्रतीक है। मनु महाराज कहते हैं'स्त्री-पुरूष मरणपर्यन्त धर्म, अर्थ आदि में परस्पर अभिन्न होकर रहें, यह स्त्री-पुरूष का श्रेष्ठ धर्म संक्षेप में जानना चाहिए।'
विष्णु पुराण में मुनियों की शंका का समाधान करते हुए भगवान वेदव्यास ने स्त्रियों को 'साधु' और 'धन्य' बतलाया है- 'पुरूषों को अपने धर्मानुकूल प्राप्त किये हुए धन से ही सर्वदा सुपात्र को दान और विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये|
ऐसे द्रव्य के उपार्जन में तथा रक्षण में बड़ा क्लेश होता है और कहीं वह धन अनुचित काम में लगा दिया गया तो उससे मनुष्यों को जो कष्ट भोगना पड़ता है, वह विदित ही है|
इस प्रकार पुरूषगण इन तथा ऐसे ही अन्य कष्टसाध्य उपायों के द्वारा प्रजापत्य आदि शुभ लोकों को क्रमशः प्राप्त करते हैं| परन्तु स्त्रियां तो कर्म-मन-वचन द्वारा पति की सेवा करने से उनकी हितकारिणी बनकर पति के समान शुभ लोकों को अनायास ही प्राप्त कर लेती हैं जो कि पुरूषों को अत्यन्त परिश्रम से मिलते हैं। इसीलिये मैंने कहा था कि स्त्रियां साधु हैं।'