शंका समाधान
जीव ब्रह्म की एकता कैसे?
वेदांत वेदों का सार है और यह उपनिषद् ज्ञान है। ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई वस्तु है नहीं। जीव, ईश्वर, प्रकृति तीनों की सत्ता पृथक-पृथक प्रतीत होती है परंतु वस्तुतः एक ब्रह्म ही इन तीनों रूपों में समाया हुआ है। वह एक है पर अनेक रूपों में दिखाई देता है। यही उसकी माया शक्ति है, जो एक को अनेक प्रतीत करा रही है। इसे समझने के लिए आप स्वप्न दृष्टांत को लें|
एक व्यक्ति अपनी आरामदेय शैया पर आनंदपूर्वक सोया हुआ था। सपने में उसने अपनी मौत देखी। क्रोध से लाल आंखों वाले, काले - स्याह, नंगे, खड़े बालों वाले, हाथों में लोहे के त्रिशूल लिए हुए यमदूत दिखाई दिए। जिनको देखते ही भय के मारे उसके प्राण शरीर से निकल गए। उसके शरीर से अंगुष्ठ मात्र शरीर निकला। उसको यमदूत रस्सा डालकर खींचते हुए ले चले। तब उसे स्त्री-पुत्र याद आए, इसने पुकारा 'कोई बचाओ, कोई बचाओ' पर किसी ने उसकी पुकार न सुनी। यमदूत उसे डराते, धमकाते और बार-बार नरकों का भय दिखाते थे, कहते 'हे दुष्ट! जल्दी जल्दी चल। तू यमलोक को जाएगा। देर मत कर। हम तुझे कुम्भीपाक आदि नरकों में ले जाएंगे।
उन यमदूतों के ऐसे कठोर शब्द सुनकर और भाई-बंधुओं का रोना सुनकर वह बहुत शोकाकुल हुआ। पर कोई भी उसकी मुसीबत में मदद न कर सका | अब इसे रेगिस्तान की गरम रेत पर चलना पड़ा। भूख और प्यास से वह बहुत व्याकुल हआ जब वह थोड़ा धीरे चलता तो यमदूत उसे कोड़े मारते और वह मूर्च्छित हो जाता। पर इसका अंगुष्ठ मात्र शरीर इतनी यातना पाने के बाद भी वैसा ही रहा। उसे रास्ते में सांप और बिच्छुओं ने काटा। मार्ग में बहुत भयानक नदी आई, जो कि सौ योजन चौड़ी थी, लहू और पाक से भरी थी, हड्डियों से भरे इसके किनारे थे, सांप और बिच्छुओं से भरी थी, उसके शरीर को जोके चिमट गईं। इस तरह अनेक क्लेशों और दुखों से भरे मार्ग से उसे ले जाया गया। और वह बड़ा दुखी होकर यह विचार करने लगा कि बड़े पुण्य कर्मों से यह मनुष्य शरीर मिला था पर संसार के मोह में पड़कर नष्ट कर दिया, परमात्मा ने धन दिया पर उसे किसी धर्म-कार्य में न लगाया, अब वो मेरे किसी काम न आया| न दान किया, न होम किया, न देवताओं की पूजा की, न साधु महात्माओं की सेवा की, न तीर्थयात्रा की। हाए, मैंने जीवन बर्बाद कर दिया। वो मेरे किसी काम न आया | हाय, मैंने जीवन नष्ट कर दिया।'
इस तरह पश्चात्ताप करता हुआ अंततः वह यमदूतों के साथ यमपुरी पहुंचा। वहां यमराज ने चित्रगुप्त को आज्ञा दी कि इस आदमी का बहीखाता लाओ। बहीखाता जब पढ़ा गया तो यमराज ने कहा कि इस आदमी को जितना दंड मिलना चाहिए था, मिल चुका हैअब इसको स्वर्ग में ले जाकर सुख भोगने दो। फिर इसे मृत्युलोक को भेज देना। इस तरह स्वर्ग के सुख भोगकर वह मृत्युलोक में वापस आ गया। उसने देखा कि उसकी स्त्री उसे जगा रही है और कह रही है कि जल्दी उठो, बहुत देर हो गई है। क्या काम पर नहीं जाओगे? वह आश्चर्यचकित हुआ शीघ्रता से उठा तो देखता है कि वह तो अपने शयनकक्ष में आराम से लेटा हुआ है। अर्थात् उसका नरक स्वर्ग में जाना ये सब उसके अपने मन की उपज थी, जो कि सब स्वप्न और मिथ्या था।
इसी तरह मनुष्य जब ज्ञान से अपने आत्मस्वरूप में जगता है तो उसे ब्रह्म (आत्मा) के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता। ईश्वर, जीव, प्रकृति ये तीनों ही एक ब्रह्म के चमत्कार दिखाई पड़ते हैं। अपने को सदा अखंड, निर्विकार, मायातीत, सर्वव्यापक और सच्चिदानंद ही मानता है। जैसे सच्चिदानंद ही मानता है। जैसे स्वप्न में वह बिना आंखों के देखता, बिना कानों के सुनता, बिना पांवों के चलता, बिना हाथों के पकड़ता है, अर्थात् उसका संकल्प ही सबकुछ कर दिखाता है, उसी तरह ईश्वर भी अपने संकल्प से ही संसार की रचना करता है। वह मन और इंद्रियों से परे है। मन, इंद्रियां उसकी सत्ता के बिना ये जड़ हैं। वेदांत वालों ने जीव, ईश्वर, प्रकृति की व्यावहारिक सत्ता मानी है। परंतु परमार्थिक सत्ता में तीनों को एक ब्रह्म ही माना है। जब ईश्वर की उपाधि सर्वज्ञता और जीव की उपाधि अल्पज्ञता को हटाकर देखा उपाधि अल्पज्ञता को हटाकर देखा जाए तो केवल ब्रह्म ही ब्रह्म रह जाता है।
इस निश्चय को प्रत्यक्ष करो कि ब्रह्म (आत्मा) के अतिरिक्त संसार त्रिकाल हुआ ही नहीं। मैं मन और इंद्रियां से अगोचर सदा अपनी आत्मा में स्थिर हूं। इसमें जितने संकल्प उठते हैं वे सब समुद्र में लहरों की तरह मिथ्या हैं। लहरें, फेन, बुलबुले पानी से पैदा होकर उसी में नाश को प्राप्त हो रहे हैं, परंतु पानी वैसा का वैसा विद्यमान है। स्वप्नावी ही तरह मुझ आत्मा में माया और अज्ञान के कारण संकल्प उठते हैं, परंतु मुझ आत्मा का कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैंमैं तो अखंड, निर्विकार ज्योति स्वरूप अपनी महिमा में वैसा का वैसा विद्यमान हूं|
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