शंका समाधान

क्या गुरु बिना मनुष्य की गति नहीं?



प्रश्न:- (1) गुरु धारण करने की क्या आवश्यकता है? क्या गुरु के बिना मनुष्य की गति नहीं हो सकती?


(2) गुरु गोबिन्द दोनों खड़े किसके लागु  पाय, बलिहारी गुरु आपने जिन गोबिन्द दियो मिलाय। क्या भगवान का स्थान गुरु से कम है जैसा कि इस श्लोक में लिखा है?


(3) आजकल भारत में कई गुरु माने जाते हैं, क्या इनमें से किसी एक को गुरु मानकर और गुरुमंत्र लेकर मनुष्य चौरासी लाख यौनियों से छूट सकता है?


उत्तरः- (1) जब मामूली लौकिक विद्या प्राप्त करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है, तो गहन-गम्भीर ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति हेतु वेद-उपनिषदों की विद्या को समझने के लिए अवश्य ही गुरु की शरण लेनी चाहिए।


(2) ''गुरु गोबिन्द दोनों खेड़े' “ये शब्द केवल गुरु भक्ति को प्रकट करने के लिए कहे गए हैं।" अन्यथा देहधारी गुरु और सच्चिदानन्द परमात्मा का क्या मुकाबला। ऐसे स्तुतिवाचक शब्द एक शिष्य के अपने गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए हैं, किसी गुरु के नहीं। गुरु वो स्वयं ही परमात्मा के उपासक हैं। वास्तविक गुरु परमात्मा की उपासना को पीछे डालकर अपनी उपासना कभी नहीं कराएगा; क्योंकि जब तक उसके साथ यह शरीर है वह जीव ही है, ईश्वर कोटि में नहीं हो सकता। हां, पूर्णज्ञान होने पर पांचवी या छटी भूमिका में पहुचने पर यदि उसका जीव भाव नष्ट हो जाए, तभी ईश्वर की कोटि में पहुंच सकेगा। परन्तु जो लोग योग साधनों से कुछ रिद्धि-सिद्धियां पाकर दूसरों के गुरु बन बैठते हैं, वे न तो स्वयं मुक्त होते हैं और न दूसरों को मुक्त कराने की सामर्थ्य रखते हैं। ऐसे लोगों ने ही 'गुरुडम' चला कर प्राचीन वेद-विद्या का लोप कर दिया है।


(3) हमारी राय में तो केवल ज्ञानवान पुरूष ही गुरु बनाने के योग्य है। ज्ञानी पुरूष सबमें अपना आप ही देखता है। वह न तो किसी का गरु बनता है और न ही किसी को शिष्य बनाता है। बनना, बनाना तो इसमें कुछ रहता ही नहीं। जिस प्रकार सूर्य सभी को बिना कुछ लिए दिए अपना प्रकाश देता है, वैसे ही ब्रह्मविद् भी सबको ब्रह्म रूप ही जानकर ब्रह्म-विद्या का अमृत सबको बांटता है। जो पुरूष स्वयं को गुरु समझता है और दूसरे को शिष्य रूप में देखता है, वह तो अज्ञानी है। इसकी दृष्टि में अभी संसार विद्यमान है। इसका अपना ही अज्ञान का पर्दा दूर नहीं हुआ, वह दूसरों को क्या ज्ञान देगा। इसलिए इस बात को सम्मुख रखकर ही किसी पुरूष में गुरु भाव रखना चाहिए कि वह श्रोतृ-वेद शास्त्रों के तत्त्व को जानने वाला और ब्रह्मनिष्ठी हो; विषय विकारों से मुक्त हो और जिसे लोक-परलोक दोनों की ही इच्छा न हो।



प्रकृति का यह अटल नियम है कि प्रत्येक दु:ख के पिछे सुख है। हम इस रहस्य को समझें। पहले आकाश में बादलों के टकराने से आवाज होती है। पीछे इन्द्र-धनुष का मनोहर दृष्य उपस्थित हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जीवन में जो जितना दुःख पाता है, उसका जीवन उतना ही आनन्द दायक होता है। इसलिए हमें दुःख से घबराना नहीं चहिए।



जिस मनुष्य को जैसी प्रकृति होती है वैसे ही स्वभाव का उसे गुरु भी मिल जाता है। या इस तरह कहें कि वह उसी स्वभाव का गुरु भी ढूंढ लेता है। कर्म, भक्ति और ज्ञान ये तीनों ही रास्ते हैं, जिन पर प्रत्येक जिज्ञासु को चलना पड़ता है। कर्मकाण्डी कर्म मार्ग पर चलाने वाले गुरु को प्राप्त करेगा, जो कर्मकाण्ड से ऊपर उठ कर भक्ति मार्ग में आ चुके हैं, वे उपासनारत गुरु को ढूंढ़ेगे और जो इन दोनों को पार कर निर्मल अन्त:करण हो चुके हैं और आत्मज्ञान के जिज्ञास हैं वे श्रोत. ब्रह्मनिष्ठी, ज्ञानी पुरूष को गुरु बना कर अद्वितीय ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करते हैं। ज्ञान ही परमलक्ष्य है। जब तक ज्ञान न हो, जीव का 'जन्म-मरण' समाप्त नहीं हो सकता। ज्ञानाग्नि में ही कर्मफल दग्ध होते हैंऔर जब तक कर्म न नष्ट हो मुक्ति से भव नहीं। इसलिए मुक्ति के इच्छुक ब्रह्मदर्शी गुरु के पास जकर आत्मज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करे। जो ज्ञान मार्ग प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा तप और अपने अनुभव के बाद तैयार किया गया था, जिसको सनातन वैदिक धर्म के नाम से जाना जाता है, उसे अपना और उस पर चलने में ही मनुष्य का कल्याण है|


Popular Posts