मैंने भगवद् गीता से क्या सीखा?
जिज्ञासा
भाग २
मैंने भगवद् गीता से क्या सीखा?
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रीतिपूर्वक निरन्तर भजन करने वालों भक्तों को मैं वह बुद्धियोग देता हूं जिससे वे मुझ परमात्मा को प्राप्त होते हैं। ऐसे भक्तों के ऊपर कृपा करने के लिए अन्तःकरण में स्थित हुआ ज्ञानदीप से मैं उनका अंधकार नाश करता हूं।
5. भगवान श्रीकृष्ण का आश्वासन है कि कोई भी कल्याणकारी और शुभकर्म करने वाला परूष लक्ष्य को प्राप्त करने से पूर्व ही असमय अन्तकाल को प्राप्त होता है। तो भी उसकी साधना व्यर्थ नहीं जाती। उस की आध्यात्मिक यात्रा अगले जन्म में वहां से आरम्भ होगी जहां से उस के द्वारा पूर्वजन्म में छट गई थी। भगवान श्रीकष्ण ने श्रीमद भगवद गीता में अनेक स्थानों पर पर्नजन्म की पुष्टि की है। ग्रंथ में एक
6. इस पवित्र ग्रंथ में एक महत्वपूर्ण ज्ञान है। जो मनुष्य अन्तकाल में शरीर त्याग करने के समय मुझ परमात्मा (भगवान श्रीकृष्ण) को ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है वह मुझ परमात्मा को ही प्राप्त होता है। इस में कुछ संशय नहीं है। यह जानकर कितना सरल लगता न है अन्त समय में यदि प्रभु का नाम लेंगे तो प्रभु को ही प्राप्त कर लेंगे। परन्तु ज्यादातर प्राण त्यागने के समय मनुष्य इतनी भयंकर पीड़ा तथा वेदना में होता है और विस्मृत सा हुआ पड़ा रहता है। यह संभव नहीं हो पाता जब तक पूर्ण जीवन काल में निरन्तर स्मरण न किया हो और यह भी कैसे मालूम चले कि यह अन्त समय है? जो मनुष्य अन्त समय के जिस-जिस भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है वह मनुष्य उस भाव को अगले जन्म में प्राप्त होता है।
7. भगवान श्रीकृष्ण ने निम्नलिखित श्लोक में स्पष्ट किया है कि प्रकृति भगवान श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में चराचर सहित सर्व जगत की रचना करती है।
मया अध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते स चर अचरम
हेतुना अनेन कौन्तेय जगत् चिपरिवर्तते॥ गीता अध्याय 9- श्लोक 10॥
यह बात सभी साधकों को और जिज्ञासओं को स्पष्ट हो जायेगी कि. प्रकति भी परमात्मा के नियंत्रण में है।
8. भगवान श्रीकष्ण ने निम्नलिखित श्लोक में आश्वासन दिया है कि दुराचारी से दुराचारी का भी उद्धार हो सकता है। अगर वह परमात्मा की अनन्य भक्ति में संलग्न और दृढ़ निश्चयी हो सकता है|
अपि चेत् सुदुराचारः भजते माम् अनन्यभाक्।
साधुः एव सः मन्तव्यः व्यवसितः हि सः॥ गीता अध्याय 9- श्लोक 30॥
9. भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रीतिपूर्वक निरन्तर भजन करने वालों भक्तों को मैं वह बुद्धियोग देता हूं जिससे वे मुझ परमात्मा को प्राप्त होते हैं। ऐसे भक्तों के ऊपर कृपा करने के लिए अन्त:करण में स्थित हुआ ज्ञानदीप से मैं उनका अंधकार नाश करता हूं।
10. इस शरीर को क्षेत्र अर्थात कर्म क्षेत्र कहा है और इस क्षेत्र अर्थात शरीर को जानने वाला क्षेत्रज्ञ अर्थात आत्मा कहा है। जितने भी चर और अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं उन्हें प्रकृति और पुरूष अर्थात क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न जानो। जिस प्रकार पंखा और बिजली इन दोनों में एक भी न हो तो पंखा नहीं चल सकता उसी प्रकार क्षेत्र और क्षेत्र इन दोनों में एक भी उपलब्ध न हो तो कोई भी रचना नहीं हो सकती।
जैसे एक ही सूर्य सर्वजगत को प्रकाशमय कर देता है वैसे ही एक ही आत्मा पूर्ण (क्षेत्र) शरीर को प्रकाशित (चेतना प्रदान) कर देता है।
11. प्रकृति से उत्पन्न तीन गुण सतो गुण, रजो गुण, और तमो गुण अविनाशी जीव आत्मा को शरीर से बांधते हैं। यह तीनों गुण मनुष्य को कर्म करने के लिए बाधित करते हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी में, आकाश में या अन्य कही भी ऐसा कोई स्थान नहीं है जो प्रकृति के इन तीन गुणों से रहित हो|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह त्रिगुणमयी मेरी माया अति दुस्तर है परन्तु जो मेरी अनन्य और निरन्तर भक्ति करते हैं वह इस मायारूपी संसार से तर जाते हैं अथवा इन तीनों गुणों को पार कर जाते हैं|
12. भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस शरीर में सनातन जीवात्मा का एक ही कार्य है इस प्रकृति में स्थित मन और इन्द्रियों को आकर्षित करता हैपूर्व जन्म के संस्कार किस तरह से वर्तमान जीवन को प्रभावित करते हैं इसके बारे में भी भगवान श्रीकृष्ण ने निम्नलिखित श्लोक में बहुत ही सुन्दर विवरण किया है-
शरीरम् यत् अवामोति यसत् च अपि उत्कामति ईश्वर
गृहीत्वा एतानि संयाति वायुः गंधान् इव आशयात्॥ गीता अध्याय 15- श्लोक 8॥
जिस प्रकार वायु गंध को ग्रहण करके एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाती है वैसे ही जीवात्मा मृत्यु के पश्चात मन और इन्द्रियों को सूक्ष्म रूप से एक शरीर (जिस का त्याग किया है) से दूसरे शरीर (जिसमें प्रवेश करता है) में ले जाता है। इसी कारण एक ही परिवार और वातावरण में पले दो बच्चे अलग स्वभाव और व्यक्तित्व के होते हैं।
13. श्रीमद्भगवद्गीता में मनुष्य समुदाय को दो प्रकार कहा है। एक दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी और दूसरे आसुरी प्रकृति वाले अज्ञानी। इन दोनों प्रकृति वाले मनुष्यों के लक्षण भी विस्तार से कहे गये हैं। काम, क्रोध और लोभ इन तीनों को नरक के द्वार कहा गया है। जो मनुष्य को अधोगति (पतन) में ले जाने वाले होते हैं। इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरूष अपने कल्याण का आचरण करता है। और परमगति को प्राप्त होता है।
14. मनुष्य की स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा निष्ठा भी तीन प्रकार की होती है। भोजन यज्ञ तप और ज्ञान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। बिना श्रद्धा से किये हुए यज्ञ तप और दान आदि शुभ कर्म भी असत् कहे गये हैं। असत् कहे गये हैं। जिन की न इस लोक में और न । ही परलोक में कोई सार्थकता है अर्थात वे व्यर्थ और अर्थहीन हैंइसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने त्याग, ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, । घृति (धारण शक्ति) और सुख के भी तीन प्रकार अर्थात सात्विक, राजसिक और तामसिक कहे हैं।
15. अन्त में भगवान श्रीकृष्ण ने परम गोपनीय वचन कहे हैं- मुझ परमात्मा में मन लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा और भजन करो, मुझे नमस्कार करो, ऐसा करने से तुम मुझे ही प्राप्त करोगे। सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता का सार - इस प्रकार कहा है- हे अर्जुन! सर्व धर्मो अर्थात सर्व कर्त्तव्य कर्मों को मुझ परमात्मा में परित्याग कर। तू केवल एक मुझ ईश्वर की शरण में आ जा। शोक मत कर। मैं तुझे समस्त पापों से अर्थात कर्म बंधनों से मुक्त कर दूंगा। जब पूर्णतया कोई परमात्मा की शरण में है, तो सर्व धर्म कर्म स्वतः शुभ होंगेइस के पीछे fa बहुत ही सुन्दर मनोविज्ञान है और उससे भी श्रेष्ठ यह आत्मविज्ञान है। इस आत्मज्ञान से अर्जुन का मोह नष्ट हुआ। हम भी शरणागति से अपने जीवन का विषादृ समाप्त कर आनन्दमय और सार्थक जीवन की ओर अग्रसर हो सकेंगे। हरिओम् तत् सत्।