एक भयानक मूर्खता
निति कथाएं
एक भयानक मूर्खता
(एक पागल)
हिन्दुस्तान के एक ग्राम में एक आधा पागल रहता था। जैसे यहाँ, अमेरिका में अप्रैल के महीने में दूसरों को उल्लू बनाने की रीति है, वैसे ही भारतवर्ष में मार्च के महीने में लोग अपने यार-दोस्तो के साथ तरह-तरह की ठट्टा-मसखरी किया करते हैं। उस ग्राम के हंसमुख युवकों ने उस नीम पागल से मजाक करने का यह अच्छा अवसर समझा। बस, उन सबों ने उसे कुछ शराब पिलाकर मस्त बना डाला. और फिर उसके परम विश्वस्त परमप्रिय परम हार्दिक मित्र को उसके पास भेज दिया। उस पगले मनुष्य के नजदीक आते ही उसका मित्र गला फाड़कर चिल्लाने लगा, आँखों से दिखावटी आँसुओं की धारा बहाने लगा, रोने-धोने लगा, और बोला, "भाई, मैं तुम्हारे घर से अभी-अभी आ रहा हूँ, यहाँ मैने देखा कि तुम्हारी स्त्री विधवा हो गयी है, मैंने उसे विधवा देखा।" इस पर वह पागल भी अपनी पत्नी के वैधव्य पर रोने चिल्लाने और विलाप करने लगा और आँसू बहाने लगा। अन्त में दूसरे लोग आकर पूछने लगे, "तुम रोते क्यों हो?" पगले ने उत्तर दिया, मेरी स्त्री विधवा हो गयी है?इसी से रोता हूँ।" वे बोले, "यह कैसे हो सकता है?तुम तो जीते हो और कहते हो मेरी स्त्री विधवा हो गयी है?अभी तक तुम मरे नहीं और तुम स्वयं अपनी स्त्री के वैधव्य पर शोक कर रहे हो, यह तो बिल्कुल बेतुकी बात है" पर पगला कहने लगा, “अरे जाओ, तुम नहीं जानते, तुम नहीं समझते, हमारे उस अत्यन्त विश्वासपात्र मित्र ने कहा है जो अभी हमारे घर से होकर आ रहा है उसने हमारी स्त्री को वहां विधवा देखा है। वह इस बात का साक्षी है, वह देख आया है कि मेरी स्त्री विधवा हो गयी है।" लोगों ने कहा, “देखो, यह कैसा भारी अनर्थ, बेहूदापन है" और सभी उस पर हंसने-ठहाका लगाने लगे। अभी हम इस मूढ़ की कहानी पर विनोद कर रहे हैं कि वह अपनी स्त्री के वैधव्य पर रो रहा था और लोगों की बात नहीं मानता था कि उसके जीवित रहते उसकी स्त्री विधवा नहीं हो सकती, मानों अपने व्यवहार से वह कह रहा है:
“तुम तो कहते हो सच मेरे भाई
पर घर से आया है मोखबर नाई।"
किन्तु याद रहे जगत के मत-पथ, धर्म तथा सभी दंभी, अभिमानी और 'फैशनेबुल' लोग ऐसी ही विकट असभ्मव बातें कर रहे है। न तो वे अपने नेत्रों से देखते हैं और न मस्तिष्क से सोचते हैं। यहां ही देखिये, आपकी अपनी आत्मा, आपका सच स्वरूप, प्रकाशों का प्रकाश, निरंजन, परम-पवित्र, स्वर्गों का स्वर्ग, आपके भीतर विद्यमान है। आपका अपना आप, आपकी आत्मा सर्वदा जीवित, अजर, अमर, नित्य उपस्थित है, फिर भी आप रो-रोकर आँसू बहाते हुए कहते हो, “अरे हमें सुख कब प्राप्त होगा?" और देवताओं का आह्वान करते हो कि वे आकर तुम्हें विपत्ति से उबार दें।
आप देवताओं के आगे प्रणिपात होते हो, नीच भिखारी पन का अनुसरण करते हो, और स्वयं अपने को तुच्छ समझते होक्योंकि अमुक लेखक, अमुक उपदेशक या महात्मा अपने को पापी कह गया है वह हमें कीड़े-मकोड़े कहकर पुकारता है। इसलिए हमें भी वही करना चाहिए, इसलिए अपने को मृतक समझने में ही हमारी मुक्ति है। इसी तरीके से लोग सभी चीजों पर दृष्टि डालते हैं, पर इससे काम चलने का नहीं। अपने निज जीवन का अनुभव करने लग जाओ, अपनी निजात्मा का मान करना आरंभ कर दो। इस नशे की हालत को विदा कर दो, जो आपको अपनी मृत्यु पर रूला रही है। अपने पैरों पर आप खड़े हो जाओ, चाहे आप छोटे हों या बड़े, चाहे आप उच्च पद पर हों या नीच पद पर इसकी तनिक परवाह न करो। अपनी प्रभुता का, अपनी दिव्यता का साक्षात्कार करो। चाहे कोई हो, उसकी ओर निःशंक दृष्टि से देखो, हटो मत। अपने आपको औरों की दृष्टि से अवलोकन मत करो, बल्कि अपने आप में देखो। आपका औरों की दृष्टि से अवलोकन मत करो, बल्कि अपने आप में देखो। आपका अपना आप आपको बारबार यह उपदेश देगा कि “सारे संसार में आप सबसे महान आत्मा हो।"
निष्कर्षः- यद्यपि मनुष्य के अन्दर सर्व आनन्द का भण्डार है फिर भी हम सुख, शान्ति के लिये क्रन्दन करते हैं और अपने आपको पापी और दुखी समझते हैं, इसका कारण यह भयानक मूर्खता है कि दसरे लोग उसे ऐसा ही कहते हैं और हमें भी ऐसा करना चाहिए।