क्या ज्ञानी को भी ईश्वर-भक्ति की आवश्यकता है?
शंका समाधान
प्रश्न - ज्ञानवान् हो जाने पर द्वैत मिट जाता है। फिर ईश्वर की उपासना करने की क्या आवश्यकता है? जब जीव ईश्वर एक हैं तो कौन किसकी उपासना करे? (दीवान चन्द शर्मा)
उत्तर- वेदांत का मूल सिद्धांत है- 'मुख्या भक्ति, वरतन वैराग और निश्चय ज्ञान'- इसका भावार्थ यह है कि ईश्वर भक्ति को सदा सम्मुख रखना चाहिएऔर जब सांसारिक कामों में प्रवृत्त होवें तो सांसारिक पदार्थों को मिथ्या जानकर व्यवहार करें, जिससे मन उन्हीं में मोहित होकर न रह जाएचींटी की तरह किनारे पर ही बैठकर शहद खाना ठीक है, मक्खी की तरह इसमें फंसकर प्राण त्याग देना मूर्खता है|
'अहं ब्रह्मास्मि' - (मैं ब्रह्म हूं) यह ज्ञान निश्चय में रखो और 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' (यह सब ब्रह्म है) यह ज्ञान भी समदर्शिता के लिए है अर्थात् सब में ब्रह्म भाव रखना उचित है पर समवर्ती होना ठीक नहीं। ब्राह्मण और दूसरी जातियां, सबमें एक ही आत्मा है परंतु शारीरिक दृष्टि से सब अपनी-अपनी जगह हैं।
मां, बहन, स्त्री सब में एक ही आत्मा है पर व्यवहार में सब अपनी-अपनी जगह हैं। ज्ञानदृष्टि से जीव, ईश्वर, प्रकृति सब एक ब्रह्म के ही चमत्कार हैं परंतु व्यावहारिक दृष्टि से तीनों पृथक-पृथक मानने पड़ते हैंक्योंकि जब तक मनुष्य ज्ञान की अंतिम सीमा तक नहीं पहुंच जाता, तब तक उसे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् (माया सहित चेतन) ईश्वर की आराधना करनी ही चाहिए। वही ज्ञान का दाता है| उसी की भक्ति से ज्ञान का फल मिलता है। जो ईश्वर उपासना नहीं करते उनका ज्ञान केवल शाब्दिक होता है, उन्हें सिद्धि प्राप्त नहीं होती| वाचक ज्ञानियों को चाहिए कि वे भगवान वेदव्यास और भगवान शंकराचार्य, जिनके द्वारा हमें वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ है और जो वेदांत के आचार्य थे, उनके जीवन आदर्श को सामने रखें। 'अन्नपूर्णा स्तोत्र' में भगवान शंकराचार्य ने माता पार्वती से भक्ति और ज्ञान की भिक्षा मांगी है। हालांकि वे स्वयं शिव का आंशिक अवतार थे और उन्होंने अद्वैत मत का प्रचार किया, फिर भी उन्होंने योग और भक्ति का त्याग नहीं किया। आश्चर्य है कि हम दो-चार वेदांत की पुस्तकें पढ़कर ही स्वयं को ज्ञानी समझने लगते हैं।
वास्तविक ज्ञान वही है जो भक्ति के बाद प्राप्त हो।ज्ञान तो फल है, साधन नहीं। कर्म, उपासना, भक्ति साधन हैं। जो मनुष्य फल प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने अंतःकरण में यज्ञ, संध्या, उपासना, गायत्री आदि शास्त्रिक कर्मों का बीज बोकर उसको भक्ति के जल से सींचे।
इस युग में संत तुलसीदास से बढ़कर और कौन विद्वान् होगा, उन्होंने जिस रूप से ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग का वर्णन किया, वह अति उत्तम है। उन्होंने भक्ति के साथ ही साथ ज्ञान की भी खब महिमा गाई है। इसलिए हमें भी उनका अनुसरण करते हए परमात्मा कीक आराधना करनी चाहिए और उनसे ब्रह्मज्ञान की भिक्षा मांगनी चाहिए|
गरू नानक देव, गुरू अर्जुन देव और सभी गुरू जहां योगी और ज्ञानी थे, वहीं ईश्वर के अनन्य भक्त भी थे। गुरूग्रंथ साहिब की वाणी ज्ञान को भक्ति के रंग में वर्णन करती है। याद रहे कि वास्तविक ज्ञान वही है जो भक्ति के बाद प्राप्त हो। जैसा कि हमारे सामने स्वामी रामतीर्थ का उदाहरण है। ज्ञान तो फल है, साधन नहीं। कर्म, उपासना, भक्ति साधन हैं। जो मनुष्य फल प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने अंत:करण में यज्ञ, संध्या, उपासना, गायत्री आदि शास्त्रिक कर्मों का बीज बोकर उसको भक्ति के जल से सींचेफिर वही वृक्ष फले-फूलेगा और ज्ञान रूपी अमृत फल देगा। संध्या, उपासना आदि से निर्मल हुए राग-द्वेष, कोध, मोह, लोभ आदि से विरक्त, हृदय में ही ज्ञान का उदय होता है। तभी सब ब्रह्ममय दिखाई देता हैईश्वर, जीव, प्रकृति किस तरह मिथ्या है, किस तरह व्यावहारिक हैं, ये सब शंकाएं समाप्त होती हैं\
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