रोग से भागे नहीं लक्षण पहचानें
स्वास्थ चिंतन
मानसिक रोगों के बारे में बहुत गलतफहमियां हैं। प्रायः हम समझ ही नहीं पाते कि हमारे साथ वाला व्यक्ति मानसिक बीमारी से पीड़ित है। वास्तव में मानसिक रोग एक सुपरिभाषित क्षेत्र है। कहने का मतलब है कि विशेष तरह के लक्षणों को देखकर आप इसे ठीक-ठीक पहचान सकते हैं और व्यवहार की अन्य सामान्य परेशानियों से आप इसका अंतर कर सकते हैं। भारत में इसके बारे में सही समझ का विकास इसलिए भी जरूरी है कि मानसिक रोग को पागलपन का पर्याय समझा जाता है जबकि ऐसा नहीं है। शारीरिक रोगों की तरह मानसिक रोग इलाज से ठीक किए जा सकते हैं। मानसिक रोग कई प्रकार के होते हैं। किसी भी एक प्रकार का मानसिक रोग होने पर जीवन और व्यवहार का कोई एक क्षेत्र प्रभावित होता है समस्त जीवन नहीं।
मनोविज्ञान में मानसिक रोगों के बारे में असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है और मनोचिकित्सा (साइकियाट्री) में इसका अध्ययन साइकोपैथोलोजी के अंतर्गत किया जाता है। मानसिक रोग लोगों के महसूस करने (फीलिंग), प्रत्यक्षण करने (परसीव) या संज्ञान में लेने (काग्नीशन) के पैटर्न में व्यवधान है जो उसके व्यवहार में असामान्यता बनकर अभिव्यक्त होता है। इससे पीड़ित व्यक्ति और उसके परिवार के दैनन्दिन जीवन के संतुलन और खुशियों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। यह व्यक्ति के मस्तिष्क या तंत्रिका तंत्र के किसी भाग में किसी असामान्यता के कारण उत्पन्न होता है। मानसिक स्वास्थ्य और रोग की परिभाषा अलग-अलग संस्कृतियों और समयों पर अलग-अलग की जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के सभी देशों में लगभग एक तिहाई लोग जीवन में कभी न कभी किसी न किसी मानसिक रोग के बारे में रिपोर्ट करते हैं। यानि मानसिक बीमारियां बहुत आम हैं|
मानसिक रोगों का इलाज अस्पताल की मदद से हो सकता है। कई मामलों में घर-परिवार और समुदाय के द्वारा भी पेशेवरों की सलाह से मानसिक रोगों का व्यवस्थित तरीके से इलाज संभव होता है। मानसिक रोगों के इलाज के लिए तीन प्रकार के पेशेवरों को मान्यता दी जाती है। आमतौर पर किसी भी एक मरीज के इलाज के लिए तीनों प्रकार के पेशेवर मिलजुल कर और आपसी समन्वय से काम करते हैं। ऐसे इलाजों के लिए मनो चिकित्सक (साइकियाट्रिस्ट) डॉक्टरी की डिग्री यानि एम.बी.बी.एस. और एम.डी. वाले पेशेवर होते हैं। दवाइयां लिखने का अधिकार कानूनी रूप से मात्र इन्हें ही है। नैदानिक मनोवैज्ञानिक (क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट) वह पेशेवर हैं जो नैदानिकी में विशेषज्ञता के साथ मनोविज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त होते हैंये जीवनचर्या के संबंध में परामर्श देते हैं और विशेष प्रकार के व्यवहारगत प्रशिक्षण भी देते हैं। इनका लक्ष्य मरीज के सोच और विचार में निर्णायक परिवर्तन करना होता है। नैदानिक सामाजिक कार्यकर्ता (क्लिनिकल याइकियाट्रिक सोशल वर्कर) भी मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर होते हैं। मनोचिकित्सा (साइकोथेरेपी), दवाईयां, सामाजिक रूप से देखरेख, स्व-सहायता और प्रिवेंशन यह सभी चिकित्सा के मान्य रूप है। अधिकांश समाजों में मानसिक रोगों के साथ लांछन _ (स्टिगमा) जुड़ा होता है जो समाज में जागरूकता से दूर होता है।
मानसिक स्वास्थ्य में अनेक प्रकार की समस्याएं आती हैं। अधिकांश लोग मानसिक रोग का सीधा मतलब पागलपन से लगाते हैं जिसमें वह व्यवहार में चरम प्रकार की प्रतिक्रियाओं जैसे हिंसा, उपद्रव आदि को लेते हैंतथापि, मानसिक रोगों को उसके व्यापक अर्थ में लिया जाए तो इससे पीड़ित व्यक्ति दिखने और ऊपरी व्यवहारों में अन्य लोगों के समान हो सकता है। ऐसे रोगों में अवसाद (डिप्रेशन), दुष्चिंता (एंजाइटी), नशाखोरी (एडीक्शन) आदि आते हैं। अब यह व्यापक रूप से मान्य है कि मानसिक रोग किसी भी व्यक्ति को प्रभावित कर सकता है। मानसिक रोगों के बारे में आमतौर पर माना जाता है कि ये शारीरिक समस्याओं की तुलना में कम गंभीर होते हैं, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार काम करने में बिल्कुल असमर्थ करने वाली (डिसएबलिंग) स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में गिनी जाने वाली दस समस्याओं में चार मानसिक रोग की श्रेणी में आती हैं। मानसिक रोगों की ओर ध्यान जाने का एक बड़ा कारण यह है कि सामुदायिक बिखरावों के कारण भी अब पेशेवर मानसिक स्वास्थ्य कर्मियों की आवश्यकता पड़ने लगी है जबकि ऐसे कर्मियों की संख्या अभी बहुत कम है। मानसिक रोगों के साथ लांछन जुड़ा होने के कारण प्रायः रोगी और उसके परिवार के लोगों में अपनी समस्या को छिपाने की प्रवृत्ति होती है। विशेष सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में इस लांछन और उससे उत्पन्न स्थितियों का सामना करने से संबंधित पद्धतियां भी मानसिक स्वास्थ्य कर्मियों के प्रशिक्षण का भाग होती हैं। मानसिक रोगों को उनके जिन लक्षणों (सिम्पटम)के आधार पर पहचाना जाता है उन लक्षणों को दर्ज करने की पद्धतियां मानसिक स्वास्थ्य के पेशे में विकसित की गई हैं। ऐसी पद्धतियों में मरीज और उसके जानकारों का साक्षात्कार प्रमुख है। मानसिक रोगों के प्रमुख लक्षणों में एक है मनोदैहिक (साइकोसोमैटिक) लक्षणअधिकांश मानसिक समस्याएं किसी न किसी प्रकार का शारीरिक लक्षण पैदा करती है। दूसरी स्थिति है भावनात्मक स्थितियों (इमोशनल स्टेट) में परिवर्तन जिससे मानसिक रोगों को पहचाना जा सकता है, जैसे अवसाद (डिप्रेशन) में अन्य लक्षणों के साथ-साथ उदासी भी एक अनिवार्य लक्षण है। मानसिक रोगों के लक्षणों की तीसरी श्रेणी सोच का तरीका (थिंकिंग) या अनुभूति अथवा संज्ञान _ (कॉग्नीशन) में परिवर्तन है। इसी प्रकार, इन रोगों को व्यवहार करने के तरीकों तथा कल्पना (इमैजिनिंग) और प्रत्यक्षण करने (परसेप्शन) में परिवर्तनों के अध्ययन से भी पहचाना जा सकता है। मानसिक स्वास्थ्य के पेशे में मानसिक रोगों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है। सामान्य रूप से किए जाने वाले वर्गीकरण के अनुसार मानसिक रोगों में सामान्य मानसिक रोग, गलत आदतों के रूप में अभिव्यक्त मानसिक रोग. गंभीर मानसिक व्याधियां या साइकोसिस, मानसिक मंदन (मेंटल रिटार्डेशन), वृद्धों की मानसिक समस्याएं और बच्चों की मानसिक समस्याएं शामिल हैं।
सामान्य प्रकार के मानसिक रोगों में अवसाद (डिप्रेशन) और दुष्चिंता (एंजाइटी) जैसी भावनात्मक समस्याएं आती हैं। अवसाद, उदासी की समस्या है लेकिन जब यह दैनन्दिन जीवन की कार्यक्षमता पर कुप्रभाव डालना शुरू करता है तब इसे एक समस्या माना जाना चाहिए। इसके साथ जुड़े हुए लक्षण थकान और ध्यान लगाने में कमी का होना है। उदासी जब लंबे समय तक विशेषकर एक महीने से अधिक ठहरती है तो उसे अवसाद की समस्या कहते हैं। दुष्चिंता के लक्षण में डर और बेचैनी की भावनाएं गिनी जाती हैं। डिप्रेशन की तरह यह भी सामान्य दशाओं में सामान्य है पर लंबे समय तक रह जाए तो एक समस्या है। सामान्य प्रकार के मानसिक रोगों में वैसी अनेक भावनात्मक समस्याएं और उससे उत्पन्न शारीरिक लक्षण आते हैं जो अवसाद और दुष्चिंता के मिले-जुले लक्षण होते हैं। बदहवास डर (पैनिक), आशंका रूपी भय (फोबिया), जुनूनी और बाध्यकारी व्यवहार (आब्सेसिव कम्पल्सिव बिहेवियर) इसके उदाहरण हैं।
दूसरी श्रेणी के मानसिक रोगों में वैसी आदतें आती हैं जिन पर निर्भरता हो जाती है, व्यक्ति के लिए बिना हस्तक्षेप (इंटरवेंशन) उसे छोड़ना मुश्किल हो जाता है, जिसके न मिलने पर व्यक्ति बेचैन हो जाता है. और इस प्रकार की निर्भरता उसके जैविक स्वास्थ्य के साथ-साथ उसके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर प्रभाव डालती हैनशे की लत, मादक द्रव्यों की लत आदि इस श्रेणी में आती हैं। इन लतों में शारीरिक और व्यवहार की समस्याओं के साथ-साथ महसूस करने (फीलिंग) और प्रत्यक्षण (परसेप्शन) तथा सोचने (थिंकिंग) और अनुभूति या प्रज्ञान (काग्नीशन) पर भी बुरा असर पड़ता है|