विषाद योग,गीता सार
प्रथम अध्याय (विषाद योग)
श्रीमद् भगवद् गीता के प्रथम अध्याय को विषाद योग कहते हैं। इसका अभिप्राय है, कि जब जीवन में प्रतिकूलतायें, दुख, पीड़ा, वेदना, बाधाएं, विपत्ति, शोक आदि आते हैं तो उसके पीछे कुछ न कुछ अच्छा और शुभ भी होता है।
इस अध्याय के आरम्भ में उन परिस्थितियों का वर्णन है जो महाभारत के युद्ध से पूर्व की थी। महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के मध्य हुआ, जिसका कारण कौरवों द्वारा पांडवों के साथ अन्याय और उन्हें उनके अधिकार से वंचित करना था। युद्ध में पांडवों की ओर से वीर अर्जुन मुख्य महारथी थे और श्री भगवान कृष्ण उसके दिव्य रथ के सारथी बने। कौरवों की ओर से पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, गुरू कृपाचार्य आदि मुख्य महारथी थे, जो दुर्योधन (कौरवों का ज्येष्ठ युवराज) के लिए अपनी-अपनी निष्ठाओं के कारण अधर्म के पक्ष की ओर से युद्ध कर रहे थे। अर्जुन ने दोनों सेनाओं के योद्धाओं और उनकी व्यूह रचना का निरीक्षण करने हेतु श्री भगवान के सम्मुख अपनी इच्छा प्रकट की|
प्रकट कीश्री भगवान, उस अलौकिक रथ को दोनों सेनाओं के ठीक मध्य भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण और गुरू कृपाचार्य के सामने खड़ा कर देते हैं। अर्जुन अपने प्रियजनों, सगे संबंधियों, गुरूजनों को देखकर तीव्र विषाद, मोह और शोक में चला जाता है और कम्पन करते हुए युद्धकरने में असमर्थता प्रकट करता है।
अर्जुन का विषाद, अज्ञान, शोक और मोह एक महान सुन्दर, अद्भुत, पवित्र, विलक्षण ज्ञान की उत्पत्ति का कारण बने, जो स्वयं श्री भगवान के मुखारविन्द से निकला और अर्जुन इस ज्ञान के प्रकट होने के निमित्त बने।
अर्जुन के विषाद से उत्पन्न स्थितियां और आज के जीवन काल से उत्पन्न समस्याएं भी उतनी ही विकृत और द्वन्द्वपूर्ण हैं। श्री भगवान ने अर्जुन की समस्याओं का उपचार, जिस ज्ञान से किया, यह ज्ञान सर्व देश काल के लिए है और आज के युग में भी उतना ही प्रासंगिक और व्यवहारिक है, जिसके मार्गदर्शन से मनुष्य किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है।
अध्याय- 2 (सांख्य योग)
दूसरे अध्याय का सार इस प्रकार है- श्री भगवान ने इसमें मुख्यतः तीन बातें कही हैं। प्रथमः हम शरीर नहीं हैं, हम आत्मा हैं। आत्मा अविनाशी और सनातन हैं। इस प्रकार आत्मा अविनाशी और सनातन होने के कारण असंख्य शरीर धारण करता है।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र उतारकर नये वस्त्र धारण करता हैउसी प्रकार जीवात्मा पुराने और जर्जर शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करता है। आत्मा अमर, नित्य, सनातन, पुरातन और अविनाशी है। इसे शस्त्र काट नहीं सकते, वायु सुखा नहीं सकती, जल गला नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती है। आत्मा अक्षर, अचल, स्थिर रहने वाला, अव्यक्त और विकाररहित है। (आत्मा परमात्मा का ही अंश है)।
द्वितीयः कर्म करना हमारे अधिकार में है। पर फल हमारे अधिकार में नहीं है। कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं, पर फल प्राप्त करने में स्वतंत्र नहीं हैं। (श्री भगवान जब जगत की रचना करते हैं तो रचना के साथ कुछ शाश्वत नियम रहते हैं क्योंकि परमेश्वर सर्व नियामक हैं, प्रभु हैं। इन नियमों में एक है, कर्म का अधिकार। कर्म में इसके तीनों भाग भी आ जाते हैं।
पहला है- विचार, दूसरावाणी और तीसरा- विचार और वाणी का कर्म में कार्यान्वित होना, जिसे कर्म भी कह सकते हैं।
कर्म के तीनों भागों की स्वतंत्रता में परमेश्वर हस्तक्षेप नहीं करते। पर उसका फल कर्म के अनुसार ही निर्धारित होता है) कर्म फल की इच्छा न हो और अकर्म में भी हमारी आसक्ति न हो और अकर्म में भी आसक्ति को त्यागकर सिद्धि और असिद्धि में समबुद्धियोग में स्थित होकर कर्त्तव्य कर्म करें। समभाव ही योग कहा गया है। समत्व बुद्धियोग से सकाम कर्म या फल के हेतु कर्म निम्न हैं। सम बुद्धियुक्त पुरूष पाप और पुण्य दोनों को त्याग देता है।
यह समत्वरूप योग ही कर्मो की कुशलता है, अर्थात कर्म बंधन से मुक्त होने का मार्ग है। इसलिए भगवान समत्वरूप योग में आरूढ़ होने को प्राथमिकता देते हैं। तृतीयः इस अध्याय में अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान ने स्थितप्रज्ञ और स्थिर बुद्धि के लक्षण बताये हैं। श्री भगवान ने बताया कि किस तरह से बुद्धि अस्थिर और विचलित हो जाती है। श्री भगवान कहते हैं- भान्ति भान्ति के और विपरीत वचनों को सुन सुनकर बुद्धि विचलित और अशान्त हो जाती है। विषयों, वासनाओं के चिन्तन से मुक्त होकर जब बुद्धि परमात्मा की समाधि में प्रवेश करती है, उस योग में अग्रसर होने पर बुद्धि स्थिर और पूर्ण शान्त हो जाती है(परमात्मा से दूर करने वाली भौतिक चर्चायें और विषय, बुद्धि को अस्थिर करते हैं।)
इसके उपरान्त श्री भगवान कहते हैं- जिसने सर्वकामनायें त्याग दी हैं और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट है, जो दुख आने पर विचलित न हो और सुख आने पर उसके उन्माद में न रहे, जिसके सर्व राग, भय और - क्रोध नष्ट हो गये हैं, जिसकी इन्द्रियां मन और बुद्धि वश में हैं, वह स्थित प्रज्ञ और स्थिर बुद्धिमान है। इन्द्रियों का सुख किस प्रकाश इन्द्रियों का सुख किस प्रकाश विनाश कर देता है- इसके लिए इस अध्याय में कहा है- मनुष्य जब विषयों का चिन्तन करता है तब उसको विषयों में आसक्ति से कामनायें उत्पन्न होती हैं, कामना में बाधा आने से क्रोध उत्पन्न __ होता है। क्रोध से मूढ़भाव उत्पन्न होता है। मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम पैदा होता है। स्मृति में भ्रम पैदा होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। ऐसा होने पर मनुष्य का विनाश हो जाता है|
विनाश परन्तु जिस पुरूष की इन्द्रियां मन और बुद्धि वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर और शान्त है। सर्व कामनाओं को त्यागने वाला, ममतारहित, अहंकार रहित, लालसा रहित पुरूष शान्ति को प्राप्त होता है। (स्थितप्रज्ञ और स्थिर बुद्धिवाला मनुष्य ही महान कार्य कर सकता है। आत्म ज्ञान प्राप्त कर सकता है)।