चैतन्य महाप्रभु की विलक्षण महिमा
महिमा
चैतन्य महाप्रभु वैष्णव धर्म के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इनकी जयन्ती 5 मार्च को है। चैतन्य महाप्रभु बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हैरान हो जाता था।
चैतन्य महाप्रभु के बचपन का नाम निमाई था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी कियानिमाई बाल्यावस्था से ही भगवद् चिन्तन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन् 1505 में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ |जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।
चैतन्य के बड़े भाई विश्वरूप ने बाल्यावस्था में ही संन्यास ले लिया था, अतः न चाहते हुए भी चैतन्य को अपनी माता की सुरक्षा के लिए चौबीस वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना पड़ा। कहा जाता है कि इनका विवाह वल्लभाचार्य की सुपुत्री से हुआ था।
वृंदावन की विधवाएं
चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को वृंदावन आकर प्रभु भक्ति के रास्ते पर आने को प्रेरित किया थावृंदावन करीब 500 वर्ष से विधवाओं के आश्रय स्थल के अधिकतर अनपढ़ और बांग्लाभाषी। वृंदावन की ओर बंगाली विधवाओं केरुख के पीछे मान्यता यह है कि भक्तिकाल के प्रमुख कवि चैतन्य महाप्रभुका जन्म 1486 में पश्चिम बंगाल के नवद्वीप गांव में हुआ था। वे 1515 में वृंदावन आए और उन्होंने अपना शेष जीवन वृंदावन में व्यतीत किया। कहा जाता है चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल की विधवाओं की दयनीय दशा और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए उनके शेष जीवन को प्रभु भक्ति की ओर मोड़ा और इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परम्परा शुरु हो गई|
मंत्र की महिमा
हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे॥
ऊपर लिखा यह अठारह शब्दीय (32 अक्षरीय) कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है। इसे तारक ब्रह्म महामंत्र कहा गया, व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था। जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानों ईश्वर का आवहान कर रहे हैं। सन् 1510 में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से सन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया।
अपने समय में संभवतः इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलांचल (कटक) में चले गये और वहां 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे। महाप्रभु के अन्तकाल का अधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। 48 वर्ष की अल्पायु में उनका देहान्त हो गया। चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पर्याप्त है।