पत्थर पर नहीं, पानी पर लकीर {भाग २}

गीता में दैवी सम्पदा



गतांक से आगे...


चौथा क्रोध है  आकाश की लीक की तरह। यह थोड़ा कठिन है। देखो, आकाश में यदि आप लकीर बनाना चाहेंगे, तो लकीर बनेगी ही नहीं। आकाश में पक्षी उड़ते हैं, कोई चिन्ह नहीं बनता। उनके पदचिन्हों की कोई निशानी नहीं है। आकाश में हवाई जहाज जाते हैं, कोई निशान नहीं होता आकाश में। ऐसा भी होता है, जहां गुस्सा आता ही नहीं। हजारों, लाखों और करोड़ों वर्षों के बाद ही कोई ऐसी विभूति पैदा होती है, संत पैदा होता है, कोई ऐसा सज्जन पैदा होता है, ऐसा ज्ञानी पैदा होता है जिसको क्रोध आता ही नहीं है। बहुत समय लग जाता है ऐसी विभूति को पृथ्वी पर उतरने के लिए| सर्वसामान्य के वश की बात नहीं है यह।


एक नदी के किनारे, पीपल के पेड़ के नीचे, एक छोटी सी झोंपड़ी में एक फकीर रहता - था- बिल्कुल नग्न। मेरी आंखों देखी घटना है यह। बड़े सज्जन, बड़े साधु, बड़े सत्पुरुष थे वे। वहां के कुछ लोग अच्छे थे, और कुछ लोग बुरे भी थे। हर जगह ऐसा होता है, सभी जगह सज्जन भी होते हैं, सत्पुरुष भी होते हैं। गुंडे और डाकू भी होते हैं,हत्यारे भी होते हैं, लुटेरे भी होते हैं लुच्चे भी होते हैं |


सुबह ही सुबह एक सज्जन आया,एक सत्पुरुष आया। उसने नमस्कार किया, प्रणाम किया, साष्टांग प्रणाम किया। वह चन्दन लेकर आया था। उसने महात्मा के माथे पर चन्दन लगाया, माला पहनाई और बड़े यत्न और प्रयत्न से उनके चरण धोए और कहा, भगवान में और आपमें कोई अन्तर नहीं है। आप तो ईश्वर हैं, आप तो प्रभु है। फिर उसने यहां तक कह दिया कि परमात्मा को तो हमने जाना नहीं, पहचाना नहीं है। कभी परमात्मा से हमारी मुलाकात नहीं हुई है, कभी परमात्मा ने कोई बातचीत भी नहीं की है, जबकि आपसे तो हम बातचीत कर रहे हैं|


संत की प्रशंसा और स्तुति करके वह चला गया। इसके थोड़ी देर बाद ही उस गांव का एक गुंडा आ गया, लफंगा आ गया। उसने आते ही महात्मा को गाली देना शुरु कर दिया, तुम लुच्चे हो, पाखंडी हो, दंभी हो, तुमसे सभी तंग आ गए हैं। उसने महात्मा को गालियां दीं, तिरस्कार किया, पास में गोबर पड़ा था, वह उनके सिर पर लगा दिया।थूक भी दिया उन पर और पांव में जो उसके जूता था, वह भी उसने उनके सिर पर रख दिया। उससे जितना हो सकता था, वह उसने कर दिया। कोई कसर नहीं छोड़ी उसने उनका अपमान करने में। 



जब मनुष्य के हृदय में प्रेम भर जाता है, तो वह वाणी से प्रकट करता है कि तुम बड़े अच्छे लगते हो, बहुत प्यारे लगते हो, बड़े । मीठे लगते हो। जब मन से प्रेम नहीं निकलता, तो हम पता है क्या करते हैं, आंखों में आंसू आ जाते हैं प्रेम के और हम रोने लगते हैं। और जब लगता है कि प्रेम अभी भी पूरा नहीं हुआ है, तो अपने दोनों बाजुओं को फैलाकर हम उससे लिपट जाते हैं। ये तीन ही तरीके हैं प्रेम को प्रकट करने के।



देखो, जब आदमी के हृदय में स्नेह होता है, प्रेम होता है, तो किसी न किसी रूप में वह प्रकट होता है। और जब मनुष्य के हृदय में प्रेम भर जाता है, प्यार भर जाता है, तो वह भी किसी न किसी तरह निकलता है । वाणी से प्रकट करता है कि तुम बड़े अच्छे लगते हो, बहुत प्यारे लगते हो, बड़े मीठे लगते हो। मेरा मन करता है, तुम्हारे पास ही बैठा रहूं| जब मन से प्रेम नहीं निकलता, तो हम पता है क्या करते हैं, आंखों में आंसू आ जाते हैं प्रेम के और हम रोने लगते हैं। और जब लगता है कि प्रेम अभी भी पूरा नहीं हुआ है, तो अपने दोनों बाजुओं को फैलाकर हम उससे लिपट जाते हैं। ये तीन ही तरीके हैं प्रेम को प्रकट करने के। यही तीन तरीके क्रोध को प्रकट करने के भी हैं। जब आदमी के मन में क्रोध होता है, गुस्सा होता है, उत्तेजना होती है, तो वाणी से वह अंट-शंट बकता है। वाणी से जितना अंट-शंट वह बक सकता है, बकता है। जब वह सोचता है कि इससे पूरा नहीं हुआ तो वह मिट्टी फेंकता है, थूकता है उस पर। जब लगता है कि इससे भी बात नहीं बनी है, तो मार-पीट करने पर उतर आता है वह उससे। तीन ही तरीके क्रोध प्रकट करने के हैं और तीन ही तरीकों से प्रेम को प्रकट किया जा सकता है। पहले आदमी ने जो नमस्कार किया था, प्रणाम किया था, झुका था, उसे महात्मा कुछ भी नहीं बोले। 


 उसने महात्मा को कहा कि आप अभी कुछ बोलेंगे नहीं क्या? और दूसरे आदमी ने जब अपमान किया, बहुत दुत्कारा-फटकारा, तो फिर भी नहीं बोले, तो उसने कहा कि तुम कुछ बोलोगे नहीं क्या? महात्मा ने कहा, मुझे कुछ भी बोलने की जरुरत ही क्या है। होता एक मुझे भगवान कहता है और तुम मुझे शैतान कहते हो। आपस में निर्णय कर लो, मुझे बीच में डालते ही क्यों हो? मैं तो जो हूं, सो हूं। आकाश की तरह महात्मा को क्रोध आया ही नहीं। यह थोड़ा असंभव सा है, कठिन सा है। जिन्दगी में इस स्थिति तक पहुंचने के लिए बहुत कठिनाइयों को झेलना पड़ता है, अथवा विशेष प्रशिक्षण करना पड़ता है। क्रोध की बात करते समय भगवान श्रीकृष्ण चौबीसों घंटे रहने वाले क्रोध की ओर इशारा कर रहे हैं। दैवी सम्पदा का यह बारहवां लक्षण है- अक्रोधः।


मैंने अपनी आंखों से देखा है उस महात्मा को। वो पहलवान थेबहुत बड़े पहलवान थे। एक बार में दस-दस पहलवान को पछाड़ देते थे। बाद में उनको वैराग्य हुआ। संसार से उनकी अनासक्ति हो गई। उन्होंने फकीरों का वेश धारण कर लिया। फकीरी भी उनकी कमाल की थी। ऐसा फकीर मेरी दृष्टि में नहीं आया देखने में।


 


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