समयाभाव- एक व्यर्थ शिकायत (डॉ. जानसन और एक शंकालु)
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डॉक्टर जानसन के पास एक शंकालु मनुष्य आकर बोला- डॉक्टर! डॉक्टर!! मैं नष्ट हो गया, मैं तो गया गुजरा, मैं किसी काम के योग्य नहीं रहा, मैं कुछ भी नहीं कर सकता। इस दुनिया में मनुष्य क्या कर सकता है?"
डॉक्टर जानसन ने उससे पूछा कि क्या हुआ, क्या मामला है? अपनी शिकायत के लिए सबब, सही कारण तो बताने चाहिए? वह मनुष्य इस प्रकार अपनी दलीलें पेश करने लगामनुष्य इस संसार में अधिक से अधिक सौ वर्ष जीता है। भला, इस अपार, अनन्त काल के सामने यह सौ वर्ष क्या हैं? इस पर आधी आयु तो निद्रा में बीत जाती है। आप जानते हो कि हम लोग प्रतिदिन सोते हैं, हमारा बाल्य-काल एक लम्बी निद्रा है। और हमारी वृद्धावस्था का काल भी शिथिलता और असमर्थता का काल है। जिसमें हम कुछ भी नहीं कर सकते, फिर हमारा यौवन-काल दुर्विचारों, भान्ति-भान्ति के प्रलोभनों और - दुरुपयोगों में खर्च हो जाता है। इससे जो कुछ समय बच निकलता है, वह क्रीड़-कलोल में खर्च हो जाता है। हम लोग बहुत खेलते हैं, इससे जो कुछ समय बच निकलता है, वह नित्य क्रिया करने में, खाने-पीने इत्यादि में नष्ट हो जाता है। और उससे भी जो कुछ बच निकलता है, वह समय क्रोध, ईर्ष्या, शोक, चिन्ता, दुख और पीड़ा में चला जाता हैयह सब हर एक मनुष्य के लिए स्वाभाविक ही है। इससे भी जो बच रहता है, जो किंचित सा समय इसके बाद हमें मिलता है, वह बाल-बच्चे, मित्रों और बंधुओं के मिलने-मिलाने और देख-भाल में चला जाता है। ऐसी दशा में मनुष्य इस संसार में भला क्या कर सकता है? जो मरते हैं, उनके लिए हमें रोना-पीटना पड़ता है। और नवागत के जन्म पर खुशी मनानी पड़ती है। इस प्रकार सारा समय नष्ट हो जाता है, और ऐसी हालत में मनुष्य कोई पक्का और यथार्थ काम भला कैसे कर सकता है? अपने ईश्वरत्व को अनुभव करने के लिए मनुष्य कैसे समय निकाल सकता है? हम तो नहीं निकाल सकते। परे हटाओ इन गिरजाघरों को, दूर करो इन धार्मिक गुरुओं और उपदेशकों को, इनसे कह दो कि लोग धर्म, ईश्वर-भजन के लिए कोई समय नहीं निकाल सकते, अपने ईश्वरत्व को अनुभव करने के लिए उनके पास कोई समय नहीं है। यह हम लोगों के सामर्थ से बाहर है।"
डॉक्टर जानसन इन शब्दों पर हंसा नहीं, उसने उस आदमी का न तो तिरस्कार किया और न धिक्कारा, वह केवल रोने लगा, और उसके साथ सहानुभूति करते हुए बोला- मनुष्यों को आत्मघात कर लेना चाहिए, क्योंकि उनके पास परमार्थ के लिए कोई समय नहीं।
भाई! आपकी इस शिकायत के साथ मुझे एक और शिकायत है, मुझे इससे भी भयंकर शिकायत करनी है।" इस मनुष्य ने डॉक्टर जानसन से कहा कि आप अपनी शिकायत कहिये। डॉक्टर जानसन रोने लगा, दिखावटी रुदन करते हुए बोला- यह देखो, मेरे लिए कोई जमीन या भूमि नहीं रही है, कोई ऐसी भूमि नहीं बची है जो मेरे खाने भर को अन्न उत्पन्न कर सके, मैं तो गया-गुजरा और मरा हो गया हूं।" वह आदमी बोला- अजी डॉक्टर साहब! यह कैसे हो सकता है? मैंने माना कि आप बहुत अधिक खाते हैं, दस - मनुष्यों जितना खाते हैं, फिर भी इस पृथ्वी पर इतनी भूमि है कि जो आपके उदर के लिए अन्न उपजा सके, आपके शरीर के लिए अन्न या शाक भाजी उत्पन्न करने को काफी भूमि है। आप शिकायत क्यों करते हैं?" डॉक्टर जानसन ने उत्तर दिया- अरे देखो, तो आपकी यह पृथ्वी क्या तुच्छ चीज है? यह भूमि कुछ चीज नहीं। ज्योतिर्गणित में यह पृथ्वी एक बिन्दु-मात्र मानी जाती है। जब हम तारों और सूर्यो के अन्तर का हिसाब लगाने बैठते हैं, तो इस पृथ्वी को कुछ भी नहीं अर्थात शून्यवत् मानते हैं, इस शून्य रूप पृथ्वी का तीन चौथाई भाग तो जल से परिपूर्ण है, फिर इस पर बचता ही क्या है?
जरा ध्यान दो! एक बहुत बड़ा भाग तो ऊपरी बालू से भरा पड़ा है, एक बड़ा भाग विशाल पर्वतों और पत्थरों ने ले रखा है, एक बड़ा भाग झील और नदियों ने दबा रखा है, फिर इस भूमि का बहुत सा भाग लन्दन जैसे बड़े-बड़े नगरों से घिरा पड़ा है, उस पर सड़कें, रेलें- गली-कूचे इस पृथ्वी का एक बहुत बड़ा भाग ले लेते हैं। अब बतलाइये, इस पृथ्वी का कौन सा भाग मनुष्य के लिए छूट रहा है? अर्थात कोई नहीं। तो भी हम मान लेते हैं कि इन सबसे कुछ अवश्य मनुष्य के लिए बचा है। परन्तु कितने ऐसे प्राणी हैं, जो इस बचे हुए तुच्छ-तल से लाभ उठाना चाहते हैं?
मेरा तर्क तो मुझे इस निराशा और शोक भरे निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि मेरा मर जाना उचित है, क्योंकि मेरी उदर-पूर्ति निमित्त अन्न उपजाने योग्य भूमि मुझे नहीं मिल सकती।" इस पर वह मनुष्य बोला- डॉक्टर साहब! आपकी यह लम्बी युक्ति ठीक नहीं, आपका तर्क तो ठीक जान पड़ता है, परन्तु आपके इस तर्क के होते हुए भी यह पृथ्वी आपको जीवित रख सकती है।"
तब डॉक्टर ने उत्तर दियामहाराज! यदि मेरी शिकायत युक्तिहीन है, तो आपकी शिकायत भी युक्तिहीन है। यदि मुझे भौतिक भोजन देने को उपजाऊ भूमि काफी है, आपके मन्तव्य के लिए समय भी पर्याप्त है, वह आपको आध्यात्मिक भोजन भी दे सकता है|
निष्कर्ष
आध्यात्मिक साधना के लिए समय की कमी की शिकायत बेबुनियाद है, प्रत्येक दशा में यदि किसी व्यक्ति को कोई कार्य को करने की प्रबल इच्छा है और वह सही ढंग से समय का उपयोग करता है तो उसे समय की कोई कमी नहीं हो सकती है|