सुख - दुःख क्या है (भाग २ )

मीमांसा 


                   



लोग मुसीबत को जैसी भयंकर समझते हैं, वह वैसी नहीं है। उसके फूल कड़वे होते हैं। पर उसके फल मीठे होते हैं। जिस पर ईश्वर की पूर्ण कृपा होती है जिसके धर्म और धैर्य की वह परीक्षा करना चाहता है, उस पर ही विपदा डालता है। विपत्ति में हमें बहुत लाभ होते हैं। विद्या की वृद्धि होती है। संसार की असलियत का पता लगता है। और परमात्मा से प्रीति होती है।



बादलों से भरा आकाश फिर निर्मल और निर्मेघ हो जाता है। वर्षा और तूफान सदा नहीं रहते। मनुष्य भी एक न एक दिन विपत्ति से छुटकारा पाकर सुखी और स्वतंत्र हो जाता है। इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं।


लोग मुसीबत को जैसी भयंकर समझते हैं, वह वैसी नहीं है। उसके फूल कड़वे होते हैं। पर उसके फल मीठे होते हैं। जिस पर ईश्वर की पूर्ण कृपा होती है जिसके धर्म और धैर्य की वह परीक्षा करना चाहता है, उस पर ही विपदा डालता है। विपत्ति में हमें बहुत लाभ होते हैं। विद्या की वृद्धि होती है। संसार की असलियत का पता लगता है। और परमात्मा से प्रीति होती है। जैसे बादल के बिना बिजली नहीं होती उसी तरह विपत्ति के बिना मनुष्य के गुणों का प्रकाश नहीं होता।


कसौटी पर कर कस सर्राफ जैसे सोने के गुण दोषों की परीक्षा करते हैं उसी तरह विपत्ति रूपी कसौटी पर पुरुष अपने मित्र, स्त्री संबंधी, बल और शरीर के सार की परीक्षा करते हैं। परमात्मा जो कुछ करता है, वह अच्छा ही करता है। पर मनुष्य अपनी बुद्धि की संकीर्णता के कारण अपने मतलब को समझ नहीं पाता। इसी से दुख में ईश्वर और भाग्य को दोष देता है।


परमात्मा कोई भी काम ऐसा नहीं करता जिससे मनुष्य का अनिष्ट हो- दुख है कि मनुष्य परमात्मा की लीलाओं को समझने में सामर्थ्य नहीं रखता। इसलिए विद्वानों ने कहा है कि मनुष्य परमात्मा पर पूरा भरोसा रखे। अपने को उसी हालत में सुखी माने जिसमें वह रखे। परमात्मा की इच्छा के प्रतिकूल आपत्ति न करो। हे ईश्वर उसी में हम राजी हैं जिसमें तेरी मर्जी है। तू अपना काम कर मैं अपना काम करूं। 'प्लाट कार्क' नाम के एक यूरोपियन विद्यान कहते हैं, 'हर हालत में प्रसन्न रहना सीखो। यदि तुम्हारे धन से दूसरों को लाभ होता है तो धन से सुख मानों। अगर दरिद्रता हो तो इसलिए सुखी रहो कि तुम पर हज़ारों तरह की चिन्ताओं का भार नहीं।'


 दुख और सुख पुण्य और पापों का फल हैं। पिछले जन्ममें अच्छा या बुरा जैसा कर्म किया जाता है उस प्रारब्ध के लेख को कोई मिटा नहीं सकता। नाना प्रकार की तपस्या और देवताओं की उपासना करने का भी फल नहीं होता | देवता तो देवता स्वयं शिव और विष्णु भी भाग्य के लिखे को मिटा नहीं सकता।


जो होनहार है वह अवश्य ही होता है। प्रारब्ध के लेख अवश्य भोगने होंगे। भोगने वाला चाहे रो-रोकर, या हाय-हाय करके भोगे। चाहे शान्ति से भोगे। विपदा में तो मनुष्य गूंगा, बहरा, अंधा, लंगड़ा या लूला हो जाता है। अपने को पत्थर या मिट्टी समझ लेता है। उसकी विपदा सुख से कटती है।


विपदा में बड़ों-बड़ों को नीचा देखना पड़ता है। पद-पद पर अपमानित और लज्जित होना पड़ता है। साधारण मनुष्य उसके सामने किस खेत की मूली है? ऐसा कौन है जिसे विपदा में नीचा नहीं देखना पड़ा? कुछ इतिहास पर विचार करें।


(1) भीमसेन (पांडु के बेटे) में अपार वीर्य बल था। वह बड़े-बड़े वृक्षों को उठाकर फेंक देता था। जिन्होंने कीचक और बकासुर राक्षसों को हंसते-हंसते मार डाला। जिससे सारे ही कौरव भाई डरते थे। उस भीमसेन को राजा विराट के रसोईघर में रसोईये का काम करना पड़ा था और रसोईया कह कर पुकारते थे तब द्रौपदी की आत्मा जल कर भस्म हो जाती थी।


(2) जिस धर्मराज युधिष्ठिर के प्रिय भाई अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव और त्रिभुवन विजयी थे। जिनके पांचाल पति घृष्ट घुम्न जैसे महा बलवान योद्धा नातेदार थे|


जिनके ऊपर स्वयं त्रिलोकीनाथ महाराज कृष्ण की पूर्ण कृपा थी, उन धर्मराज को भी अपने तेज, बल और उत्साह को छिपाकर वन में दिन काटने पड़े। एक चक्रवर्ती राजा का अपमान क्या यह कम था? पर बेचारों ने समय देखकर सब सहा। क्या करते? सब विधि में लिखा था? प्रारब्ध में जिल्लत भी लिखी थी।


(3) इस जगत में जो अनुपम रूपवती थी जिनका यौवन स्थिर था जो गुणों की खान थी, जो महाबली पांचाल स्वामी घृष्ट द्युम्न की सगी बहन थी जो जगत विजयी पांडवों की धर्मपत्नी और महारानी थी, जो कृष्ण जी महाराज की सखी थी, उस द्रौपदी को मत्स्य राजा के रनिवास में सैरन्ध्री का काम करना पड़ा था। वह जानती थी कि पूर्वजन्म के कर्मफल अवश्य भोगने होंगे। सब सहती रही।


(4) महाराजा नल जो कि बहुत बल वाले राजा थे, कहते हैं कि जो मंत्र बल से आग जला सकते थे, उनको भी जंगलों की खाक छाननी पड़ी थी। अनुपम सुन्दर धर्मपत्नी को अकेला छोड़ना था। और दमयन्ती को भारी कष्ट झेलने पड़ेऔर खुद को अयोध्या के महाराजा के यहां चाकरी करनी पड़ी।


(5) महाराज रामचन्द्र जी जिनके पिता महाराजा दशरथ थे। और जिनके गुरु महामुनि वशिष्ठ थे। जिनके ससुस महान विद्वान राजा जनक थे। जिनकी सहधर्मिणी जानकी जी थीवह भी महाकुमारी सीता को लेकर वन-वन घूमते रहे और 14 साल तक जंगल में रहे।


(6) जब सम्राट हुमायुं को शेरशाह से हार हुई तो सिंध के निर्जल और निर्जन रेगिस्तान में अपनी बेगम को जो गर्भवती थी, लेकर महाकष्ट भोगने पड़े थे।


ज्यादा कहने से क्या? सभी मनुष्यों को कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जो लोग बुद्धिमान हैं, उनको महापुरुषों की इन बातों से अपने मन को शान्त करके विपदा का मुकाबला करना चाहिए। क्योंकि हमारी संस्कृति में दुखों को सबने हंसते-हंसते काटा है। ऐसे ही हमें भी अपनी यात्रा को प्रसन्नता से करके मंजिल पर पहुंचाने का प्रयत्न करना चाहिए। तमाम नष्ट हो जाने पर, धनहीन होने पर या परिवार के मर जाने पर, संबंधियों के बिछड़ने पर तरह-तरह की विपत्तियां आती हैं। तमाम साथ छोड़ जाते हैं। ऐसी हालत में एक धैर्य ही काम आता है। तुलसी महाराज ने कहा है-


धीरज, धर्म मित्र और नारी।


आपातकाल परखिये चारी॥


यह चारों आपातकाल में ही जाने जाते हैं कि हम कितना धीरज रखते हैं कितना धर्म पर चलते हैं और कौन मित्र काम आता हैऔर स्त्री भी तब साथ देती है कि नहीं। उसी समय तो तुम्हारी परख होती है।


 


 


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