अध्यात्म, ध्यान और भक्तियोग
अधिकतर अध्यात्म और ध्यान के बारे में प्रश्न उठता है। अध्यात्म क्या है और आप इसकी करती हैं उत्तर बहुत सरल है। अपने अंतरमन की आवाज को सुनना, अपनी आत्मा को पहचाननापिता परमेश्वर के सदगुणों से अवगत कराना और उसी राह पर चलना जो शास्त्रनिहित है। इस साहस से चलना और अपने साथ अन्य लोगों को भी सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना यही ओम् पत्रिका द्वारा प्रकाशित अध्यात्मिक लेखों से जन-जन तक भारतीय संस्कृति की पराकाष्ठा उद्वेश्य है। सभी के व्यक्तित्व का उत्थान हो। जिस प्रकार कमल रुपी व्यक्ति कीचड जैसे समाज शालीनता का उदाहरण प्रस्तुत करता है यह अध्यात्म द्वारा ही संभव है।
"आप समुद्र में एक पानी की बूंद नहीं हैं, अपितु एक बूंद में सम्पूर्ण समुद्र हैं"
यही सोच अध्यात्म है अध्यात्मवादियों के लिए दो प्रकार की भक्ति का वर्णन किया गया है। भगवद्अध्याय बारह में भगवान कृष्ण अर्जुन को भक्ति के दो मार्ग बताते हैं। निर्विशेषवाद और सगुणवाद । भक्त अपनी सारी शक्ति से परमेश्वर की सेवा करता है। निर्विशेषवादी भी श्री कृष्ण की सेवा करता प्रत्यक्ष रुप से न करके वह अप्रत्यक्ष निर्विशेष ब्रह्म का का ध्यान करता है।
ध्यान कोई भी सामान्य व्यक्ति कर सकता है। जो व्यक्ति प्रभु के साकार रुप में अपने मन को एकाग्र और जो अत्यन्त श्रद्वापूर्वक उन को पूजता है, उसे योग में परम सिद्वमाना जाता है। शुद्व भक्त निरन्तर कार्यरत है -कभी कीर्तन करता है, कभी पुस्तक पढता है, कभी प्रसाद करता है या कभी मन्दिर झाडता-बुहारता जो कुछ भी करता है प्रभु के कार्यों के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य में उस का ध्यान नहीं लगता। ऐसा कार्य पूर्ण समाधि कहलाता है। लेकिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में कर के तथा सबों के प्रति समभाव रखकर सत्य निराकार का ध्यान करता है वह निर्विशेषवादी भक्त भी अन्ततः प्रभु को प्राप्त करता है|