तेज क्षमा धैर्य (part 1)
हमारा यह स्थूल शरीर नहीं जानता कि वह जड़ है, इन्द्रियां भी नहीं जानती कि वे जड़ हैं। इन्द्रियों को मन चलाता है और यह मन न चेतन है, न जड़ है। मन तो माया है, मिथ्या है, भ्रान्ति है। मन की प्रतीती तो होती है, लेकिन इसकी कोई वास्तविकता नहीं है। अगर आप इसे ढूंढने लगेंगे, तो मन का कहीं पता नहीं चलेगा। मन ही असत्य और सत्य को प्रतीत करावता है। मन ही सम्य को आवुत करता है। मन ही अपने आपको विस्मृत कराता है। इस स्थूल देह में 'मैं' पने का अहसास दिलाकर बाहर संसार में मेरेपन का विस्तार भी यही मन कराता है।
बांझ का पुत्र होता तो है नहीं, फिर उसके लिए चिंता कैसी?आकाश नीला दिखता है, पर वह नीला है नहीं; फिर भी वह नीला प्रतीत होता है। इसी तरह मन वास्तव में है नहीं, फिर भी प्रतीत होता है। देह भी एक प्रतीती है और जगत भी एक प्रतीती है। जिसकी भान्ति निवृत हुई, वह हुआ आत्मवेत्ता और जिसकी भ्रान्ति निवृत नहीं हुई वह हुआ अज्ञानी।
अज्ञानी को दो स्थितियों का सामना करना पड़ता है। एक, जब वह अपने दुख, दर्द और रोगी मन के साथ विषय-वासनाओं में भटकता फिरता है। दूसरी स्थिति वह है जब उसके मन में यह प्रश्न उठता है कि यह सब है क्या?यह मैं कहां फंस गया हूं?जो इन प्रश्नों के उत्तर दे सकता है, उसी को सद्गुरू कहते हैं और मन जो उत्तर खाजता है, उसको जिज्ञासु कहते हैं। जब जिज्ञासु और सद्गुरू का वार्तालाप होता है, तो कुछ शब्दों से और कुछ बिना के शब्दों के गुरू उसके भ्रम की निवृत्ति कराता है। असत्य और सत्य का बोध कराता है। फिर कोई बंधन नहीं रह जाता। इसीलिए उसे फिर मुक्ति या मोक्ष की भी इच्छा नहीं रह जाती। दैवी सम्पदा के बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं-
तेजः क्षमा धृतिः शैचं अद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीं अभिजातस्य भारत।
अर्थात् हे भरतवंशी अर्जुन! तेज, क्षमा, धैर्य,शरीर की शुद्धि, वैरभाव का न होना, मान को न चाहना, ये सब दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं। तेज, क्षमा, धृति ये तीन गुण मनुष्य को सत्त्वगुणी बनाते हैं। पहला है तेज माने ओजस।